कैसे रुके रेगिस्तान का विस्तार
अरावली
पंकज चतुर्वेदी
27 फरवरी को हरियाणा विधानसभा में जो हुआ वह पर्यावरण के प्रति सरकारों की संवेदनहीनता की बानगी है। बहाना बनाया गया कि महानगरों का विकास करना है, इसलिए करोड़ों वर्ष पुरानी ऐसी संरचना, जो रेगिस्तान के विस्तार को रोकने से लेकर जैवविविधता संरक्षण तक के लिए अनिवार्य है, को कंक्रीट का जंगल रोपने के लिए खुला छोड़ दिया गया। सनद रहे 1900 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने पंजाब लैंड प्रीजर्वेशन एक्ट (पीएलपीए) के जरिए अरावली के बड़े हिस्से में खनन एवं निर्माण जैसी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। 27 फरवरी को इसी एक्ट में हरियाणा विधानसभा ने ऐसा बदलाव किया कि अरावली पर्वतमाला की लगभग 60 हजार एकड़ जमीन शहरीकरण के लिए मुक्त कर दी गई। इसमें 16 हजार 930 एकड़ गुड़गांव और 10 हजार 445 एकड़ जमीन फरीदाबाद में आती है। अरावली की जमीन पर बिल्डरों की शुरू से ही गिद्ध दृष्टि रही है। हालांकि एक मार्च को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) अधिनियम, 2019 पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए हरियाणा विधान सभा के प्रस्ताव के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। अभी आठ मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेताया है कि अरावली से छेड़छाड़ हुई तो खैर नहीं। गुजरात के खेड़ ब्रह्म से शुरू हो कर कोई 692 किमी. तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है, जहां राष्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुरानी मानी जाती है, और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में गिना गया है। असल में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरुभूमि का विस्तार नहीं हुआ और दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 7 मई, 1992 को जारी किया गया। फिर 2003 में एमसी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई आदेश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कॉलोनी बना दी गई। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं। पिछले साल सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया था कि 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल, राजस्थान के करीब 19 जिलों से होकर अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदानें हैं, जिनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है, और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर र्रिचड मरफी का सिद्धांत लागू था। इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नये सिरे से व्याख्या की।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है, उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है, तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा। चिंताजनक तय है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिशत हिस्से पर हरियाली थी, जो आज बामुश्किल सात फीसद रह गई। अरावली की प्राकृतिक संरचना नष्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती, दोहन जैसी नदियां लुप्त हो रही हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीटय़ूट की एक सव्रें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किमी. पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किमी. हो गई है। साथ ही, इसके 47 वर्ग किमी में कारखाने भी हैं। जाहिर है कि भले ही 7 मई,1992 को भारत सरकार और उसके बाद जनहित याचिका पर 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर खनन और इंसानी गतिविधियों पर पांबदी लगाई हो, लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ हुआ नहीं। जान लें कि अरावली का क्षरण नहीं रुका तो देश की राजधानी दिल्ली, देश को अन्न देने वाले राज्य हरियाणा और पंजाब में खेती पर संकट खड़ा हो जाएगा।
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