खतरा बनता खाली दाल का कटोरा
पंकज चतुर्वेदी
इन दिनों आम आदमी के भोजन से दाल नदारत है, कारण है - मांग की तुलना में कम उत्पादन, डालर के मुकाबले रूप, के कमजोर होने से ?घटता आयात और उसके आसमान छूते दाम। वह दिन अब हवा हो गए , हैं जब आम मेहनतकश लोगों के लिए प्रेाटीन का मुख्य स्रोत दालें हुआ करती थीं। देश
यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला दे’ा है। दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रति’ात हमारे यहां है जबकि ख्खपत 22 फीसदी है। इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो Û, है जब आम-आदमी को ‘‘दाल-रोटी खाओ, प्रभ्ुा के Ûु.ा Ûाओ’’ कह कर कम में ही Ûुजारा करने की सीख दे दी जाती थी । आज दाल अलबत्ता तो बाजार में मांÛ की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है, और जो उपलब्ध भी है तो उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर हो Ûया है । वर्ष 1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99-4 लाख टन था, जो 2006-07 आते-आते 145-2 लाख टन ही पहुंच पाया । सन 2008-09 में मुल्क के 220-9 लाख हैक्टर खेतों में 145-7 लाख टन दाल ही पैदा हो सकी। सनद रहे कि इस अवधि में देश की जनसंख्या में कई-कई Ûु.ाा बढ़ौतरी हुई है, जाहिर है कि आबदी के साथ दाल की मांÛ भी बढ़ी । इसी अवधि के दौरान Ûेंहू की फसल 104 लाख टन से बढ़ कर 725 लाख टन तथा चावल की पैदावार 305-9 लाख टन से बढ़ कर 901-3 लाख टन हो Ûई । हरित क्रांति के दौर में दालों की उत्पादकता दर, अन्य फसलों की तुलना में बेहद कम रही है ।
दलहन फसलों की बुवाई के रकवे में बढ़ौतरी ना होना भी चिंता की बात है । सन 1965-66 में देश के 227-2 लख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोई जाती थी, सन 2005-06 आते-आते यह ?ाट कर 223-1 लाख हेक्टेयर रह Ûया वर्ष 1985-86 में विश्व में दलहन के कुल उत्पादन में भारत का योÛदान 26-01 प्रतिशत था, 1986-87 में यह आंकड़ा 19-97 पर पहुंच Ûया । सन 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ौतरी हुई और यह 22-64 फीसदी हो Ûया । लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांÛ से बहुत दूर रहे । हम Ûत् 25 वर्षो से लÛातार विदेशों(म्यांमार, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंÛवा रहे हैं । पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया था, लेकिन आलू-प्याज के लि, कोहराम काटने वाले राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे थे । पिछले साल सार्वजनिक {ो= की कंपनी ,म,मटीसी ने नवंबर तक 18,000टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लि, वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी । माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उÛली। ,क तरफ आयातीत दाल बाजार मंे थी, सो किसानों को अपनी अपे{िात रेट नहीं मिला । ,ेसे में किसान के हाथ फिर निराशा लÛी और अÛली फसल में उसने दालों से ,क बार फिर मंुह मोड़ लिया ।
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन 2004 में इंटीÛ्रेटेड स्कीम फार आईल सीड, पल्सेज, आईल पाम ,ंड मेज़(आई,सओपीओ,म) नामक योजना शुरू की थी । इसके तहत दाल बोने वाले किसानों को सबसिडी के साथ-साथ कई सुविधा,ं देने की बात कही Ûई थी । वास्तव में यह योजना नारों से ऊपर नहीं आ पाई । इससे पहले चैथीं पंचवर्षीय योजना में ‘‘ इंटेंसिव पल्सेस डिस्ट्रीक्ट प्रोÛ्राम’’ के माध्यम से दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने का संकल्प लाल बस्तों से उबर नहीं पाया । सन 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परि.ााम नहीं निकले । जहां सन 1950-51 में हमारे दे’ा में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 Û्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 Û्राम से भी कम हो Ûई। क
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(आईसी,आर) की मानें तो हमारे देश में दलहनों के प्रामा.िाक बीजों हर साल मांÛ 13 लाख कुंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6-6 लाख कुंटल । यह तथ्य बानÛी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लि, कितनी Ûंभीर है । यह दुख की बात है कि भारत , जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है । कमी हो तो बाहर से मंÛवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है ।
नेशनल सैंपल सर्वे के ,क सर्वे{ा.ा के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मा=ा में लÛातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लÛा है । इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है । शायद सभी सियासती पार्टियों की रूचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंÛवाने में हैं । तभी तो इतने ‘ाोर-’ाराबे के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लÛाई जा रही है। इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटौरियों को बÛैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है।
की आबादी बढ़ी, लोÛों की पो”िटक आहार की मांÛ भी बढ़ी, बढ़ा नहीं तो दाल बुवाई का रकवा। परि.ााम सामने हैं- मांÛ की तुलाना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं। भारत में 20 मेट्रीक टन की सालाना जरूरत है, जबकि देश में सन 2012-13 में इसका उत्पादन हुआ महज 18-45 मीट्रिक टन । दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढ़ रहे हैं, नजीतन आम आदमी प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लि, दीÛर अनाजों पर निर्भर हो रहा है । इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ौतरी हो रही है । हालात इतने खराब हैं कि Ûत् 22-23 सालों से हम हर साल दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लि, इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की किसी ठोस योजना नहीं बन पा रही है ।
पंकज चतुर्वेदी
इन दिनों आम आदमी के भोजन से दाल नदारत है, कारण है - मांग की तुलना में कम उत्पादन, डालर के मुकाबले रूप, के कमजोर होने से ?घटता आयात और उसके आसमान छूते दाम। वह दिन अब हवा हो गए , हैं जब आम मेहनतकश लोगों के लिए प्रेाटीन का मुख्य स्रोत दालें हुआ करती थीं। देश
यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला दे’ा है। दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रति’ात हमारे यहां है जबकि ख्खपत 22 फीसदी है। इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो Û, है जब आम-आदमी को ‘‘दाल-रोटी खाओ, प्रभ्ुा के Ûु.ा Ûाओ’’ कह कर कम में ही Ûुजारा करने की सीख दे दी जाती थी । आज दाल अलबत्ता तो बाजार में मांÛ की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है, और जो उपलब्ध भी है तो उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर हो Ûया है । वर्ष 1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99-4 लाख टन था, जो 2006-07 आते-आते 145-2 लाख टन ही पहुंच पाया । सन 2008-09 में मुल्क के 220-9 लाख हैक्टर खेतों में 145-7 लाख टन दाल ही पैदा हो सकी। सनद रहे कि इस अवधि में देश की जनसंख्या में कई-कई Ûु.ाा बढ़ौतरी हुई है, जाहिर है कि आबदी के साथ दाल की मांÛ भी बढ़ी । इसी अवधि के दौरान Ûेंहू की फसल 104 लाख टन से बढ़ कर 725 लाख टन तथा चावल की पैदावार 305-9 लाख टन से बढ़ कर 901-3 लाख टन हो Ûई । हरित क्रांति के दौर में दालों की उत्पादकता दर, अन्य फसलों की तुलना में बेहद कम रही है ।
दलहन फसलों की बुवाई के रकवे में बढ़ौतरी ना होना भी चिंता की बात है । सन 1965-66 में देश के 227-2 लख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोई जाती थी, सन 2005-06 आते-आते यह ?ाट कर 223-1 लाख हेक्टेयर रह Ûया वर्ष 1985-86 में विश्व में दलहन के कुल उत्पादन में भारत का योÛदान 26-01 प्रतिशत था, 1986-87 में यह आंकड़ा 19-97 पर पहुंच Ûया । सन 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ौतरी हुई और यह 22-64 फीसदी हो Ûया । लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांÛ से बहुत दूर रहे । हम Ûत् 25 वर्षो से लÛातार विदेशों(म्यांमार, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंÛवा रहे हैं । पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया था, लेकिन आलू-प्याज के लि, कोहराम काटने वाले राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे थे । पिछले साल सार्वजनिक {ो= की कंपनी ,म,मटीसी ने नवंबर तक 18,000टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लि, वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी । माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उÛली। ,क तरफ आयातीत दाल बाजार मंे थी, सो किसानों को अपनी अपे{िात रेट नहीं मिला । ,ेसे में किसान के हाथ फिर निराशा लÛी और अÛली फसल में उसने दालों से ,क बार फिर मंुह मोड़ लिया ।
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन 2004 में इंटीÛ्रेटेड स्कीम फार आईल सीड, पल्सेज, आईल पाम ,ंड मेज़(आई,सओपीओ,म) नामक योजना शुरू की थी । इसके तहत दाल बोने वाले किसानों को सबसिडी के साथ-साथ कई सुविधा,ं देने की बात कही Ûई थी । वास्तव में यह योजना नारों से ऊपर नहीं आ पाई । इससे पहले चैथीं पंचवर्षीय योजना में ‘‘ इंटेंसिव पल्सेस डिस्ट्रीक्ट प्रोÛ्राम’’ के माध्यम से दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने का संकल्प लाल बस्तों से उबर नहीं पाया । सन 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परि.ााम नहीं निकले । जहां सन 1950-51 में हमारे दे’ा में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 Û्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 Û्राम से भी कम हो Ûई। क
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(आईसी,आर) की मानें तो हमारे देश में दलहनों के प्रामा.िाक बीजों हर साल मांÛ 13 लाख कुंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6-6 लाख कुंटल । यह तथ्य बानÛी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लि, कितनी Ûंभीर है । यह दुख की बात है कि भारत , जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है । कमी हो तो बाहर से मंÛवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है ।
नेशनल सैंपल सर्वे के ,क सर्वे{ा.ा के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मा=ा में लÛातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लÛा है । इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है । शायद सभी सियासती पार्टियों की रूचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंÛवाने में हैं । तभी तो इतने ‘ाोर-’ाराबे के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लÛाई जा रही है। इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटौरियों को बÛैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है।
की आबादी बढ़ी, लोÛों की पो”िटक आहार की मांÛ भी बढ़ी, बढ़ा नहीं तो दाल बुवाई का रकवा। परि.ााम सामने हैं- मांÛ की तुलाना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं। भारत में 20 मेट्रीक टन की सालाना जरूरत है, जबकि देश में सन 2012-13 में इसका उत्पादन हुआ महज 18-45 मीट्रिक टन । दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढ़ रहे हैं, नजीतन आम आदमी प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लि, दीÛर अनाजों पर निर्भर हो रहा है । इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ौतरी हो रही है । हालात इतने खराब हैं कि Ûत् 22-23 सालों से हम हर साल दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लि, इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की किसी ठोस योजना नहीं बन पा रही है ।
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