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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

Falling mountain deteriorating natural balance

                                       ढहते पहाड़  से बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन

पंकज चतुर्वेदी


भारत में बरसात  एक नियामत होती है, मानसून  हमारी अर्थ और सामाजिक व्यवस्था का आधार है,  लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर के गहराते ही पहाड़ों पर पावस एक त्रासदी के रूप में कहर बरपा रहा है. सन 2015 से जुलाई 22 के बीच देश में पहाड़ों पर भूस्खलन की 2239 घटनाएँ  दर्ज की गईं जिसमें सबसे ज्यादा  पश्चिन बंगाल के दार्जलिंग  क्षेत्र में 376 हैं . तमिलनाडु में 196, कर्णाटक में 194 और जम्मू कश्मीर में 184 ऐसे बड़ी घटनाएँ हुईं जिनमें पहाड़  लुढ़क गया , देश के कोई 13 फ़ीसदी क्षेत्र, जो कि 4.3 लाख वर्ग किलोमीटर है , को अब भूस्खलन – संभावित माना गया है. बीते सात साल के आंकड़े बताते हैं राज्य में भूस्खलन की घटनाओं में 10 गुना से ज्यादा की बढौतरी हुई है. वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि बढ़ते भूस्खलनों के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में बदल रही बरसात की प्रकृति और कथित विकास या मानवीय गतिविधियों के चलते  पर्वतों के आकार और उनके ढलान में हो रहे परिवर्तन इसकी प्रमुख वजह है.

 प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल  सौ साल चलते हैं. पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा  और दिशा  तय करने के साध्य होते हैं. जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजी भी समय-समय पर सामने आ रही है. यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है. वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है. ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है. यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना.  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया.


भारत में भूस्खलन के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र में  अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पश्चिमी घाट, दार्जिलिंग, सिक्किम और उत्तराखंड आते हैं . पूर्वोत्तर  राज्य , पूर्वी घाट, कोंकण पर्वतमाला , नीलगिरी के पहाड़ को उच्च संवेदनशील इलाकों में गिना जाता है .  जबकि हिमालय के उस पार के इलाके ,हिमाचल प्रदेश के लाहौल  स्पीति, गुजरात से दिल्ली तक की अरावली पर्वत, दक्कन का पठार, छत्तीसगढ़, झारखंड और  ओडिशा में भू स्खलन की संभावनाएं तो हैं लेकिन इन्हें कम संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है . यदि राज्य के अनुसार देखें तो अरुणाचल प्रदेश का 71, 228 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में  भूस्खलन की प्रबल संभावना है . हिमाचल प्रदेश में 42108 वर्ग किमी  ,   लद्दाख 40065 वर्ग किमी , उत्तराखंड  39009,  कर्णाटक  31323 और असम में  24114  वर्ग किमी इलाका भयंकर भूस्खलन का शिकार है .


भूस्खलन अर्थात ऊँचाई से कीचड़, मलबा और चट्टानों का तेजी से नीचे आना . इससे जनजीवन ठहर सा जाता है .सडक और रेलवे लाइने बाधित होती हैं .  उत्तराखंड में तो बरसात के मौसम में  चीन सीमा तक जाने वाले रास्तों . बदरीनाथ  नेशनल हाई वे पर लगभग हर हफ्ते पहाड़ गिरते हैं . अचानक मलवा- पत्थर गिरने से सद्क्के अलावा  बहुत सी सार्वजानिक संपत्ति को नुक्सान होता है और उसके पुनर्निर्माण में भारी धन व्यय होता है .


ढलानों से नीचे खिसकने वाला मलबा नदी- नाले को पूरी तरह या आंशिक रूप से अवरुद्ध कर देता है उर ऐसे हालात में  बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं , इसी साल मणिपुर के नोनी में  रेलवे ट्रेक डालने के काम में हुई बड़ी जनहानि हो या पिछले साल  उत्तराखंड में रैनी का हादसा, किसी जलधारा के नैसर्गिक भाव के अवरुद्ध होने से बनी अस्थाई झील और फिर उसके फटने से हुए जल-बम ने जानोमाल के बड़े नुक्सान किये हैं . जल धरा अवरुद्ध होने से उसके जल पर निर्भर आबादी के सामने  स्वच्छ जल का मिलना भी  मुश्किल हो जाता है. पहाड़  के क्षरण से बड़ी मात्रा में मालवा गिरता है जो कि  नदियों को उथला बना देता है, ऐसे में यदि बरसात भी हो रही हो तो बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है।


भूस्खलन का सबसे बड़ा कारण तो धरती से हरियाली की छतरी का कम होना है . सरकार ने जिस अरुणाचल प्रदेश को भूस्खलन के लिए सर्वाधिक  संवेदनशील माना है वहां सन 2021 में 257500 वर्ग किलोमीटर में वनों की कटाई दर्ज की गई , पूर्वोत्तर राज्य तो  पहाड़ गिरने से अत्यधिक प्रभावित है और यहाँ  वनों की कटाई सर्वाधिक है . हिमालय क्षेत्र पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण भूस्खलन की चपेट में आ गया है.

पेड़ों की अनुपस्थिति में मिट्टी और चट्टानों को बाँध कर रखने वाले प्राकृतिक गुण कम हो जाते हैं। बगैर पेड़ की धरती पर बरसात की बूँदें गोली की तेजी से चोट करती हैं जिससे मिट्टी की उपरी परत कमजोर हो जाती है. यहां तक ​​कि जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने भी पुष्टि की  है कि अंधाधुंध वनों की कटाई के चलते पश्चिमी महाराष्ट्र और कोंकण क्षेत्र में भूस्खलन में इजाफा हुआ है . उत्तर पूर्व के राज्यों में पहाड़ ढहने का एक कारण झूम खेती भी है जिसके लिए जंगलों को जलाने से धरती की उपरी परत  को गंभीर नुक्सान होता है , जब तेज बरसात होती है तो  जमीन का क्षरण होता है। तभी यह इलाके भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील माने गए हैं .


सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है. जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है.  जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो दिल्ली  तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है.


 

जलवायु परिवर्तन के चलते भारी और अनियमित बरसात  पहाड़ों के गिरने का बड़ा कारण हैं . उत्तराखंड में भूस्खलन की तीन चौथाई  घटनाएँ  बरसात के कारण हो रही हैं . कुमाऊं हिमालयी क्षेत्र का 40% से अधिक भूकंप के कारण भूस्खलन की चपेट में है. दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय  के पर्यावरणीय छेड़छाड़  कई बार अपना रौद्र रूप दिखा चुका है . पाहदों की नाराजी का बड़ा  कारण खनन है .खनन या उत्खनन जैसी इंसानी मनमानी हरियाली-आवरण और मिट्टी उपरी परत (टॉप साइल ) को नुक्सान पहुंचा रही है . इससे धरती की भूजल ग्रहण  क्षमता कम हो जाती है, फलस्वरूप  बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है.  इसलिए, भूकंप और भारी वर्षा के दौरान कमजोर हो गई धरती के टुकड़े गिरने लगते हैं .


पहाड़ को सबसे बड़ा खतरा बढ़ते शहरीकरण और फिर वहां जन सुविधाएँ बढाने के लिए  किये जा रहे निर्माण कार्यों से हैं . धर्मशाला हो या नैनीताल , सभी जगह तेजी से कंक्रीट बढ़ रहा है और वहां  फाड़ से पत्थर –मलवा गिरना साल दर साल बढ़ता जा रहा है .

यदि पहाड़ से  गिरने वाली आफत से निजात पाना है तो पहाड़ों पर हरियाली को बढ़ाना होगा . नदी- सरिता के किनारे जल ग्रहण क्षेत्र को जितना  उन्मुक्त रखेंगे , जल जमाव नहीं होगा और इससे मिटटी कमजोर नहीं होगी . पहाड़ों पर  मवेशी की अत्यधिक चराई भी  कम करना होगा .

 

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