My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

Polluted Sambhal lake cause death of thousnads migrant birds

 साम्भर जील में प्रदूषण के कारण मरे हज़ारो प्रवासी पंछी 


वे हजारो किलोमीटर दूर से जीवन की उम्मीद के साथ यहां आए थे, क्योंकि उनकी पिछली कई पुश्तें, सदियों इस मौसम में यहां आती थीं। इस बार वे सात संमंदर तो पार कर गए लेकिन जैसे ही इस खारे पानी की झील पर बसे, उनके पैर, पंख सभी ने काम करना बंद कर दिया और देखते ही देखते हजारों की संख्या में उनकी लाशंे बिछने लगीं। जब भारत की जनता दीपावली के माध्यम से अपने घर में सुख-समृद्धि की कामना का पर्व मना रही थी , लगभग उसी समय दूर देश से आए इन मेहमानों के दुर्दिन षुरू हो गए थे। एक अनुमान है कि देश की सबसे बड़ी खारे पानी की झील कहे जाने वाली राजस्थान की सांभर झील में अभी तक 25 हजार से ज्यादा प्रवासी पंछी मारे जा चुके हैं। षुरूआत में तो पक्षियों की मौत पर ध्यान ही नहीं गया, लेकिन जब हजारों लााशें दिखीं,  दूर-दूर से पक्षी विशेशज्ञ आने ले तो पता चला कि दूर देश से आए इन मेहमानों की जान का दुश्मन उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायूु परिवर्तन का असर भी है।

 क्यों आते हैं ये मेहमान पंक्षी
यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान षून्य से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है।
 हर साल भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, ह्विस्लिंग डक, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो जैसे कई पक्षी आते हैं। भारतीय पक्षियों में शिकरा, हरियल कबूतर, दर्जिन चिड़िया, पिट्टा, स्टॉप बिल डक आदि प्रमुख हैं। अपनी यात्रा के दौरान हर तरह के पंक्षी अपने हिसाब से उड़ते हैं और उनकी ऊँचाई भी वे अपने हिसाब से निर्धारित कर लेते हैं। हंस जैसे पक्षी करीब 80 किलोमीटर प्रति घण्टे के हिसाब से भी उड़ान भरते हैं, तो जो पंछी बिना रुके यात्रा करते हैं, उनकी गति मुश्किल से 10 से 20 किलोमीटर प्रति घण्टे तक होती है। वे भले ही मंद गति से उड़ते हों, लेकिन अपने ठिकाने पर पहुँचकर ही दम लेते हैं। उदाहरण के लिये ईस्टर्न गोल्डन प्लॉवर लगातार उड़कर अपने निवास स्थान से भारत तक की 3200 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी बिना रुके पूरी करता है। इस दौरान वह समुद्र भी पार करता है। पहाड़ी इलाकों में पंछी कई बार एवरेस्ट से भी ज्यादा ऊँचाई पर उड़ते हैं, वहीं समुद्री इलाके में वे बेहद नीची उड़ान भरते हैं।

सांभर झील
कभी वहां समुद्र था, धरती में हुए लगातार परिवर्तनों से रेगिस्तान विकसित हुए और इसी क्रम में भारत की सबसे विशाल खारे पानी की झील ‘सांभर’ अस्तित्व में आई।  इसका विस्तार 190 किलोमीटर,लंबाई 22.5 किलोमीटर है।  इसकी अधिकतम गहराई तीन मीटर तक है।  अरावली पर्वतमाला की आड़ में स्थित यह झील राजस्थान के तीन जिलांे- जयपुर,अजमेर और नागौर तक विस्तारित है।  सन 1990 ें इसे ‘रामसर झील’ घोषित किया गया। भले ही इस अतंरराष्ट्रीय महत्व हो लेकिन समय की मार इस झील पर भी पड़ी। सन 1996 में 5,707.62 वर्ग किलामीटर जल ग्रहण क्षेत्र वाली यह झील सन 2014 में 4700 वर्गकिमी में सिमट गई। चूंकि भारत में नमक के कुल उत्पादन का लगभग नौ फीसदी- 196000 टन नमक यहां से निकाला जाता है अतः नमक-माफिया भी यहां की जमीन पर कब्जा करता रहता है। इस विशाल झील के पपानी में खारेपन का संतुलन बना रहे, इसके लिए इसमें मैया, रूपनगढ़, खारी, खंडेला जैसी छोटी नदियों से मीठा पानी लगातार मिलता रहता है तो उत्तर में कांतली, पूर्व में बांदी, दक्षिण में मासी और पश्चिम में नूणी नदी में इससे बाहर निकला पानी जाता रहा है।
राजशाही के दिनों में जयपुर और जोधपुर की सरकारें यहां से निकले नमक की तिजारत करती थीं। आजादी के बाद सांभर साल्ट लिमिटेड को नमक निकालने का जिम्मा दिया गया। सर्दी शुरू होते ही दूर देश के 83 से ज्यादा प्रजाति के पंक्षियों का यहां डेरा हो जाता है। कभी इसे फ्लेमिंगो की पसंदीदा प्रजनन स्थली भी माना जाता था।

पक्षियों की मौत
दीपावली बीती ही थी कि हर साल की तरह सांभर झील में विदेशी मेहमानों के झुंड आने शुरू हो गए। वे नए परिवेश में खुद को व्यवस्थित कर पाते, उससे पहले ही उनकी गर्दन लटकने लगी, उनके पंख बेदम हो गए, वे न तो चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। लकवा जैसी बीमारी से ग्रस्त पक्षी तेजी से मरने लगे। जब प्रशासन चेतता दस हजार से अधिक पक्षी मारे जा चुके थे। राजस्थान पशु चिििकत्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर(राजुवास) की टीम सबसे पहले पहुंची। फिर एनआईएचएसडी, भोपाल का दल आया व उसने सुनिश्चित कर दिया कि यह मौत बर्ड फ्लू के कारण नहीं हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) बरेली के एक बड़े दल ने मृत पक्षी के साथ-साथ वहां के पानी व मिट्टी के नमूने लिए और गहन जांच कर बताया कि  मौत का कारण ‘‘एवियन बॉटुलिज़्म ’’ नामक बीमारी है। यह बीमारी क्लोस्ट्रिडियम बॉट्यूलिज्म नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। एवियन बॉटुलिज़्म को 1900 के दशक के बाद से जंगली पक्षियों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण माना गया है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। इसके वैक्टेरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है।  सांभर झील में भी यही पाया गया कि मारे गए सभी पक्षी मांसाहारी प्रजाति के थे।
और भी कई कारण हैं पक्षियों के मरने के
हालांकि अधिकांश पक्षी वैज्ञानिकों की राय में इतनी बड़ी संख्या में पक्षियों के मरने का कारण एवियन बॉटुलिज़्म ही है, लेकिन बहुत से वैज्ञानिक  इसके पीछे ‘हाईपर न्यूट्रिनिया’ को भी मानते हैं।  नमक में सोडियम की मात्रा ज्यादा होने पर,  पक्ष्यिों के तंत्रिका तत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे खानापीना छोड़ देतें हैं व उनके पंख और पैर में लकवा हो जाता है। कमजांेरी के चलते उनके प्राण निकल जाते हैं। माना जा रहा है कि पक्षियों की प्रारंभिक मौत  आईपर न्यूट्रिनिया से ही हुई। बाद में उनमें एवियन बॉटुलिज़्म के जीवाणु विकसित हुए और ऐसे मरे पक्षियों को जब अन्य पंछियो ने भक्षण किया तो बड़ी संख्या मंे उनकी मौत हुई।
वैसे खारे पानी में प्रदूषण बढ़ने से ‘माइक्रोसिस्टिल शैवाल’ के विशैले हाने से भी पक्षियों को लकवा हाने के संभावना रहती है। सनद रहे एवियन बॉटुलिज़्म का कोई वैक्सीन या इलाज नहीं है। इससे बचाव ही एकमात्र रास्ता है।
 सांभर झील के पर्यावरण से छेड़छाड़
सांभर झील लंबे समय से लापरवाही का शिकार रही है। एक तो सांभर साल्ट लिमिटेड ने नमक निकालने के ठेके कई कंपनियों को दे दिए। ये मानकों की परवाह किए बगैर गहरे कुंए और झील के किनारे दूर तक नमकीन पानी एकत्र करने की खाई बना रहे हैं। फिर परिशोधन के बाद गंदगी को इसी में डाल दिया जाता है। विशाल झील को छूने वाले किसी भी नगर कस्बे में घरों से निकलने वाले गंदे पानी को परिशेाधित करने की व्यवस्था नहीं है औरह जारों लीटर गंदा-रासायनिक पानी हर दिन इस झील में मिल रहा है।
इस साल औसत से काई 46 फीसदी ज्यादा पानी बरसा। इससे झील के जल ग्रहण क्षेत्र का विस्तार हो गया।  चूंंिक इस झील में नदियों से मीठा पानी  की आवक और अतिरिक्त खारे पानी को नदियों में मिलने वाले मार्गों पर भयंकर अतिक्रमण हो गए हैं, सो पानी में क्षारीयता का स्तर नैसर्गिक नहीं रह पाया। भारी बरसात के बाद यहां तापमान फिर से 27 डिगरी के पार चला गया। इससे पानी को क्षेत्र सिंकुड़ा व उसमें नमक की मात्रा बढ़ गई इसका असर झील के जलचरों पर भी पड़ा। हो सकता है कि इसके कारण मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे आए पक्षियों ने खा लिया हो व उससे एवियन बॉटुलिज़्म के बीज पड़ गए हों। यह सभी जनते हैं कि एवियन बॉटुलिज़्म का प्रकोप तभी होता है जब विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक कारक समवर्ती रूप से होते हैं। इसमें आम तौर पर गर्म पानी के तापमान, एनोक्सिक (ऑक्सीजन से वंचित) की स्थिति और पौधों, शैवाल या अन्य जलचरों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण आदि प्रमुख हैं।  यह सर्वविदित है कि धरती का तापमान बढ़ना और जलवायु चक्र में बदलाव वैश्विक समस्या है। राजस्थान जैसे ‘‘चरम ठंउ व गरमी’ वाले इलाकों में अचानक भारी बरसात ऐस हालात बना सकते हैं।
वैसे बरेली के आईवीआरआई की जांच में अच्छी बरसात के चलते सांभर के पानी में नमक घटने व उससे जल की पीएच कीमत में बदलाव तथा उससे पानी में आक्सीजन की मात्रा महज चार मिलीग्राम प्रति लीटर लीटर से भी कम रह जाने के चलते यह त्रासदी उपजने की बात कही गई है।
यह भी जानना जरूरी है कि सांभर साल्ट लिमिटेड ने इस झील के एक हिस्से को एक रिसार्ट को दे दिया है। यहां का सारा गंदा पानी इसी झील में मिलाया जाता है। इसके अलावा कुछ सौर उर्जा परियेाजनाएं भी हैं। फिर तालाब की मछली का ठेका दिया हुआ है। ये विदेशी पक्षी मछली ना खा लें, इके लिए चौकीदार लगाए गए हैं। जब पंक्षी को ताजा मछली नहीं मिलती तो वह झील में तैर रही गंदगी, मांसाहारी भेाजन के अपशिष्ठ या कूड़ा खाने लगता है। यह बातें भी  पक्षियों के इम्यून सिसटम के कमजोर होने वा उनके सहजता से विषाणु के शिकार हो जाने का कारक हैं। वैसे भी सांभर झील में मरे पक्ष्यिों को बेहद लपरवाही से वहीं आसपास गाड़ दिया गया है। बिल्ली, कुत्ते व अन्य जानवरों के लिए उन्हें खोद कर ले जाना सरल है। यदि इन मरे पक्षियो में पड़ गए मीगेट्स(सफेद इल्ली जैसे कीड़े जो आमतौर पर जानवरों में घाव सड़ने पर होते हैं) किसी स्वास्थय पक्षी ने खा लिया तो एवियन बॉटुलिज़्म एक महामारी के रूप में दूर-दूर तक फैल जाएगा।
पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी उनके प्राकृतिक पर्यावास में अत्यधिक मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान है। सनद रहे हमारे यहां साल-दर-साल प्रवासी पक्षियों  की संख्या घटती जा रही है। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह से मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।



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