निरंतर छेड़छाड़ से बिफर रही हैं नदियां
hindustan 25-7-15 |
पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े को देखें, तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके के दायरे में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध बनाने और मध्यम श्रेणी की नदियों के उथले होने का दुष्परिणाम है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि का दायरा एक करोड़ हेक्टेयर था। 1960 में यह बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गया। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन की माप 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी इस तबाही के कोई सात करोड़ हेक्टेयर में होने की आशंका है। अब तो सूखे व मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।
Raj express 1-8-15 |
यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्यों के दौरान निकली मिट्टी और मलबे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। इसीलिए बाद में थोड़ी-सी अधिक बारिश होने पर भी इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है और उनका पानी बस्ती, खेत, जगलों में घुसने लगता है। बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, बल्कि इसी तरह के मानव जन्य हस्तक्षेप की त्रासदी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
00
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें