नदियों को लीलता गाद
पंकज चतुर्वेदी
इस बार मानसून के बिदा होते ही दक्षिण बिहार की अधिकांश नदियाँ असमय सूखने लगीं . यह सच है कि झारखण्ड से सटे बिहार के इलाकों में इस साल बरसात कुछ कम हुई लेकिन सदियों से सदा नीरा रहीं नदियों का इस तरह बेपानी हो जाना साधारण घटना कहा नहीं जा सकता. बांका में चिरुगेरुआ , भागलपुर में खल्खालिया , गया में जमुने और मोरहर , नालंदा में नोनाई और मोहाने ,पूरी तरह सूख गई, , जबकि सीतामढ़ी की मोराहा हो या कटिहार की कारी कोसी व् दरभंगा में जीवछ, गोपाल गंज के झरही – सभी का जल स्तर तेजी से घट रहा है . थोडी सी बरसात में उफन जाना और बरसात थमते ही तलहटी दिखने लगना, गोबर पट्टी कहलाने वाले मैदानी भारत की स्थाई त्रासदी बन गया है. यहां बाढ़ और सुखाड़ एकसाथ डेरा जमाते हैं. बारीकी से देखे तो पायेंगे कि असल में नदियों की जल ग्राहम क्षमता कम हो रही है , बरसात होते ही उफान जाना और फिर सूख जाने का साल कारण तो नदियों में बढ़ रहा मलवा और गाद है
इसी साल 12 जुलाई को सी-गंगा यानी सेंटर फार गंगा रिवर बेसिन मेनेजमेंट एंड
स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट बताती है कि उप्र, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से
हाँफ रही हैं. हालांकि गाद नदियों के प्रवाह का नैसर्गिक उत्पाद है और देश के कई
बड़े तीर्थ और प्राचीन शहर इसी गाद पर विकसित हुए है , लेकिन जब नदी के साथ बह कर
आई गाद को जब किनारों पर माकूल जगह नहीं मिलती तो वह जल-धारा
के मार्ग में व्यवधान बन जाता है . गाद नदी के प्रवाह मार्ग में जमती रहती
है और इसे नदियों उथली होती है , अकेले उत्तरप्रदेश में ऐसी 36 नदियाँ हैं
जिनकी कोख में इतनी गाद है कि न केवल उनकी गति मंथर हो गिया बल्कि कुछ ने अपना
मार्ग बदला और उनका पाट संकरा हो गया, रही बची कसार अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी
कर दी . इनमें से कई का अस्त्तत्व खतरे में है .
उत्तर प्रदेश के कानपुर से बिठूर तक , उन्नाव के बक्सर – शुक्लागंज तक गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है. वाराणसी, मिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच टापू बन जाते हो. बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हो. गाजीपुर, मिर्जापुर, चंदौली में नदी का प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में विभक्त हो जाता है . प्रयागराज के फाफामऊ, दारागंज, संगम, छतनाग और लीलापुर के पास टापू बनते हो. गढ़ मुक्तेश्वर में तो गंगा की धारा बीते 50 साल आठ किमी दूर खिसक गई है. बिजनौर के गंगा बैराज पर गाद की आठ मीटर मोटी परत है. आगरा व मथुरा में यमुना गाद से भर गई है. आजमगढ़ में घाघरा और तमसा के बीच गाद के कारण कई मीटर ऊँचे टापू बन गए हैं घाघरा, कर्मनाशा, बेसो, मंगई, चंद्रप्रभा, गरई, तमसा, वरुणा और असि नदियां गाद से बेहाल हैं.
बिहार में तो उथली हो रही नदी में गंगा सहित 29 नदियों का दर्द है .जो नदियाँ तेज भाव से आरही हैं , उनके साथ आये मलवे से भूमि कटाव भी हो रहा है, कई एक जगह नदी के बीच टापू बन गए हैं . झारखंड के साहिबगंज में गंगा, अपने पारंपरिक घाट से पांच किमी दूर चली गई है. 19वीं सदी में बिहार में (जिसमें आज का झारखण्ड भी है ) 6000 से अधिक नदियां बहती थीं, जो आज सिमट कर 600 रह गई है. बिहार का शोक कहलाने वाली कई नदियाँ जैसे गंडक, कोसी, बागमति, कमला, बलान, आदि नेपाल के उंचाई वाले क्षेत्रों से तेजी से लुढक कर राज्य के समतल पर लपकती हैं और इन सभी नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ से बचने के लिए हज़ारों किलोमीटर के पक्के तटबंध हैं . जाहिर है कि पहाड़ झड़ने से उपजा गाद किनारे जगह पाता और नदियों की तलहटी में बैठ कर उनकी धीमी मौत की इबादत लिखती हैं. झारखंड के साहिबगंज में फरक्का बराज गंगा में गाद का बड़ा कारक है और इसे नदी प्रवाह कई ठप्प है. साहिबगंज के रामपुर के पास कोसी का गंगा से मिलन होता है . कोसी वैसे ही अपने साथ ढेर मलवा लाती है और उसके आगे ही फरक्का बराज आ जाता है. तभी यहाँ गंगा गाद से सुस्त हो जाती है. राजमहल पहाड़ी पर धड़üे से चल रहे सैकड़ों खदानें और गंगा किनारे पत्थरों गैरकानूनी भंडारण करने से गाद से उथलेपन की स्थिति उत्पन्न हुई है.
विदित हो सन 2016 में केंद्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढती गाद
गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि नदी के
पानी को फैलने का पर्याप्त स्थान मिले. गाद को बहने का रास्ता मिलना चाहिए. तटबंध
और नदी के बहाव क्षेत्रा में अतिक्रमण न हो और अत्यधिक गाद वाली नदियों के संगम
क्षेत्र से नियमित गाद निकालने का काम हो. जाहिर है कि ये सिफारिशे किसी ठंडे
बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाये जा रहे हैं जो न केवल नदी
की चौड़ी को कम अक्र्ते हैं, बल्कि जल विस्तार को सीमेंट कंक्रीट से रोक भी देते
हैं . परिणाम सामने है थोड़ी सी बरसात में इस साल गुजरात में जम कर शहर- खेतों में
पानी भरा
यह दुर्भाग्य है कि विकास के नाम पर नदियों के कचार को सर्वाधिक हडपा गया . असल में कछार नदी का विस्तार होता , ताकि अधिकतम भी बरसात हो तो नदी के दोनों किनारों पर पानी विस्तार के साथ अविरल बहता रहे. आमतौर पर कचार में केवल मानसून में जल होता है, बाकी समय वहां की नर्म, नम भूमि पर नदी के साथ बह कर आये लावन, जीवाणु का डेरा होता है . फले इस जमीन पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे और शायद तभी ऐसे किसानों को “काछी कहा गया—कछार का रखवाला. काछी, को फ़र्ज़ था कि वह कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए दे , जोकि शानदार खाद हुआ करती थी . भूमि के लालच में कछार और उसकी गाद भी लुप्त हो गए और काछी भी और कछार में आसरा पाने वाले गाद को मज़बूरी में नदी के उदर में ही डेरा ज़माना पड़ता है
गाद के कारण नदियों पर खड़े हो रहे संकट से उत्तरांचल भी अछूता नहीं हैं . यहाँ तीन नदियाँ गाद से बेहाल हैं . गंगा को बढ़ती गाद ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. हिमालय जैसे युवा व जिंदा पहाड़ से निकलने वाली गंगा के साथ गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन जिस तरह उत्तराखंड में नदी प्रवाह क्षेत्र में बाँध, पनबिजली परियोजनाएं और सड़कें बनीं, उससे एक तो गाद की मात्रा बढ़ी, दूसरा उसका प्रवाह-मार्ग भी अवरुद्ध हुआ . गाद के चलते ही इस राज्य के कई सौ झरने और सरिताएं बंद हो गए और इनसे कई नदियों का उद्गम ही खतरे में है .
नदी मने गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इसका निस्तारण भी उसी स्वाभाविक
तरीके से होना चाहिए , वर्ना जिस गाद पर मानव सभ्यता का विकास हुआ, व्ही गाद कहीं
मानव के लिए अपूर्णीय क्षति का कारण न बन जाए .
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