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गुरुवार, 23 जुलाई 2015

Book Review HAMARA PARYAWARAN

हमारे पर्यावरण का भविष्यवक्ता

                                                        पंकज चतुर्वेदी
. ‘‘यदि हमारे गाँव ऐसे स्थान पर हैं जहाँ पर्यावरण व इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो शहर ऐसा स्थान है, जहाँ इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शहर के साझा स्थानों को इस्तेमाल तो सभी करना चाहते हैं, उस पर अपना अधिक से अधिक अधिकार का दावा भी सभी करते हैं, लेकिन उस स्थान के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं होता।’’ यह बात आज की नहीं है, सन 1988 की है, जब वैश्विकरण का हल्ला नहीं था, शहरों की रफ्तार इतनी बेकाबू नहीं थी, लेकिन लेखिका लाईक फतेहअली ने शायद भविष्य को भाँप लिया था। ‘हमारा पर्यावरण’ पुस्तक आज से 28 साल पहले मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी और बाद में प्रख्यात पत्रकार अमन नम्र ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक को आज भी पढ़ना इस बात की बागी है कि प्रकृति को प्रेम करने वाले कितने चुपचाप आने वाले पर्यावरणीय खतरों को महसूस कर रहे थे, समाज को चेता भी रहे थे, लेकिन हमने हालात बेकाबू होने तक अपनी कुम्भकरणीय नींद नहीं खोली।

पुस्तक बगैर किसी लाग लपेट, औपचारिकता या भूमिका के शुरू हो जाती है और इसमें पर्यावरण को भारत के परिवेश में आँका जाता है। पर्वत, जंगल, नदियाँ, समुद्र, गाँव और शहर के अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में प्रत्येक विषय पर दो भाग हैं। एक में समस्या का उल्लेख है तो दूसरे में समझाईश दी गई हैं। पर्वत वाले अध्याय में पहले तो भारत की पर्वत सम्पदा को विस्तार से बताया गया है, फिर दूसरे अध्याय में पहाड़ों के सामने खड़ी पहाड़ सी चुनौतियों व उसके दुष्परिणामों का उल्लेख है। बताया गया है कि एक स्वस्थ और अस्वस्थ पर्वत किसे कहते हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की बेरहम कटाई के चलते किस तरह से नुकसान हो रहे हैं। कहा गया है कि ‘‘जिस तरह से बीमार इंसान कई बार थोड़े वक्त के लिए अपनी बीमारी को छिपा लेता है व स्वस्थ दिखता है, ठीक उसी तरह पर्वत भी कई बार सामने से भरे-पूरे दिखते हैं लेकिन असल में वे बीमार होते हैं।” यह अध्याय दो साल पहले की उत्तरांचल त्रासदी की चेतावनी इतने पहले देता दिखता है।

पुस्तक का दूसरा विषय ‘जंगल’ हैं। इसमें महज हरियाली या पेड़ का ही विमर्श नहीं है। यह बताता है कि जंगल का अर्थ है वैविध्यपूर्ण जन्तु जगत और जब तक जंगल में जीव-जन्तु रहते हैं, वहाँ हरियाली, नमी, वनोपज सभी कुछ उपलब्ध रहता है। जंगल के सिकुड़ने के कारण आदिवासियों के शहरी बनने के दबाव पर भी इसमें विस्तार से चर्चा की गई है। लेखिका कहती हैं कि हर जंगल एक स्वतन्त्र दुनिया होता है और प्रत्येक बाहरी दखल उसकी नैसर्गिकता पर हमला होता है। हर जंगल एक जैविक भंडार गृह होता है। जिस आबादी के पड़ोस में नदी होती है, वह वास्तव में सौभाग्यशाली होता है। यह महज संयोग नहीं है कि दुनिया के सबसे पुराने व सफल शहर नदी के तट पर ही हैं - लंदन, पेरिस, कायरो, दिल्ली, रोम..... और भी कई। नदी वाले अध्याय में नदी को केवल एक जल-निधि नहीं माना गया है, इसमें नदी की जरूरत व उसकी पवित्रता की अनिवार्यता को भी उकेरा गया है। नदियों को दूषित करने के नुकसान, बाँध, नहर, नदी जल का रख-रखाव आदि पर इसमें बेहद गैरतकीनीकी व संप्रेषणीय भाषा में चर्चा की गई है। धरती की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तालाबों की चर्चा नदी वाले अध्याय में ही लगभग तीन पृष्ठों में की गई है।

अगले अध्याय ‘समुद्र’ में चेताया गया है कि ये महज खारे या बेकार पानी का जमावड़ा नहीं है जिसके किनारे पर्यटक जाकर खुश होते हैं या दुनिया की खोज करने वाले पानी जहाज़ों के परिवहन मार्ग हैं। समुद्र धरती के तापमान को सन्तुलित रखने, बारिश के बादलों को सक्रिय करने, पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों के भंडार और मछलियों व अन्य जल-जीवों की विशाल संख्या के शरण स्थली भी हैं। समुद्र में सतत बढ़ रहा प्रदूषण असल में धरती की सेहत के साथ गम्भीर छेड़-छाड़ है। गाँव और शहरों पर कुल चार अध्याय, बताते हैं कि पर्यावास किस तरह प्रकृति प्रेमी व दुश्मन हो सकता है। इन अध्यायों में मानवीय स्वभाव, लालच, गलत आदतों के कारण उपज रही ऐसी समस्याओं का उल्लेख किया गया है जिसका आखिरकार शिकार वही इंसान होता है जो उनके प्रति कोताही बरतता गाँव के अस्तित्व को बनाए रखना, गाँव को आत्मनिर्भर, शुद्ध और समर्थ बनाने के कई उपाय इसमें बताए गए हैं। पुस्तक साक्षी है कि बढ़ता शहरीकरण और घटते गाँव किस तरह मानव सभ्यता के लिए नुकसानदेह हैं। शहरों में सभी को साफ पानी, मल-जल निकासी जैसे विषयों को भी इसमें समेटा गया है। इस अध्याय में कूड़े को फेंकने, स्वच्छता को कड़े कानून के जरिये लागू करवाने की वकालत भी की गई है।

लेखिका लाईक फतेहअली सन 1956 से 1976 तक ‘क्वेस्ट’ पत्रिका की सम्पादक रही हैं और सलीम अली के साथ पक्षियों पर पुस्तकें लिखी हैं। अनुवादक अमन नम्र ‘पानी घणों अनमोल’ और ‘पानीदार समाज’ जैसी पुस्तकों के लेखक हैं और उनके अनुवाद को पढ़कर महसूस नहीं होता है कि अनूदित सामग्री पढ़ी जा रही है।

हमारा पर्यावरण, लाईक फतेहअली, अनुवाद: अमन नम्र, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, वसंत कुँज, पृ. 134, रू. 70.00, नई दिल्ली-110070

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