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बुधवार, 22 जनवरी 2020

water scarcity in rural India



कुप्रबंधन की भेंट चढ़ती भूजल योजनाएं

पंकज चतुर्वेदी

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर शुरू ‘अटल भूजल योजना’ में छह हजार करोड़ से छह राज्यों के हर गांव-घर तक पानी पहुंचाने की चुनौती बेहद जटिल है। यह समझना होगा कि भूजल प्यास बुझाने का जरिया नहीं हो सकता। आज 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने के पानी की आस अभी बहुत दूर है। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है।
यह भी विडंबना है कि अब तक परियोजना पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गांवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गांव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर पानी लाते हैं। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।

अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रतिदिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं। भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन‍् 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिशोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन‍् 2022 तक देश में शत प्रतिशत शुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट बानगी है कि कई हजार करोड़ खर्च करने के बाद भी यह परियोजना सफेद हाथी साबित हुई हैं।
हर जगह यह बात सामने आई है कि स्थानीय समाज से सलाह लिए बगैर, स्थानीय पारंपरिक स्रोतों में जल की उपलब्धता पर विचार किए बगैर योजनाएं बनाई गई और जब वे पूरी हुईं तो उनका इस्तेमाल ही नहीं हो सका। उदाहरण के लिए पारंपरिक कुओं को असुरक्षित पेयजल स्रोत घोषित कर दिया गया जबकि महज मामूली साधन व्यय कर इन कुओं को सुरक्षित बनाया जा सकता था। सारी योजना ऊंची टंकी खड़ी करने और पाइप डालने तक सीमित रह गई। यह सोचा ही नहीं गया कि गांव में जब बिजली की आपूर्ति ही नियमित नहीं है तो पानी टंकी में पहुंचेगा कैसे और वितरित कैसे होगा।

ग्रामीण भारत में पेयजल मुहैया करवाने के लिए 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) तक 1,105 अरब रुपये खर्च किये जा चुके थे। इसकी शुरुआत 1949 में हुई जब 40 वर्षों के भीतर 90 प्रतिशत जनसंख्या को साफ पीने का पानी उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसके ठीक दो दशक बाद 1969 में यूनिसेफ की तकनीकी मदद से करीब 255 करोड़ रुपये खर्च कर 12 लाख बोरवेल खोदे गए और पाइप से पानी आपूर्ति की 17,000 योजनाएं शुरू की गईं। उसके बाद 2009 से दूसरी योजना प्रारंभ हो गई। हजारों करोड़ रुपये और दसियों योजनाओं के बावजूद आज भी कोई करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। लगभग 15 लाख बच्चे दस्त से अकाल मौत मरते हैं। अंदाजा है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद होते हैं। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 39 अरब रुपये का नुकसान होता है।

गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है, दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूषित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। दिल्ली से सटे मेरठ मंडल के कई हजार हैंडपंपों में हिंडन नदी के जहर का असर हो जाने के कारण उखाड़ फेंकने के आदेश एनजीटी ने कोई तीन साल पहले दिए थे। चूंकि प्रशासन वहां पानी की केाई वैकल्पिक व्यवस्था कर नहीं पाया सो स्थानीय समाज जहर के वाकिफ होते हुए भी इन हैंडपंपों को उखाड़ने नहीं दे रहा।

यदि देश की जल कुंडली देखें तो नदी, तालाब, जोहड़, बावड़ी और कई अन्य पारंपरिक जल स्रोत पर्याप्त संख्या में हैं और ये बरसात की हर बूंद को सहेज कर हमारी आनी वाली 2050 तक की जल-मांग को पूरा करने में सक्षम हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सुरक्षित जल मुहैया करवाने की योजनाओं का पैसा टंकी बनाने के बनिस्बत जल संसाधनों को निरापद बनाने, उनके जल ग्रहण क्षेत्र व आगम क्षेत्रों को अविरल रखने, जैसे कार्य पर व्यय करे। इससे भूजल तंदुरुस्त होगा।कुप्रबंधन की भेंट चढ़ती भूजल योजनाएं

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