मौत घर बनते सीवर
पंकज चतुर्वेदी
छह अक्तूबर को जिस समय दिल्ली हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश श्री सतीश चंद्र की पीठ यह कह रही थी कि दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल बाद भी मैला हाथ से ढोने की प्रथा लागू है व इस संबंध में कानून की परवाह नहीं की जा रही है और दिल्ली विकास प्राधिकरण को निर्देष दिए थे कि बीते 09 सितंबर को मुंडका में सीवर सफाई के दौरान मारे गए दो श्रमिकों के परिवार को तत्काल दस-दस लाख रूपए मुआवजा दिया जाए, ठीक उसी समय दिल्ली से सटे फरीदाबाद के एक अस्पताल के सीवर सफाई में चार लोगों के मौत की खबर आ रही थी। यह सरकारी आंकड़ा भयावह है कि गत बीस सालों में देश में सीवर सफाई के दौरान 989 लोग जान गंवा चुके हैं । राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट कहती है कि सन 1993 से फरवरी -2022 तक देश में सीवर सफाई के दौरान सर्वाधिक लोग तमिलनाडु में 218 मारे गए। उसके बाद गुजरात में 153 और बहुत छोट से राज्य दिल्ली में 97 मौत दर्ज की गई। उप्र में 107, हरियाणा में 84 और कर्नाटक में 86 लोगों के लिए सीवर मौतघर बन गया।
ऐसी हर मौत का कारण सीवर
की जहरीली गैस बताया जाता है । हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है।
पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही
नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से
मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके
आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश । शायद
यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के
विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की
सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना
अमानवीय है।
यह विडंबना है कि सरकार व
सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से
आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
और मुंबई हाईकोर्ट ने सात साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा- निर्देश जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है।
सरकार ने भी सन 2008 में एक अध्यादेश ला कर गहरे में सफाई का
काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी।
नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लेगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं
और मानव अधिकार आयोग के निर्देष भी । लेकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं।
कोर्ट के निर्देषों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के
नक्शे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई
का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की
जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण , सीवर
में गिरने वाले कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं;
जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता ळें सुप्रीम कोर्ट ने
तो ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों को 10 लाख मुआवजे का भी आदेश
दिया था, लेकिन कागजों पर ऐसे मजदूरों का कोई रिकार्ड होता
नहीं, सो मुआवजे की प्रक्रिया ही षुरू नहीं हो सकती।
भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी
जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा
कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने
से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश में
दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में
घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे
हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड,
हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें
होती हैं । मोटा अनुमान है कि ऐसे कार्य करते समय हर साल बीस हजार से ज्यादा लोग
मारे जाते हैं।
यह एक शर्मनाक पहलू है कि
यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव
या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न
रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या
होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी के षरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है ।
नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना
होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से शरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का
अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि
सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता
है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है ।
ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन
लोगों का शराब व अन्य नशे की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नशे की यह लत उन्हें
कई गम्भीर बीमारियों का शिकार बना देती है ।
आमतौर पर ये लोग मेनहोल
में उतरने से पहले ही षराब चढ़ा लेते हैं, क्योंकि नशे के सरूर में वे भूल
पाते हैं कि काम करते समय उन्हें किन-किन गंदगियों से गुजरना है । गौरतलब है कि
शराब के बाद शरीर में आक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे
सीवरों में तो यह प्राण वायु होती ही नहीं है । तभी सीवर में उतरते ही इनका दम
घुटने लगता है । यही नहीं सीवर के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी
सामना करना होता है ।, इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिश्ताकरने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं । ये श्रमिक आमतौर पर सांस की
बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द ,डरमैटाइसिस,
एक्जिमा के साथ-साथ कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं।
वैसे यह सभी सरकारी दिशा-
निर्देशों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने
वालों को गैस -टेस्टर(विषैली गैस की जांच
का उपकरण), गंदी हवा
को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने,
चष्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया
करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से
कतई नहीं करवाना चाहिए। यहां जान लेना होगा कि अब दिल्ली व अन्य महानगरों में सीवर
सफाई का अधिकांश काम ठेकेदारों द्वारा करवाया जला रहा है, जिनके
यहां दैनिक वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं । सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने
का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध
करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । सुप्रीम कोर्ट से ले कर मानवाधिकार
आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है । इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं
गायब है ।
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