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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

Amrit Talab can make India 'watery'

 

अमृत  तालाब बना सकते हैं भारत को पानीदार
पंकज चतुर्वेदी


भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम है। ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है।  लेकिन दुखद पहलु यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है। महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी भूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजली, पंप, खाद, कीटनाशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है। एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।  अब यह किसी से छुपा नहीं है कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाएं  लागत व निर्माण में लगने वाले समय की तुलना में कम ही कारगर रही हैं। ऐसे में समाज को सरकार ने अपने सबसे सषक्त पारंपरिक जल-निधि तालाब की ओर  आने का आह्वान किया है।  आजादी के 75 साल के अवसर पर देश  के हर जिले में  75 सरोवरों की येजना पर काम हो रहा है।



गत 22 अप्रैल 2022 को  प्रारंभ की गई इस योजना में देश  के प्रत्येक जिले में 75 जलाषय निर्माण का लक्ष्य रखा गया है। 03 दिसंबर 2022 तक देश  में कुल 91226 स्थानें को चयन किया गया, जबकि 52894 स्थानों पर काम भी शुरू  हो गया।  सरकारी आंकड़े कहते हैं कि ऐसे 25659 तालाब बन कर भी तैयार हो गए। इनमें सबसे ज्यादा तालाब उत्तर प्रदेश  में हैं - चिन्हित स्थान 15845, काम शुरू  हुआ 10803 और  8562 तालाब बन कर तैयार भी हो गए। मप्र में 6958 स्थानों का चयन, 5454 पर काम शुरू  और 2227 पर संपन्न हो गया हे। इसके बाद स्थान है राजस्थान का जहां अभी तक 978  सरोवर बन गए हैं जबकि 3329 पर काम चल रहा है। यहां 5176 तालाब का लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि  केंद्र सरकार के विभागीय पोर्टल पर इस कार्य के प्रति दिन की प्रगति की रिपोर्ट डाली जाती है, जो बानगी हे इसकी तेज गति की।

 हालांकि  सच्चाई यह है कि सरोवर तैयार करना अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है और उसके स्थान का चयन हमारा पारंपरिक जल-आगम,  स्थान की मिट्टी के मिजाज, स्थानीय जलवायु आदि के अनुरूप करता था। केंद्र सरकार के निर्देष के जल्द के क्रियान्वयन  के लिए जिला सरकारों ने अभी तक पुराने तालबों को ही चमकाया है। जरा सोचें देश  के कुल 773 जिलों मे यदि येजना सफल हो गई तो लगभग नब्बे हजार ऐसे  तालाब होंगे जिनका आमाप यदि प्रत्येक तालाब औसतन एक हैक्टर और दस फुट गहराई का भी हुआ तो 27 अरब  क्यूबिक लीटर क्षमता  का विषाल भंडार होगा। एक हैक्टर यानी 10 हजार मीटर, दस फुट यानी 3.048 मीटर, हर तालाब की क्षमता 30 हजार वर्ग मीटर । एक हजार लीटर जल यानी एक क्यूबिक मीटर -जाहिर है कि हर तालाब में 30 हजार क्यूबिक मीटर जल होगा और सभी 90 हजार सरोवर सफल हुए तो  हम पानी पर पूरी तरह स्थानीय स्तर पर आत्म निर्भर बन सकते हैं।


उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है।  देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं।  यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैक्ेयर जमीन पर तालाब बने हों तो  देश की कोई एक अरब 30 करोड़ ़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। चूंक तालाब लबालब होंगे तो जमन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।


आजादी के बाद सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत(कोई 36 लाख हैक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाब से सिंचाई का  रकवा घट कर 17 लाख हैक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसदी रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहजे कर रखा। हिंदी पट्टी के इलाकों में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उस पर निर्माण कर दिया गया या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान मे बदल दिया गया। यह बानगी है कि किस तरह हमारे किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया।

अमृत सरोवर योजना देखने में बहुत लुभावनी है और इसके कार्य के लिए मनरेगा सहित सभी योजनाओं से धन आवंटन की भी सुविधा है लेकिन यदि इसे प्रारंभ  में केवल हर जिले में उपस्थित  तीन हैक्टेयर या उससे बडे़ तालाबों के चिन्हीकरण और उनको पारंपरिक स्वरूप में संवारने तक सीमित रखा जाता तो योजना अधिक  धरातल पर दिखती। असल में हर जिले में जो सैंकड़ो साल पुरानी जल संरचनांए हैं , वे केवल जल ग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण और निस्तार की गंदगी डालने से ही बेजान हुई है। यदि  योजना का अमृत पहले इन पर गिरता तो परिणाम  अलग होते।


जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्तिता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसान पर है। भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग  और कुप्र्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरा उनके विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं। फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत होती है। ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को डअपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता। यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकारात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसान को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है। तालाबा को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही। यही नहीं हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है।



तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्त्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशनने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देश  के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे 


यदि देश में खेती-किसानी को बचाना है, अपनी आबादी का पेट भरने के लिए विदेश से अन्न मंगवा कर विदेशी मुद्रा के व्यय  से बचना है, यदि शहर की ओर पलायन रोकना है तो जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तालाबों की ओर लौटा जाए। खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों के इस्तेमाल को बढ़ाया जाए और तालाबों को सहेजने के लिए सरकारी महकमों के बनिस्पत स्थानीय समाज को ही शामिल किया जाए।

 

 

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