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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

Madhy Pradesh water crisis : lack of management

कमी प्रबंधन की

जल संकट
पंकज चतुर्वेदी 

राष्ट्रीय सहारा २८ अप्रेल १८ 
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के प्रमुख जिला मुख्यालय छतरपुर में प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि उनके पास केवल अप्रैल महीने के लायक ही पानी बचा है। शहर की कोई तीन लाख आबादी के कंठ तर करने वाले खोप ताल और बूढ़ा बांध में तलहटी दिखने लगी है। वहां बामुश्किल 25 अप्रैल तक पानी खींचा जा सकेगा। दीगर नलकूप और मुहल्ले-मजरों में लगे हैंडपंप पहले ही साथ छोड़ चुके हैं। मध्य प्रदेश के लगभग सभी जिलों के हालात यही है। मध्य प्रदेश की जल-कुंडली कागजों पर बांचें तो साफ लगेगा कि पानी का संकट मानवजन्य ज्यादा है। अनमोल जल संसाधनों को कहीं शहरीकरण निगल गया तो कहीं रेत के अवैध खनन ने सुखा दिया। सरकार अपनी मजबूरी का ठीकरा भूजल पर फोड़ रही है, जबकि असलियत में तो यह राज्य के ताल-तलैया, नदी-सरिताएं, कुंए-बावड़ी को बिसराने का प्रतिफल है। सूखे कंठ अपने मजरे-टोले में रहना लोगों के लिए संभव नहीं है। टीकमगढ़ जैसे जिलों की 35 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। 1986 में तैयार की गई राष्ट्रीय जल नीति में क्रमश: पेय, कृषि, बिजली, जल परिवहन, उद्योग; इस क्रम में पानी की प्राथमिकता तय की गई थी। दावा किया गया था कि 1991 तक देश की सारी आबादी को शुद्ध पेयजल मिल जाएगा। लेकिन देश के दिल पर बसे मध्य प्रदेश में यह जलनीति रद्दी के टुकड़े से अधिक नहीं रही। कभी ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’ तो कभी ‘‘जलाभिषेक’ के लुभावने नारों के साथ सरकारी धन पर पानी और जनता की आंखों में धूाल झोंकने में कोई भी सरकार पीछे नहीं रही। कहीं से पानी की चिल्ला-चोट अधिक होती तो गाड़ियां भेज कर नलकूप खुदवा दिए जाते। जनता को समझने में बहुत समय लग गया कि धरती के गर्भ में भी पानी का टोटा है, और नलकूप गागर में पानी के लिए नहीं, जेब में सिक्कों के लिए रोपे जा रहे हैं। प्रदेश में हर पांच साल में दो बार अल्प वष्ा होना कोई नई बात नहीं है। पहले लोग पानी की एक-एक बूंद सहेज कर रखते थे, आज बारिश की बूदों को नारों के अलावा कहीं समेटा नहीं जाता है। राज्य का लोक स्वास्य यांत्रिकी विभाग इस बात से सहमत है कि प्रदेश का साठ फीसदी हिस्सा भूगर्भ जल के दोहन के लिए अप्रयुक्त है। मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की ताजा रिपोर्ट बताती है कि राज्य की कई नदियों का पानी हाथ धाने लायक भी नहीं बचा है। भोपाल के करीब मंडीदीप औद्योगिक क्षेत्र में बेतवा नदी में टोटल कालीफार्म और फीकल कालीफार्म इस स्तर पर बढ़ गए हैं कि यह जल मवेशियों को पिलाना भी जानलेवा है। शिप्रा और खान नदी में सीधे नालों का पानी मिल रहा है। चंबल का पानी नागदा में जहरीला है तो जानापाव गांव के करीब नदी पूरी तरह सूखी मिली। पानी की कमी के कारण सबसे विषम हालात झेल रहे टीकमगढ़ जिले में साठ के दशक तक 1200 से अधिक चंदेलकालीन तालाब हुआ करते थे। कभी प्रदेश के सबसे अधिक गेंहूं पैदा करने वाले जिले में साल दर साल तालाब से सिंचाई का रकवा घटना शुरू हुआ तो नलकूप के नशे में मस्त समाज ने इस पर गौर नहीं किया। तालाब फोड़ कर पहले खेत और फिर कालोनियां बन गई। दतिया, पन्ना, छतरपुर में भी ऐसी ही कहानियां दुहराई गई। मध्य प्रदेश नर्मदा क्षिप्रा, बेतवा, सोन, केन जैसी नदियों का उद्गम है। अनुमानत: प्रदेश के नदियों के संजाल में 1430 लाख एकड़ पानी प्रवाहित होता है। इसका नियोजित इस्तेमाल हो तो 2.30 लाख एकड़ खेत आसानी से सींचे जा सकते हैं। पर संकट यह है कि नदियां औद्योगिक और निस्तार प्रदूषण के कारण सीवर में बदल चुकी हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई से जहां बारिश कम हुई तो मिट्टी के नदियों में सीधे गिरने से वे उथले होने भी शुरू हो गए। राज्य के चप्पे-चप्पे पर कुओं और बावड़ियों का जाल है, लेकिन ये सभी आधुनिकता की आंधी में उजड़ गए। पारंपरिक जल संसाधनों के प्रति बेरूखी का ही परिणाम है कि राज्य में पानी के लिए खून बह रहा है। वैसे तो प्रदेश में ‘‘सरेावर हमारी धरोहर’ और ‘‘जलाभिषेक’ जैसी लुभावनी योजनाओं के खूब विज्ञापन छपे हैं, कागजों पर करोड़ों का खर्च भी दर्ज है, लेकिन बढ़ती गरमी ने इनकी पोल खोल दी है। बस पुराने तालाबों, बावड़ियों को सहेजें, नदियों को गंदा होने से बचाएं, हरियाली की दीर्घकालीन योजना बनाएं; किसी बड़े खर्च की जरूरत नहीं है-प्रदेश को फिर से सदानीरा बनाया जा सकता है। जरूरत है तो व्यावहारिक प्रबंधन की।

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