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बुधवार, 4 अप्रैल 2018

drought in Bundelkhand is not a water crisis, it is ecological problem

बुंदेलखंड याने जल संकट पलायन और बेबसी!
बुंदेलखंड याने जल संकट, पलायन और बेबसी! असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे शामिल हैं
पंकज चतुर्वेदी
बुंदेलखंड याने जल संकट, पलायन और बेबसी! असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे शामिल हैं। इन सभी पक्षों के क्षरण को थामने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालत सुधरेंगे नहीं, चाहे यहां के सभी नदी-तालाब पानी से लबालब भी हो जाएं। 

टीकमगढ़ जिले के गांवों की 40 फीसदी आबादी महानगरों की ओर रोजगार के लिए पलायन कर चुकी हैं। छतरपुर, दमोह, पन्ना के हालात भी लगभग ऐसे ही हैं। असल में इस इलाके के जीवकोपार्जन का मूल जरिया खेती है और खेती भी बरसात पर निर्भर। बीते दस सालों में यह आठवां साल रहा, जब औसत से बहुत कम बरसात से यहां की धरती रीती रह गई। अनुमान है कि मध्यप्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड में कुछ 30 लाख हैक्टयर जमीन है, जिसमें से 24 लाख हैक्टयर खेती के लायक है। लेकिन इसमें से सिंचाई की सुविधा महज चार लाख हैक्टयर को ही उपलब्ध है। केंद्र सरकार की एक रपट बताती है कि बुंदेलखंड में बरसात का महज 10 फीसदी पानी ही जमा हो पाता है। शेष पानी बड़ी नदियों में बहकर चला जाता है। असल में यहां की पारंपरिक जल-संचय व्यवसाय का दुश्मन यहीं का समाज बना है। 
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बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है-चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए। 
बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले की सीमा तय हरने वालें पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाईयां हैं। पहाड़ उजड़े तो उसकी तली में सजे तालबों में पानी कहां से अता व उनको रीत रहना ही था। इस तरह गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां ना तो कल-कारखाने हैं और ना ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। 
यहां मवेशी ना केवल ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का आधार होते हैं, बल्कि उनके खुरों से जमीन का बंजरपन भी समाप्त होता है। सूखे के कारण पत्थर हो गई भूमि पर जब गाय के पग पड़ते हैं तो वह जल सोखने लायक भुरभुरी होती है। विडंबना है कि समूचे बुंदेलखंड में सार्वजनिक गौचर भूमियों पर जम कर कब्जे हुए और आज गौ पालकों के सामने उनका पेट भरने का संकट है, तभी इन दिनों लाखों लाख गायें सड़कों पर आवारा घूम रही हैं। जब तक गौचर, गाय और पशु पालक को संरक्षण नहीं मिलेगा, बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। 
कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर छह प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखे। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जम के जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे ।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है-अफसरों, नेताओं-सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ो वाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।


यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गौचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में बेतवा, केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांध कर या नदियों को पारंपरिक तालबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रूपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुंदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो ना तो सूरत बदलेगी और ना ही सीरत।
    (लेखक सम्प्रति नेशनल बुक ट्रस्ट के सहायक संपादक)

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