दिल्ली ही नहीं देश को चाहिए स्वच्छ जल
पंकज चतुर्वेदी
ब्यूरो आफ इंडियन स्टेंडर्ड ने एक आकलन क्या जारी किया कि संसद से सड़क तक बस दिल्ली के दूषित पेयजल पर हंगामा हो रहा है। हकीकत तो यह है कि ये आंकड़े महज बड़े शहरों के जारी किए गए हैं जहां आम लोग ऐसे खतरों से डर की वाटर प्यूरीफायर खरीद सकते हैं। यदि सरकारी रिपोर्ट पर जाएं तो देश की अधिकांश आबादी को पीने के लिए साफ पानी मिल ही नहीं रहा है। और इसका मूल कारण यह है कि गौरतलब है कि ग्रामीण् भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। दिल्ली में भी पानी की गुणवत्ता माकूल ना होने का कारण भूजल की बगैर शोधन के सप्लाई ही है। वास्तव में भूजल पीने के लिए है ही नहीं और पीने के लायक पानी की मुख्य स्त्रोत नदियां जल की जगह बालू के लिए इस्तेमाल हो रही हैं। नदियों को गंदे पानी का नाबदान बना दिया गया और महज लक्ष्य पाने की फिराक में धरती का सीना खोद कर उलेछे गए बेतहाशा पानी ने पर्यावरण संतुलन तो बिगाड़ा ही , पीने वालों का पेट भी।
अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं जोकि निर्धारित लक्ष्य का आधा था। रिपोर्ट में कहा गया कि खराब निष्पादन और घटिया प्रबंधन के चलते सारी योजनएं अपने लक्ष्य से दूर होती गईं । कारण वितरित करने में विफल रही। भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिषोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन 2022 तक देष में षत प्रतिषत षुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था।
सभी को सुरक्षित पानी ना मिल पाने, देश की जल-क्षमता और नदियों के आंकड़ों को एकसाथ रखें तो समझ आ जाएगा कि कमी पानी की नहीं, प्रबंधन की है। यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देष का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 32.7 लाख वर्गमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1913.6 अरब घनमीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिष के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि बिहार की 90 प्रतिषत नदियों में पानी नहीं बचा। गत तीन दषक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाईलों में तो दर्ज हैं लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं । राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी देखते ही देखते अक्रिमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। नदियां के बहते पानी की जगह जब भूजल की सप्लाई बढ़ी तो उसके साथ ही वाटर प्यूरीफायर या बोतलबंद पानी का ध्ंाधा बए़ गया। आरओ तकनीक पर आधारित वाटर प्यूरीफायर जहां पानी की बर्बादी व जल के कई अनिवार्य लवणों की हत्या कर देते हैं वहीं बोतलबंद पानी कई हजार करोड़ के व्यवसाय के साथ-साथ प्लास्टिक बोतलों के रूप में गहन कचरा-संकट पैदा करता है।
दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रूपए होता है। जो पानी बोतल में पैक कर बेचा जाता है वह कम से कम पंद्रह रूपए लीटर होता है यानि सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा। इसबे बावजूद स्वच्छ, नियमित पानी की मांग करने के बनिस्पत दाम कम या मुफ्त करने के लिए हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतल बंद पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बांटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं। क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबंद पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिए कम से कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है।
कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता है। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। इस समय देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं । इस आंकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियां शामिल नहीं है। इस समय भारत में बोतलबंद पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपये का है।
आज दिल्ली ही नहीं पूरे देश को साफ-निरापद पेय जल की जरूरत है। इस पर सियासत या अपने व्यापारिक हित साधने से पहले जान लें कि भारत की परंपरा तो प्याऊ, कुएं, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्त्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबंद पानी को बढ़ावा दे रहे है।ं पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थ्य तरीके से रहने का अधिकार है । ज्यादा पुरानी बात नहीं है अभी तीन साल पहले ही कोई 87 लाख आबादी वाले अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को नगर में सरकार व नागरिकों ने मिलकर तय किया कि अब उनके यहां किसी भी किस्म का बोतलबंद पानी नहीं बिकेगा। संदिग्ध गुणवत्ता, कचरे के अंबार और खर्च के संकट के परिपेक्ष्य में शहर में कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबंद पानी नहीं बिकेगा। प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ परिशोधित पानी के नलके लगवाएगा तथा हर जरूरतमंद वहां से पानी भर सकता है। लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें