Prabhat, Meerut 19-7-15 |
पंकज चतुर्वेदी
हाल ही में भारतीय जेलों से छूटकर 88 मछुआरे पाकिस्तान पहुंचे। इनमें से अधिकांष तीन साल या उससे अधिक से भारतीय जेलों में बंद थे। इनमें से लगभग सभी की षिकायत जेल में अत्याचार, मारापीटी, पैसे छुड़ा लेने की रही है। एक बंदी ने मीडिया को बताया कि उसने अपनी जेल अवधि के दौरान मेहनत कर जो पैसा कमाया था, वह जामनगर जेल के अफसरों ने यह कह कर छुडा लिया कि भारत की करेंसी का वहां क्या करेगा। अपर्याप्त खाना, गुंडागिर्दी तो हर दूसरे कैदी के आंसू ला रही थी। असल में उन लोगों के साथ ऐसा इस लिए हो रहा था कि उनकी तरफ से पैरवी करने वाला कोई नहीं था या उनके पास अपनी रिहाई के प्रयासों के लिए पैसा नहीं था। हालांकि समुद्र के असीम जल-भंडार में दो मुल्कों की सीमा तलाषना लगभग मुष्किल है और इसी के फेर में वे एक ऐसा अपराध कर बैठे थे जो वे कभी करना नहीं चाहते थे। ऐसा नहीं कि यह हालात केवल पाकिस्तानी बंदियों के साथ हैं, भारतीय जेलों में आधे से अधिक वे ही लोग घुट रहे हैं जो कि सामाजिक, आर्थिक और षैक्षिक तौर पर दबे-कुचले हैं। कई एक तो अपनी सजा पूरी होने या जामानत मंजूर हो जाने के बाद भी जेल में है। क्योंकि या तो उन्हें औपचारिकतओं की जानकारी नहीं है या फिर इसके लिए उनके पास पैसा व समझ नहीं है।
NBS Times 24-7-15 |
भारत की जेलों में बंद कैदियों के बारे में सरकार के रिकार्ड में दर्ज आंकड़े बेहद चैंकाने वाले हैं। अनुमान है कि इस समय कोई चार लाख से ज्यादा लोग देषभर की जेलों में निरूद्ध हैं जिनमें से लगभग एक लाख तीस हजार सजायाफ्ता और कोई दो लाख 80 हजार विचाराधीन बंदी हैं। देष में दलित, आदिवासी व मुसलमानों की कुल आबादी 40 फीसदी के आसपास है, वहीं जेल में उनकी संख्या आधे से अधिक यानि 67 प्रतिषत है। इस तरह के बंदियों की संख्या तमिलनाडु और गुजरात में सबसे ज्यादा है। हमारी दलित आबादी 17 प्रतिषत है जबकि जेल में बंद लेागों का 22 फीसदी दलितों का है। आदिवासी लगातार सिमटते जा रहे हैं व ताजा जनगणना उनकी जनभागीदारी नौ प्रतिषत बताती है, लेकिन जेल में नारकीय जीवन जी रहे लोगों का 11 फीसदी वनपुत्रों का है। मुस्लिम आबादी तो 14 प्रतिषत है लेकिन जेल में उनकी मौजूदगी 20 प्रतिषत से ज्यादा है। एक और चैंकाने वाला आंकड़ा है कि पूरे देष में प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियों जैसे- धारा 107,116,151 या अन्य कानूनों के तहत बंदी बनाए गए लेागें में से आधे मुसलमान होते है। गौरतलब है कि इस तरह के मामले दर्ज करने के लिए पुलिस को वाह वाही मिलती है कि उसने अपराध होने से पहले ही कार्यवाही कर दी। आंचलिक क्षेत्रों में ऐसे मामले न्यायालय नहीं जाते हैं, इनकी सुनवाई कार्यपालन दंडाधिकारी यानि नायब तहसीलदार से ले कर एसडीएम तक करता है और उनकी जमानत पूरी तरह सुनवाई कर रहे अफसरों की निजी इच्छा पर निर्भर होती है।
पिछले साल बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर जरा नजर डालें - दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेषी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। नारायणपुर के एक वकील बताते हैं कि कई बार तो आदिवासियों को सालों पता नहीं होता कि उनके घर के मर्द कहां गायब हो गए है।। बस्तर के आदिवासियों के पास नगदी होता नहीं है। वे पैरवी करने वाले वकील को गाय या वनोपज देते हैं। कई मामले तो ऐसे है कि घर वालों ने जिसे मरा मान लिया, वह बगैर आरोप के कई सालों से जेल में था। ठीक यही हाल झारखंड के भी हैं।
अपराध व जेल के आंकड़ों के विष्लेशण के मायने यह कतई नहीं है कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए, लेकिन यह तो विचारणीय है कि हमारी न्याय व्यवस्था व जेल उन लोगों के लिए ही अनुदार क्यों हैं जो कि ऐसे वर्ग से आते हैं जिनका षोशण या उत्पीड़न सरल होता है। ऐसे लेाग जो आर्थिक, सामाजिक, षैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं, कानून के षिकंजे में ज्यादा फंसते हैं । जिन लोगों को निरूद्ध करना आसान होता है, जिनकी आरे से कोई पैरवी करने वाला नहीं होता, या जिस समाज में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत नहीं होती, वे कानून के सरल-षिकार होते हैं । यह आए रोज सुनने को आता है कि अमुक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में 10 या उससे अधिक साल जेल में रहा और उसे अदालत ने ‘‘बाइज्ज्त‘‘ बरी कर दिया। इन फैसलों पर इस दिषा से कोई विचार करने वाला नहीं होता कि बीते 10 सालों में उस बंदी ने जो बदनामी, तंगहाली, मुफलिसी व षोशण सह लिया है, उसकी भरपाई किसी अदालत के फैसलों से नहीं हो सकती। जेल से निकलने वाले को समाज भी उपेक्षित नजर से देख्खता है और ऐसे लेाग आमतौर पर ना चाहते हुए भी उन लोगों की तरफ चले जाते हैं जो आदतन अपराधी होते है।। यानि जेल सुधार का नहीं नए अपराधी गढ़ने का कारखाना बन जाते हैं।
इस बीच जब लक्षमण पुर बाथे या हाषिमपुरा में सामूहिक हत्याकांड के लिा तीन दषक तक न्याय की उम्मीद लगाए लोगों को खबर आती है कि अदालत में पता ही नहीं चला कि उनके लेागों को मारा किसने था, दोशियों को अदालतें बरी कर देती है,ं तो भले ही उनसे सियासती हित साधने वालों को कुछ फायदा मिले, लेकिन समाज में इसका संदेष विपरीत ही जाता है। मुसलमानों के लिए तो कई धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक संगठन यदाकदा आवाज उठाते भी हैं, लेकिन आदिवासियों या दलितों के लिए संगठित प्रयास नहीं होते हैं । विषेशतौर पर आदिवासियों के मामले में अब एक नया ट्रैंड चल गया है कि उनके हित में बात करना यानि नक्सलवाद को बढ़ावा देना। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि नक्सलवादी विचारधारा को मानना गैरकानूनी नहीं है, हां, उसकी हिंसा में लिप्त होना जरूर अपराध है। विडंबना है कि यदि आदिवासियों के साथ अन्याय पर विमर्ष करें तो तत्काल अपराधी बना कर जेल में डाल दिया जाता है।
दलितों में भी राजनीतिक तौर पर सषक्त कुछ जातियों को छोड़ दिया जाए तो उनके आपसी झगड़ों या कई बार बेगुनाहों को भी किसी गंभीर मामले में जेल में डाल देना आम बात है। मामला गंभीर है क्योंकि ऐसी कार्यवाहियां लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ ‘‘न्यायपालिका’’ के प्रति आम लोगों में अविष्वास की भावना भरती हैं। हालांकि इसका निदान पहले षिक्षा या जागरूकता और उसके बाद आर्थिक स्वावलंबता ही है और जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रयास सरकार के स्तर पर व अधिक प्रयास समाज के स्तर पर हों। यह भी जरूरी है कि आम लोगों को पूलिस का कार्य प्रणाली, अदालतों की प्रक्रिया, वकील के अधिकार, मुफ्त कानूनी सहायता जैेस विशयों की जानकारी दी जाए।
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