खाने में पहुंचता खेतों का जहर
पंकज चतुर्वेदी
इसी साल सितंबर महीने में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में कीटनाशक की चपेट में आकर 21 किसानों और खेत में काम कर रहे मजदूरों की मौत हो गई । कोई 800 किसान व खेत श्रमिक अस्पताल में भर्ती हुए ं। असल में इस इलाके में कपास की खेती होती है। जैसे ही कपास में गुलाबी कीड़े (पिंक बोलवर्म) दिखे, किसानों ने कीटनाशक छिड़कना शुरू कर दिया। चूंकि बीटी कॉटन वाले बीज में जरूरत से ज्यादा कीटनाषक लगता है, हालांकि कंपनी का दावा तो रहता है कि इसमें कीड़ा लगता ही नहीं। मजबूरन किसानों ने प्रोफेनोफॉस जैसे जहरीले कीटनाशक का छिड़काव किया। छिड़काव के लिए उन्होंने चीन में बने ऐसे पंप का इस्तेमाल किया जिसकी कीमत कम थी और गति ज्यादा। किसान नंगे बदन खेत में काम करते रहे, ना दस्ताने, ना ही नाक-मुंह ढंकने की व्यवस्था। तिस पर तेज गति से छिडकाव वाला चीन निर्मित पंप। दवा का जहर किसानों के शरीर में गहरे तक समा गया। कई की आंखें खराब हुई तो कई को त्वचारोग हो गए।
हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं । सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इनके अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है।
दिल्ली, मथुरा, आगरा जैसे शहरों में पेयजल सप्लाई का मुख्य स्त्रोत यमुना नदी के पानी में डीडीटी और बीएसजी की मात्रा जानलेवर स्तर पर पहुंच गई है। यहां उपलब्ध शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म की खाद्य सामग्री में इन कीटनााशकों की खासी मात्रा पाई गई है। औसत भारतीय के दैनिक भोजन में लगभग 0.27 मिग्रा डीडीटी पाई जाती है। दिल्ली के नागरिकों के शरीर में यह मात्रा सबसे अधिक है। यहां उपलब्ध गेंहू में 1.6 से 17.4 भाग प्रति दस लाख, चावल में 0.8 से 16.4 भाग प्रति 10 लाख, मूंगफली में 3 से 19.1 भाग प्रति दस लाख मात्रा डीडीटी मौजूद हे। महाराष्ट्र में बोतलबंद दूध के 70 नमूनों में डीडीटी और एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख पाई गई है, जबकि मान्य मात्रा महज 0.66 है। मुंबई में टंकी वाले दूध में तो एल्ड्रिन का हिस्सा 96 तक था।
पंजाब में कपास की फसल पर सफेद मक्खियों के लाइलाज हमले का मुख्य कारण रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना पाया गया है। अब टमाटर को ही लें। इन दिनों अच्छी प्रजाति के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटरों का सर्वाधिक प्रचलन है। इन प्रजातियों को सर्वाधिक नुकसान हेल्योशिस आर्मिजरा नामक कीड़े से होता है। टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े के कारण आधी फसल बेकार हो जाती है। इन कीडों का मारने के लिए बाजार में रोगर हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएं मिलती हैं। इन दवाओं पर दर्ज है कि इनका इस्तेमाल एक फसल पर चार-पांच बार से अधिक ना किया जाए। लेकिन यह वैज्ञानिक चेतावनी बहुत महीन अक्षरों में व अंग्रेजी में दर्ज होती है, जिसे पढ़ना व समझना किसान के बस से बाहर की बात है। लिहाजा लालच में आ कर किसान इस दवा की छिड़काव 25 से 30 बार कर देता है। शायद टमाटर पर कीड़े तो नहीं लगते हैं, लेकिन उसको खाने वाले इंसान का कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाता है।इन दवाओं से उपचारित लाल-लाल सुंदर टमाटरों को खाने से मस्तिष्क, पाचन अंगों, किडनी, छाती और स्नायु तंत्रों पर बुरा असर पड़ता है। इससे कैंसर होने की संभावना भी होती है।
कीटनाशकों पर छपी सूचनाओं का पालन ना होने की समस्या अकेले टमाटर की नहीं, बल्कि बेहद व्यापक है। इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती भिंडी और बैंगन देखने में तो बेहद आकर्षक है, लेकिन खाने में उतनी ही कातिल! बैंगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नामक रसायन में डुबोया जाता है। बैंगन में घोल को चूसने की अधिक क्षमता होती है,जिससे फोलिडज की बड़ी मात्रा बैंगन जज्ब कर लेते हैं। इसी प्रकार भिंडी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता हे। ऐसे कीटनाशकों से युक्त सबिज्यों का लगातार सेवन करने से सांस की नली बंद होने की प्रबल संभावना हाती है। इसी तरह गेंहू को कीड़ों से बचाने के लिए मेलाथियान पाउडर को मिलाया जाता है। इस पाउडर के जहर को गेंहू को धो कर भी दूर नहीं किया जा सकता है। यह रसायन मानव शरीर के लिए जहर की तरह है।
कीटनाशकों के कारण जैव विविधता को होने वाले नुकसान की भरपाई तो किसी भी तरह संभव नहीं हैं। गौरतलब है कि सभी कीट, कीड़े या कीटाणू नुकसानदायक नहीं होते हैं। लेकिन बगैर सोचे-समझे प्रयोग की जा रही दवाओं के कारण ‘पर्यावरण मित्र’ कीट-कीड़ों की कई प्रजातियां जड़मूल से नष्ट हो गई हैं । सनद रहे कि विदेशी पारिस्थितिकी के अनुकूल दवाईयों को भारत के खेतों के परिवेश के अनुरूप जांच का कोई प्रावधान नहीं है। विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बने हजारेंा कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहां तो पाबंदी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में उड़ेलना जारी रखा है।
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