My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 20 जुलाई 2015

Need of High power authority to save traditional water lakes


तालाबों को बचाने सशक्त निकाय की जरूरत

Peoples samachar MP 21-7-15
इस बार बारिश बहुत कम होने की चेतावनी से देश के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इसलिए भी गहरी हैं कि यहां रहने वाली सोलह करोड़ से ज्यादा आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। बारिश हुई नहीं, रिचार्ज हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा... तभी कुछ जागरूक लोगों ने पूरे देश के तालाबों को संरक्षित करने की एक मुहिम शुरू की है। विडंबना यह है कि तालाब को सरकारी भाषा में जल संसाधन माना नहीं जाता है और तालाब अलग-अलग महकमों में बंटे हुए हैं। तालाब न केवल सीधे पानी का जरिया हैं, बल्कि भूजल रिचार्ज, धरती के गरम होने पर शीतलीकरण तथा पर्यावरण जगत के एकीकृत संरक्षण स्थल भी हैं। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है। असलियत तो यह है कि अब तो देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है।
सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी पीने के साफ पानी से महरूम है, वहीं जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृष्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब हो जाता है। इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्रोत ताल-तलैया को तो सड़क, बाजार, कॉलोनी के कांक्रीट जंगल खा गए, दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलटकर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जलस्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुए, बावड़ी, लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है। पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं, सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है, जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे हैं। कहीं तालाबों को जानबूझकर गैर जरूरी मानकर समेटा जा रहा है तो कहीं उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं, जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंटकर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों रुपए है, के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, ताकतवर प्राधिकरण जरूरी है। तालाब केवल इसलिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जलस्रोत हैं... तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन् 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशन ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। कमीशन की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दी गई। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ... देश के जलसंकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी... यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जलस्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है। वैसे तो मुल्क के हर गांव, कस्बे, क्षेत्र के तालाब अपने समृद्ध अतीत और आधुनिकता की आंधी में बर्बादी की एक जैसी कहानी कहते हैं। जब पूरा देश पानी के लिए त्राहित्राहि करता है, सरकारी आंकड़ों के शेर दहाड़ते हैं तब उजाड़ पड़े तालाब एक उम्मीद की किरण की तरह होते हैं। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए भारतीय तालाब प्राधिकरण का गठन किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमी है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है । एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकॉर्ड दर्शाता है। दु:खद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। उत्तरप्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे, उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्टÑीय राजधानी दिल्ली में अंग्रेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देशभर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं, यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया। योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमलीजामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव, ब्लॉक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकी सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमे तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं... मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी, जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है। असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछलीपालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन और शायद और भी बहुत कुछ हों... कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी कर्मचारी की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कुछ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिलीभगत से उसकी दुर्गति होती है... सो हर जगह लीपापोती होती रहती है। आज जिस तरह जलसंकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो सबसे पहले देशभर की जलनिधियों का सर्वे करवाकर उसका मालिकाना हक राज्य के माध्यम से अपने पास रखे, यानी तालाबों का राष्ट्रीयकरण हो, फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए।
                                                                                                                                                                     (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं) 
                                                                                                                                                                                          पंकज चतुर्वेदी
                                                                                                                                                                                                लेखक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...