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गुरुवार, 23 जुलाई 2015

Higher education should be of International level

कौन  नहीं चाहता है उच्च  शिक्षा  का उन्न्यन

                                                                                                                   पंकज चतुर्वेदी

RAJ EXPRESS 24-7-15
भारत के उच्च शिक्षा  जगत को अभी उस खतरे की परवाह नहीं है, जोकि उस पर मंडरा रहा हैै । डब्लूटीओ करार के मुताबिक अप्रेल -2005 से हमारे देश  के महाविद्यालयों और विश्वविधालयों  को  अंतरराश्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप अपना स्तर बनाना था । भारत के सभी विष्वविद्यालयों को अंतरराश्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ क्यूए यानि क्वालिटी एष्योरेंस का पालन जरूरी है। ऐेसे में षिक्षण सुविधाओं, छात्रों के नतीजे और पाठ्यक्रमों में सतत सुधार के आाधार पर षैक्षिक संस्थाओं का स्तर तय होता है। चूंकि भारत डब्लूटीओ की षर्तों से बंधा हुआ है, अतः उच्च षिक्षा के मानदंडों का पालन करना उसकी मजबूरी है। इससे बेखबर हमारे राजनेता निजी स्वार्थों के चलते पाठ्यक्रम और संस्थानों को स्तरीय बनाने में अडंग्े डाल रहे हैं, उस पर तुरर्रा है कि यह सब पढ़ाई को महंगा होने से रोकने के लिए है। लेकिन यदि हमारी पढ़ाई की बाजार में कीमत ही नहीं है तो फिर डिगरीधारियों की फौज खड़ी करने का क्या फायदा है ?
वैसे तो विष्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन 2003 में  इस बाबत एक कमेटी का गठन किया था । इसकी किसी को भी खबर नहीं है कि उक्त कमेटी किस नतीजे पर पहुंची, लेकिन इस अवधि में कालेज ही नहीं यूनिवर्सिटी खोलने के नाम पर षिक्षा जगत के साथ खुल कर खिलवाड़ किया गया । छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में महज सत्रह सौ रूपए की पूंजी के साथ विष्वविद्यालय खोल दिए गए । दो कमरे अपने नहीं हैं और वहां विज्ञान संकाय के साथ डिगरी कलेज चल रहे हैं, यह विडंबना मध्यप्रदेष से बिहार तक कहीं भी देखी जा सकती है । एक तरफ तो सरकार उच्च षिक्षा के निजीकरण के मसले पर षिक्षा षुल्क बढ़ने का भय दिखाती है ,दूसरी तरफ महज कागजी डिगरी बांटने वाले झोलाछाप षैक्षिक संस्थानों को सियासती लोग ही चला रहे हैं । बहरहाल उच्च षिक्षा को डब्लूटीअेा की षर्तों के अनुरूप बनाने की क्रियान्वयन रिपोर्ट सियासती खींचतान में फंस गई है, लेकिन आंख बंद करने से खतरा तो टलने से रहा । फायदे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमाों को निजी हाथों में सौंपने और अंतरराश्ट्रीय मानदंड वाले वाले संस्थान आईआईएम में फीस कम या ज्यादा करने की आड़ मे घुसपैठ करने को आमदा सरकार उच्च षिक्षाा के मामले में ना जाने क्यों आंखें फेर रही है ।
विकसित देषों में बच्चों की प्रारंभिक षिक्षा को उतना ही महत्व दिया जाता है जितना कि उच्च षिक्षाा को । भारत में स्कूली षिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ । सुदूर गांवों तक भी सरकारी स्कूल के बनिस्पत निजी स्कूलों के षैक्षिक स्तर को बेहतर माना जा रहा है । चाहे राजनेता हों या फिर षिक्षा के नीति निर्धारक, समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चे नामी-गिरामी निजी स्कूलों में दाखिला ले कर गर्व महसूस करते हैं । अब तो सरकारी स्कूल भी ‘हायर एंड फायर’ की तर्ज पर ष्यिाक्षकों को रखने लगे हैं । षिक्षा गारंटी योजना, गुरूजी, पेरा टीचर जैसे नामों से स्कूली षिक्षक को पांच सौ या हजार रूप्ए में रखने पर अब किसी की संवेदनाएं नहीं जाग्रत हो रही हैं । इसके ठीक विपरित कालेजों के षिक्षकों पर कार्यभार कम है, जवाबदेही ना के बराबर है और वेतन व सुविधाएं आसमान छूती हुईं । हकीकत तो यह है कि इस तरह मौज काट रही एक लाबी उच्च षिक्षा के निजीकरण की भ्रामक तस्वीर पेष कर उसका विरोध कर रही है ।
हमारे देष में सरकारी नौकरियों की उपलब्धता घटती जा रही है । ‘पैसा’, ‘पहचान’ और ‘आरक्षण’ ; इन तीन मानदंडों पर सरकारी नौकरियां बंट रही हैं । महत्वाकांक्षी षिक्षित युवा आज निजी क्षेत्र में नौकरियों को प्राथमिकता दे रहा है, जाहां जवाबदेही के साथ-साथ पैसा भी है । उच्च षिक्षा को सरकारी तंत्र से मुक्त करने पर पाठ्यक्रम में सुधार, षिक्षण प्रक्रिया में नवाचार और बेहतर परिणामों की संभावनाएं अधिक होंगी ।
कुछ आईआईटी और आईआईएम को छोड़ दिया जाए हमारे देष के अधिकांष उच्च षिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम ना तो अंतरराश्ट्रीय स्तर का है और ना ही उसमें समय के साथ संषोधन किए गए हैं । कई विष्व विद्यालयों में एमए अंग्रेजी में वह सब पढ़ाया जा रहा है जो कि इंग्लैंड में 60 साल पहले पढ़ाया जाना बंद हो चुका है । गौर करना जरूरी है कि समसामयिक अंग्रेजी साहित्य में भारत का महत्वपूर्ण योगदान है।  इंजीनियरिंग व पोलिटेकनक कालेजों में सिविल कंस्ट्रक्षन की वे विधियां पढ़ाई जा रही हैं , जोकि अब कहीं इस्तेमाल में ही नहीं हैं । चिकित्सा, वास्तु, कानून के चैहरे बिलकुल बदल चुके हैं, लेकिन बदला नहीं है तो हमारा पाठ्यक्रम । षायद तभी युवा वर्ग जो कुछ पढ़ रहा है, उसका अपने व्यावहारिक जीवन में कही उपयेाग नहीं कर पाने की खीज से ग्रस्त है ।
हमारी उच्च् षिक्षा के स्तर का ही दोश है कि पांच साल तक बीटेक की पढ़ाई, कई लाख खर्च करने वाले युवा इंजीनियर को बीस हजार की नौकरी नहीं मिल रही है। उप्र जैसे राज्यों में तो इंजीनियरिंग कालेज बंद हो रहे है, क्योंकि वहां छात्र नहीं  आ रहे है।। ठीक यही हालात अब एमबीए के हैं, आईआईएम या कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए तो कुकुतमुत्तों की तरह छितरे हजारों एमबीए संस्थानों से निकले बच्चों की हालत सामान्य स्नातक से भी बदतर है। बीएड पढ़ाई के हालात इतने बदतर हैं कि वहां से निकले षिक्षक कई बार पूरी वर्णमाला नहीं लिख पाते हैं। कुछ ऐसे ही हालात दांत की डाक्टरी के होते जा रहे हैं । दूसरी तरफ एमबीबीएस के लिए मची मारामारी की बानगी मध्यप्रदेष का व्यापम कांड है।
उच्च षिक्षा क्षेत्र आज भी सभी राजनैतिक दलों का चारागाह बना हुआ है । कहा तो जाता है कि निजीकरण  के बाद उच्च षिक्षा महंगी हो जाएगी, लेकिन स्कूली षिक्षा के बारे में यह क्यों नहीं सोचा गया ? सनद रहे कि स्कूली षिक्षा के छात्रों की संख्या, उच्च षिक्षा से तीन गुणा से भी अधिक होती है । उच्च षिक्षा की गुणवत्ता के बनिस्पत कालेजों को अपनी पार्टियों के लिए कार्यकर्ता तैयार करने का कारखाना समझने वाले नेता मौजूदा षिक्षा से भविश्य को जोड़ने की बात करने पर बगलें झांकते मिलते हैं । वास्तव में इन राजनैतिक दलांे को ना तो युवा षक्ति के सकारात्मक इस्तेमाल से सरोकार है और ना ही उनके भविश्य से । मंडल विरोधी आंदोलन में उभरे युवा नेता राजीव गोस्वामी का उदाहरण सामने है, उसके भुने हुए षरीर पर राजनीति करने में कोई दल पीछे नहीं था । उसके बाद बीमार राजीव को जीवकोपार्जन के लिए गोली-बिस्कुट की दुकान तक खोलनी पड़ी । उसके नाम से एकत्र किए गए चंदे से कई नेताओं ने ऐष किए और वह दवाई के लिए तरसता रहा । उच्च षिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तनों को भी दिवंगत राजीव गोस्वामी के परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है । तात्कालिक उत्तेजना, त्वरित प्रतिक्रियाओं व क्षणिक फायदों से देष के भविश्य यानि युवा पीढ़ी को संवारा नहीं जा सकता है । छात्र संघ के चुनाव हों या षिक्षक संघ के ,सभी राजनैतिक दल इसमें परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं । ऐसे कालेजी षिक्षकों की संख्या सैंकड़ों में है , जो कि महज नेतागिरी करने के ऐवज में मोटा वेतन वसूलते हैं, उनका क्लास रूम से कोई वास्ता नहीं है । ऐसे छात्र नेताओं की संख्या भी हजारों में है, जो कि अपने सियासती रसूख के बदौलत बगैर पढ़ाई किए ही डिगरियां पा लेते हैं । यदि ये लोग षिक्षा के निजीकरण के सच्चे विरोधी हैं तो अपने बच्चों को मोटी फीस दे कर भी पब्लिक स्कूल में भर्ती करवाने के लिए व्याकुल क्यों रहते हैं ? यही नहीं सरकारी काालेजों में प्रवेष के लिए सरकारी स्कूल से आए बच्चों को प्राथमिकता देने के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में दबाने वाले क्या यही लोग नहीं हैं ?
देष में कई मेडिकल, इंजीनियरिंग व मेनेजमेंट कालेज निजी प्रबंधन में हैं, लेकिन उन्हें विष्वविद्यालय अनुदान आयोग और आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजुकेषन के कायदे-कानूनों के तहत चलना पड़ता है । इन सभी कालेजों का मालिकाना हक बड़े नेताओं के पास है । यदि विदेषी विष्वविद्यालयों से संबद्ध पाठ्यक्रमों को धीरे-धीरे हमारे यहां मान्यता देना षुरू कर दिया जाए तो हमारे संस्थान डब्लूटीओ के स्तर के स्वतः ही होने लगेंगे । अभी इस पर विचार करने का ठीक समय है, वरना अचानक ही कई संस्थाओं को बंद करने या आानन-फानन में पाठ्यक्रम में बदलाव करने पर अफरा-तफरी मचेगी ।
पंकज चतुर्वेदी

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