उच्च शिक्षा में ‘मनीवाद’ की स्थापना
पंकज चतुर्वेदी
स्तरीय उच्च शिक्षा, रोजगारोन्मुखी महाविद्यालय, स्वायत्त संस्थाएं ; भले ही आज इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों से शिक्षा जगत असहज है और उच्च शिक्षा पर केवल धनी लोगों का एकछत्र राज होगा, लेकिन यह जान लें कि इसकी तैयारी कोई एक-दो साल या दो-तीन सरकारों की नहीं बल्कि लगभग दो दशक से ज्यादा से चल रही है।डब्ल्यूटीओ करार के मुताबिक तो अप्रैल, 2005 से हमारे देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप अपना स्तर बनाना था। सभी विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ क्यूए यानी क्वालिटी एश्योरेंस का पालन जरूरी है। ऐसे में शिक्षण सुविधाओं, छात्रों के नतीजे और पाठ्यक्रमों में सतत सुधार के आाधार पर शैक्षिक संस्थाओं का स्तर तय होता है। चूंकि भारत डब्ल्यूटीओ की शर्तों से बंधा हुआ है, अतः उच्च शिक्षा के मानदंडों का पालन करना उसकी मजबूरी है।
24 अप्रैल 2000 को देश के दो बड़े उद्योगपतियों कुमार मंगलम बिड़ला और मुकेश अंबानी ने व्यापार और उद्योग पर गठित प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद को एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें उच्च शिक्षा को देशी-विदेशी निवेश के लिए खोल कर बाजार बनाने की सिफारिश की गई थी। इस रिपोर्ट का शीर्षक था-‘ए पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर रिफार्म इन एजुकेशन।’ उस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि सन् 2015 में 19 से 24 साल आयु वर्ग के 11 करोड़ आबादी में से महज 20 फीसदी यानी 2.2 करोड़ उच्च शिक्षा के काबिल होंगे। बिड़ला-अंबानी समिति का सुझाव था कि सरकार केवल स्कूल स्तर की शिक्षा की जिम्मेदारी ले और उच्च शिक्षा पूरी तरह निजी हाथों में दे। रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि उच्च शिक्षा लेने वाले अधिकांश लोग पंद्रह से बीस लाख का कर्ज लें। इससे बैंकिंग प्रणाली मजबूत होगी और इस कर्ज के दबाव में नौकरी पाए युवा उद्योगपतियों की शर्तों पर काम करते रहेंगे। विडंबना थी कि उस रिपोर्ट में भारत में गरीबी और प्रति व्यक्ति औसत आय जैसे मसलों को दरकिनार कर शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की बात कही गई थी।
उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन् 2003 में डब्ल्यूटीओ की शर्तों बाबत एक कमेटी का गठन किया था। इसकी किसी को भी खबर नहीं है कि उक्त कमेटी किस नतीजे पर पहुंची, लेकिन इस अवधि में कालेज ही नहीं, यूनिवर्सिटी खोलने के नाम पर शिक्षा जगत के साथ खुलकर खिलवाड़ किया गया। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में महज सत्रह सौ रुपए की पूंजी के साथ विश्वविद्यालय खोल दिए गए। दो कमरे अपने नहीं हैं और वहां विज्ञान संकाय के साथ डिग्री कालेज चल रहे हैं। यह विडंबना मध्य प्रदेश से बिहार तक कहीं भी देखी जा सकती है। देश के इंजीनियरिंग कालेज बंद हो रहे हैं व तकनीकी निजी संस्थानों में योग्य शिक्षक ही नहीं हैं। बिड़ला-अंबानी कमेटी और उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ की शर्तों के अनुरूप बनाने की क्रियान्वयन रिपोर्ट के ही परिणाम हैं कि अब आईआईएम जैसे संस्थानों की फीस कई गुना बढ़ा दी गई है। जेएनयू में हॉस्टल व मैस के खर्चे बढ़ाए जा रहे हैं।
विकसित देशों में बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा को उतना ही महत्व दिया जाता है, जितना कि उच्च शिक्षा को। भारत में स्कूली शिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ। समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चे नामी-गिरामी निजी स्कूलों में दाखिला लेकर गर्व महसूस करते हैं। अब तो सरकारी स्कूल भी ‘हायर एंड फायर’ की तर्ज पर शिक्षकों को रखने लगे हैं। शिक्षा गारंटी योजना, गुरुजी, पेरा टीचर जैसे नामों से स्कूली शिक्षक को पांच सौ या हजार रुपये में रखने पर अब किसी की संवेदनाएं नहीं जाग्रत हो रही हैं। इसके ठीक विपरीत कालेजों के शिक्षकों पर कार्यभार कम है, जवाबदेही न के बराबर है और वेतन व सुविधाएं आसमान छूती हुईं।
कुछ आईआईटी और आईआईएम को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश की अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम न तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है और न ही उसमें समय के साथ संशोधन किए गए हैं। कई विश्वविद्यालयों में एमए अंग्रेजी में वह सब पढ़ाया जा रहा है जो इंग्लैंड में 60 साल पहले पढ़ाया जाना बंद हो चुका है।
उच्च शिक्षा क्षेत्र आज भी सभी राजनैतिक दलों का चारागाह बना हुआ है। ऐसे छात्र नेताओं की संख्या भी हजारों में है जो अपने सियासती रसूख की बदौलत बगैर पढ़ाई किए ही डिग्रियां पा लेते हैं। कई मेडिकल, इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कालेज निजी प्रबंधन में हैं, लेकिन उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजुकेशन के कायदे-कानूनों के तहत चलना पड़ता है। इन सभी कालेजों का मालिकाना हक बड़े नेताओं के पास है। कुल मिलाकर उच्च शिक्षा के खर्चीले होने के पीछे के सच को जानने के लिए उन कड़ियों को जोड़ना होगा जो कि उच्च शिक्षा में ‘मनीवाद’ की स्थापना करने के लिए गढ़ी जा रही हैं।
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