My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 8 दिसंबर 2019

law has to change for sexual assaults on women

मोमबत्ती की ऊश्मा वहां तक क्यों नहीं पहुंचती ?
पंकज चतुर्वेदी

वह बीमार जानवरों का इलाज करती थी, उसे पता ही नहीं था कि कायनातका सबसे खूंखार जानवर इंसान है, जो अकेले जिस्म ही नहीं भरोसे की भी हत्या कर देता है,वह भी बेवजह । हैदराबाद में डा. प्रियंका के स्कूटर को पंचर करना, फिर उसकी मदद के नाम पर उसे एकांत में ले जा कर कुकृत्य करना, उसकी चीखना निकले इसके लिए मुंह दबा देना और उसी दौरान जलब उसके प्राण निकल गए तो उसे एक ट्रक में लाद कर ले जाना , फिर उसे जला देना। इसी के समानांतर डा प्रियंका द्वारा अपनी बहन को फोन कर एकांत में स्कूटर खराब होने व उसकी मदद करने की सूचना देना, उसके तत्काल बाद उसका फोन बंद आने पर पुलिस को सूचति करना, पुलिस द्वारा थाना क्षेत्र ना होने या फिर ‘‘किसी के साथ भाग गई होगी’’ जैसे बयना देना --जा लें ये दोनों ही एक ही स्तर के अपराध है।। लेकिन उन चार को तो जेल भेज दिया गया, लेकिन पुलिस वालों को महज सस्पेंड किया गया।  जबकि हकीकत तो यह है कि ऐसा करने वाले पुलिस वालों पर 120 बी अर्थात अपराध की येजना में षामिल होने का मुकदमा चला था। बहरहाल डा. प्रियकां की घटना के बाद  वही सबकुछ हो रहा है जो सत साल पहले दिल्ली में निर्भया कांड के बाद हुआ था - कुछ लोग गीत-कविता लिख रहे हैं, कुछ मोमबत्तियां खरीद रहे हैं। कुछ चिंतित पालक छोटा चाकू, आलपित ,काली मिर्च का स्प्रे या ऐसी ही कुछ चीजे  अपनी बच्चियों को खरीद कर दे रहे हैं।  वहीं पुरानी मांग- फांसी दो,  हमारे हवाले कर दो, कोई वकील उनका मुकदमा नहीं लड़ेगा आदि-आदि।
जब डा प्रियंका का वाक्या प्रेस में सुर्खियों में था तो उसी समय संभल में एक सोलह साल की बच्ची के साथ दुश्कर्म व उसे जिंदा जला देने, दिल्ली में चार साल की बच्ची के साथ या सारे देष के कई राजयों से ऐसे ही कुकर्मों की खबरों की बाढ़ आ गई। हकीकत तो यह है कि ऐसी घटनांए हर रोज होती हैं, लेकिन जब कोई प्रकरण ज्यादा सुर्खियों  में रहता हैतो मीडिया भी ऐसी खबरें तलाष-तलाष कर छापता है। इन्ही घटनाओं के बीच दो खबरें उ.्रप से आई जहां कानपुर और बागपत में बलात्कारियों के खिलाफ मुकदमों कोे बहुत ही कम दिनों में सुनवाई कर सजा भी सुना दी गई। ठीक उससे पहले सत साल पुराने निर्भया कांड के आरोपियों को फांसी न हो पाने को ले कर अदालती अड़ंगों की भी खबरें भी दप्ती रहीं।
डा. प्रियंका या संभल की बच्ची या अन्य ऐसे ही मामलों में हर बार की तरह अफसरान, नेता ढांढस बंधा रहे हैं कि आपको न्याय मिलेगा। असल में मुजरिमों को सजा ए मौत या ताजिंदगी जेल की सजा, अदालत या कानून की नजरों में तो न्याय होता है लेकिन पीड़ित परिवार के लिए वह कुछ भी नहीं होता-- एक प्रतिषोंध के अलावा। किसी घरमें जो जगह खाली होती है, वह किसी दीगर की मौत से तो भरने से रही।
दिल्ली के चर्चित निर्भया कांड से उपजे जनाक्रोष को कुछ लेाग भले ही सत्ता की सीढ़ी में बदलने मे ंसफल रहे हों, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ना तो औरतों के प्रति समाज का नजरिया बदला है और ना ही कानून की धार ।
हालांकि निभर््ाया वाले कांड में न्याय तो हो चुका है, अपराधियों को फंासी पर चढाने की विधिसम्मत प्रक्रिया यानि अपील आदि भी चल रही है। कथित नाबालिक आरोपी कानून के मुताबिक सजा काट कर कहीं गुमनामी में है। सन 2012 यानि जिस साल निर्भया कांड हुआ , उसके बाद देष में महिलाओं के प्रति षारीरिक अत्याचर के मामले बढ़ै ही हैं, और ऐसे मामलों में सजा के आंकड़े पहले की ही तरह बामुष्किल 28 फीसदी से कम रहे हैं। भले ही कानून बदला, खूब बहस हुई परंतु अभी भी समाज के जिम्म्ेदार हिस्से का ‘‘माईंड सेट’’ ।
कोई सत साल पहले दिल्ली व देष के कई हिस्सों में उस अनाम अंजान ‘‘दामिनी’ के लिए खड़ा हुआ आंदोलन, आक्रोष, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के ईद-गिर्द एक महीने में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार कहीं ना कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है जिसके मंचन के पात्र, संावद, मीडिया आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देषक महज सत्ता तक पुहंचने के लिए बच्चियों के साथ वहषियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर मंतर पर प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तिया केवल उन्ही लोेगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनषील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए -अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।
दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देषभर के धरना-प्रदर्षनों में षाद करोड़ो मोमबत्तिया जल कर धुंआ हो गई हों, संसद ने नाबालिक बच्चियों के साथ छेडछाड़ पर कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के षरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के षरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलातकार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औरत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। आज भी हमारे देष में किसी को प्रताडित करने या किसी के प्रति अपना गुससा जताने का सबसे भदेस, लोकप्रिय, सर्वव्यापी , सहज, बेरोकटोक, बगैर किसी कानूनी अड़चन वाला तरीका है - विरोधी की मां और बहने के साथ अपने षारीरिक संबंध स्थापित करने वाली गाली देना। अब तो यह युवाओं का तकियाकलाम सा बनता जा रहा है। आज भी टीवी पर खबरिया चैनलों से ले कर सास-बहू वाले सीरियलों वाले चैनल तक ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं जिसमें औरत के गुदाज षरीर को जितनी गहराई तक देखा जा सके, दिखा कर माल बेचा जा रहा है। आज भी देष में हर रोज करोड़ों चुटकुले, एमएएस क्लीप और वीडियों फुटेज बेचे, खरीदे, षेयर किए जा रहे हैं, जो औरत के षरीर को मसलने, मजा लेने के लिए उत्तेजित करते हैं। अकेले फेस बुक पर ही ‘‘भाभी’’ और ‘‘आंटी’’ जैसे पवित्र रिष्ते के नाम पर कोई एक दर्जन पेज हैं जो केवल नंगापन और अष्लीलता परोस रहे हैं। अखबारों के क्लासीफाईड मसाज, एस्कार्ट के विज्ञापनों से भरे पड़े हैंजिनके बारे में सभी को पता है  कि वे क्या हैं। मामला दिल्ली का हो या फिर बस्तर का, सभी जगह पुलिस का रवैया वैसा ही है मामले को दबाने, हल्का करने, कुछ छिपाने का प्रयास करने का। हर हाथ में मोबाईल व सस्ते डेटा ने तो गांव-कस्बे तक किसी प्रेमी-प्रेमिका को पकड़ कर उनका वीडिया बनाने और उसकी आड़ में ब्लेकमेल कर लड़कियों को यौन षोशण करने की वारदातों में भयंकर इजाफा कर दिया है।
जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वृत्ति पर अंकुष नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोषिष एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘पाषा, केषावलु, नवीन-षिवा या ‘‘राम सिंह-मुकेष’’ की पैदाईष को रोका नहीं जा सकेगा।
निर्भया फंड: हमारी कोताही की बानगी
देश में जहां महिलाओं के साथ गैंगरेप के बाद हत्या के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे. ऐसे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने संसद में ऐसा जवाब दिया है, जिसे सुनकर हर कोई हैरान रह जाए. मंत्रालय ने संसद को बताया कि रेप पीड़िताओं के लिए बनाया गया निर्भया फंड का ज्यादातर हिस्सा इस्तेमाल ही नहीं हुआ. यह जवाब मंत्रालय की ओर से 29 नवंबर को दिया गया।
बता दें कि 2011 में दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर निर्भया फंड बनाया था. लोकसभा में शुक्रवार को महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने निर्भया फंड के खर्च का ब्योरा देते हुए बताया कि महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव सरकारों ने केंद्र द्वारा दिए निर्भया फंड से एक भी पैसा खर्च नहीं किया, वहीं उत्तर प्रदेश ने 119 करोड़ रुपये में से केवल सत करोड़ रुपये खर्च किए. तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपये में से केवल चार करोड़ खर्च किए. आंध्र प्रदेश ने 21 करोड़ में 12 करोड़ बचाए तो बिहार ने 22 करोड़ में से 16 करोड़ बचा लिए।
देशभर के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 20 ने ही महिला हेल्पलाइन बनाने में पैसे खर्च किए हैं. हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और गोवा जैसे राज्यों को महिला हेल्पलाइन के लिए दिए पैसे जस के तस पड़े हैं.
दिल्ली सरकार ने भी इस मद में मिले 50 लाख रुपये में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया जबकि निर्भया मामले को लेकर आठ साल पहले सबसे बड़ा आंदोलन अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने किया था और वही उनकी सत्ता की सीढ़ी बना था।

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से विभिन्न योजनाओं के तहत आंध्र प्रदेश को दिए 58.64 करोड़ रुपयों में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया. जबकि केंद्रीय कानून मंत्रालय द्वारा 11 राज्यों को दिए फंड में से किसी भी राज्य ने एक पैसा खर्च नहीं किया. इसी तरह केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय ने जिन 12 राज्यों को फंड दिए उनमें से 8 राज्यों ने उस पैसे का कोई इस्तेमाल नहीं किया. केवल आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और हरियाणा ने ही फंड का कुछ इस्तेमाल किया है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...