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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

flood due to interuption in river ecology

निरंतर छेड़छाड़ से बिफर रही हैं नदियां

                                                      पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार 
hindustan 25-7-15
अभी तो आषाढ़ ही चल रहा है, वह भी तब, जब मौसम विभाग कुछ कम बारिश का पूर्वानुमान व्यक्त कर चुका था; देश का बड़ा हिस्सा पानी से लबालब है। उज्जैन में जिस शिप्रा में पाइप के जरिये नर्मदा का पानी लाया जा रहा था, वह नदी  शहर की गलियों में घुस गई। असम, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तो हर साल बारिश में हलकान रहते हैं, लेकिन इस बार तो राजस्थान के शेखावटी के रेतीले इलाके भी जलमग्न हैं।

पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े को देखें, तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके के दायरे में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध बनाने और मध्यम श्रेणी की नदियों के उथले होने का दुष्परिणाम है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि का दायरा एक करोड़ हेक्टेयर था। 1960 में यह बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गया। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन की माप 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी इस तबाही के कोई सात करोड़ हेक्टेयर में होने की आशंका है। अब तो सूखे व मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

Raj express 1-8-15
देश में बाढ़ की पहली दस्तक असम में होती है। असम की जीवन-रेखा कही जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां मई-जून के मध्य में ही विनाश फैलाने लगती हैं। हर साल लाखों बाढ़ पीडि़त शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। बाढ़ से उजड़े लोगों को पुनर्वास के नाम पर एक बार फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय होता है। यहां के पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई, अनियोजित शहरीकरण और सड़कों के निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ से बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी हैं। सनद रहे वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की ऊपरी परत, गहराई तक छेदता है। यह मिट्टी बहकर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं। लेकिन नदियों के उथला होने का कारण सिर्फ यह मिट्टी नहीं है। हाल ही में दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कॉरपोरेशन को आगाह किया है कि वह यमुना के किनारे जमा किए गए हजारों ट्रक मलबे को हटवाए।

यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्यों के दौरान निकली मिट्टी और मलबे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। इसीलिए बाद में थोड़ी-सी अधिक बारिश होने पर भी इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है और उनका पानी बस्ती, खेत, जगलों में घुसने लगता है। बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, बल्कि इसी तरह के मानव जन्य हस्तक्षेप की त्रासदी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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