पराली की समस्या को नहीं उसके कारण को देखें
हर साल अक्तूबर-नवंबर में दिल्ली और उसके आसपास जैसे ही घना स्मॉग छाता है, इसका सारा दोष पंजाब-हरियाणा के किसानों के पराली जलाने पर डाल दिया जाता है। कई किसानों पर जुर्माना ठोका जाता है, कई किसान जेल जाते हैं, खूब चर्चा होती है। इसके आगे कुछ नहीं होता। जब समस्या खड़ी होती है, तो कुछ ऐसी मशीनों के सुझाव आते हैं, जिनसे पराली को नष्ट किया जाए। कई उससे ईंधन बनाने और उर्वरा शक्ति बढ़ाने के सपने बेचते हैं। कुछ लोग सरकार से सब्सिडी देने के जुमले उछालते हैं। लेकिन इससे जुडे़ कुछ दूसरे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता।
मान लिया कि इस मौसम में स्वच्छ हवा का खलनायक पराली ही है। अब सरकार पराली को खेत में ही जज्ब करने के उपकरण बेच रही है, इसके लिए सब्सिडी दे रही है, लेकिन किसान के पास अगली फसल की बुवाई के लिए समय कम होता है, सो वे पराली को जलाने में अपना भला देखते हैं। हरियाणा-पंजाब सदियों से कृषि प्रधान प्रदेश रहे हैं, फिर पराली का समस्या अभी ही क्यों उभरी? इस पूरे इलाके का सच यही है कि यहां पारंपरिक रूप से धान की फसल होती ही नहीं थी। पंजाब और हरियाणा में छोले-राजमा-गेहूं, तो राजस्थान में मोटा अनाज और अच्छी बरसात वाले पश्चिम बंगाल या दक्षिणी राज्यों में चावल की पैदावार का चलन था। प्रकृति ने तो खेती को स्थानीय समाज का पेट भरने के लिए अन्न दिया, मगर इसे लाभ का धंधा बनाने की फिराक में रेगिस्तान से सटे पंजाब-हरियाणा में धान की खेती होने लगी। एक तो भाखड़ा नांगल बांध ने खूब पानी दिया, फिर उपज अच्छी हुई, तो किसानों ने भूगर्भ का जल जमकर उलीचा। तिस पर सरकार ने किसान की बिजली मुफ्त कर दी, जमीन से पानी निकालने पर कोई रोक नहीं लगाई। फिर जितना धान उगाओ, उसकी सरकारी खरीद।
पंजाब में जहां पारंपरिक भोजन चावल नहीं है, वर्ष 1980-81 में 11.78 लाख हेक्टेयर में धान बोई जाती थी, वर्ष 2014-15 में इसका रकबा 28.94 लाख हेक्टेयर हो गया। वर्ष 2018 में राज्य में 31 लाख 50 हजार हेक्टेयर में धान की खेती हुई। हालांकि इस बार दावा है कि धान 30 लाख हेक्टेयर से ज्यादा में नहीं लगाई जाएगी। हरियाणा और पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5,389 लीटर पानी की खपत होती है। वहीं पश्चिम बंगाल में एक किलो धान उगाने के लिए केवल 2,713 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। जिन इलाकों में पारंपरिक रूप से जल प्रचुर मात्रा में है और जहां का पारंपरिक भोजन चावल है, जैसे- दक्षिणी राज्य, धान का कटोरा कहलाने वाला छत्तीसगढ़, ओडिशा का कुछ हिस्सा, पश्चिम बंगाल आदि में धान की खेती पुश्तों या कई सदियों से होती चली आ रही है।
साल 2014-15 में भारत ने करीब 37 लाख टन बासमती चावल का निर्यात किया। इतना बासमती चावल उगाने के लिए 10 खरब लीटर पानी खर्च हुआ। कहा जा सकता है कि भारत ने 37 लाख टन बासमती ही नहीं, उसके साथ लगभग 10 खरब लीटर पानी भी दूसरे देशों को भेज दिया, जबकि पैसे सिर्फ चावल के मिले। यही चावल केवल पानी ही नहीं, वायु प्रदूषण का भी कारण बनता दिख रहा है।
क्या ऐसे हालात में धान की खेती को हतोत्साहित करने की जरूरत नहीं है? जो धान जमीन का पानी पी गया, जिस धान की खेती में इस्तेमाल रसायन से सारी जमीन, फसल, जल-स्रोत जहरीले हो गए, इतने जहरीले कि गांव के गांव कैंसर के शिकार हैं, उसकी जगह फल-सब्जी या अन्य ऐसी फसल, जिसकी तात्कालिक मांग दिल्ली-एनसीआर या विदेशों में भी है, लगाने के लिए किसानों को क्यों नहीं तैयार किया जा रहा? हालांकि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्के की खेती करने वालों को नि:शुल्क बीज व पांच हजार रुपये के अनुदान की घोषणा की है, वह प्रकृति को बचाने का बहुत बड़ा कदम है। धान की खेती को हतोत्साहित करने के लिए भूजल नियंत्रण, धन की जगह दीगर नगदी फसल की बुवाई को प्रेरित करने, धान के खेतों को बिजली के बिल में छूट घटाने जैसे सख्त कदम उठाना जरूरी है। वरना हम आने वाली हर सर्दी में पराली के प्रदूषण और पूरे साल पानी की कमी के लिए ऐसे ही विलाप करते रहेंगे।
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