तालाब खोदने नहीं, बचाने भी जरूरी हैं
पंकज चतुर्वेदी
जब देश के प्रधनमंत्री आजादी के 75वे साल में हर जिले में 75 सरोवर बनाने की बात कर रहे हैं तभी बंगलूरू विकास
प्राधिकरण 12 मई 2022 को विज्ञापन छाप कर डोडाबेट्टा हल्ली गांव में चार एकड़ के तालाब पर आवासीय कालोनी खड़ा करने पर
आम लोगों का आपत्तियों आमंत्रित कर रहा है। आजादी के 75 साल होने पर अमृतोत्सव की धूम में तालाबों का नाम भी जुड़
गया है और यूपी के रामपुर के उत्साही अफसरों ने भरी गरमी में एक पुराने तालाब पर
सीमेंट-टाईल्स का प्रसाधन किया और उसे टैंकर से लबालब भर का देश का पहला अमृत
तालाब बनाने की घोषणा भी कर दी। यह सर्वमान्य तथ्य है कि बढ़ते तापमान,सिकुड़ती नदियों, बरसात के कम हो रहे दिनों और जल-संसाधन की बहुत बड़ी
परियोजनाओं के अपेक्षित परिणाम ना निकल
पाने और बढ़ती आबदी की प्यास व भूख शांत करने के लिए पुरखों से मिले तालाब ही काम आएंगे। कोई तीन दशकों से नारे में तालाब खूब उछलते हैं
लेकिन सूरज के तपते ही उनसे पानी की आस
समाप्त हो जाती है। कहना होगा कि असल में
हमारे आधुनिक शिक्षा प्राप्त अफसरों-इंजीनियरों को असल में तालाब की वह समझ नहीं है जो सैंकड़ों साल पहले के उस
पारंपरिक समाज को थी जो मिट्टी की संरचना, पानी की जरूरत व आवक, हर बात की गणना उनके दिमाग में होती थी .
कितना सुखद है कि किसी सरकार ने लगभग 78 साल पुरानी एक ऐसी रपट को गंभीरता से अमल करने की सोची जो कि सन 1943 के भयंकर बंगाल दुर्भिक्ष में तीन लाख से ज्यादा मौत होने के बाद ब्रितानी सरकार द्वारा गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। सन 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की ज्यादा जरूरत है। सन 1943 में “ग्रो मोर कैंपेन” चलाया गया था जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्षीय योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानि तालाबों की बात कही गई थी। उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं, मप्र जैसे राज्य में “सरोवर हमारी धरोहर” जैसे अभियान चले, लेकिन जब आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली हो या बंगलूरू या फिर छतरपुर, रांची या लखनउ, सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कालेनियां,सड़क, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया।
हालांकि इसके कोई सरकारी रिकार्ड मौजूद नहीं हैं, लेकिन अंदाजा है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्शाता है। बुंदेलखंड के सूखे के लिए सबसे ज्यादा पलयन के लिए बदनाम टीकमगढ़ जैसे छोटे से जिले में हजार से ज्यादा हष्ट पुष्ट तालाब होने और आज इनमें से 400 से ज्यादा गुम हो जाने का रिकार्ड तो अभी भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे।
उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की सन 2000--01 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज कई लाख करोड़ से कम नहीं होगा। सनद रहे ये तालाब मनरेगा वाले छोटे से गढडें नहीं है, इनमें से अधिकांश कई-कई वर्ग किलोमीटर तक फैले हैं। ऐस ही सन 2006--07 की गणना में सरकार ने स्वीकार किया कि देश के ग्रामणी अंचल में 5,23,816 तालाब हैं जिनमें से 80128 उपयोग में नहीं आ रहे। 22 जुलाई 2021 को संसद में जल संसाधन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने एक गैर तारांकित प्रश्न के जवाब में कहा कि वर्ष 2013--14 की गणना के अनुसार ग्रामीण भारतमें 5,16303 जल निधियां हैं जिनमें से 53,396 गाद, गंदगी या अन्य कारणों से इस्तेमाल में नहीं है। गौर करें कि छह साल के अंतराल में ही 7513 तालाब कहीं गुम हो गए। गौर करें कि इन आंकड़ों में वे शहरी तालाब शामिल नहीं है जिन्हें विकास के नाम में जायज तरीके से मैदान बना दिया गया। एक अन्य सवाल के उत्तर में संसद को बताया गया कि अभी देश में 0.01 हैक्टर आकार से अधिक की सात लाख,98 हजार, 908 जल संरचनाएं हैं जिनमें से 5,16,303 में ही पानी बचा है।
सन 2001 में देश की 58 पुरानी झीलों को पानीदार बनाने के लिए केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राश्ट्रीय झील संरक्षण योजना षुरू की थी। इसके तहत कुल 883.3 करोड़ रूपए का प्रावधान था। इसके तहत मध्यप्रदश की सागर झील, रीवा का रानी तालाब और शिवपुरी झील, कर्नाटक के 14 तालाबों, नैनीताल की दो झीलों सहित 58 तालाबों की गाद सफाई के लिए पैसा बांटा गया। इसमें राजस्थान के पुष्कर का कुंड और धरती पर जन्नत कही जाने वाली श्रीनगर की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों को भी गया। अब सरकार ने मापा तो पाया कि इन सभी तालाबों से गाद निकली कि नहीं, पता नहीं - लेकिन इसमें पानी पहले से भी कम आ रहा है। केंद्रीय जल आयोग ने जब खर्च पैसे की पड़ताल की तो ये तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं और उसकी ढुलाई का खर्चा दिखा दिया। कुछ जगह गाद निकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी, जोकि अगली बारिश में ही फिर से तालाब में गिर गई।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई।
ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा
पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी
संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर
पर बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। गाँव
,ब्लाक, जिला व राज्य स्तर
पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीति सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेन्ट्रल वाटर कमीशन और सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को
तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस
खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमें तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए
तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना
ही बड़ी भूल है।
12वीं पंचवर्शीय योजना
में भी 1765 करोड़ खर्च कर 2064 तालाबों के जीर्णोद्वार का प्रावधान था लेकिन योजना की अवधि में मात्र 1160 पर ही काम हुआ। आंध््रा प्रदेश और मणिपुर जैसे राज्यों ने
इस बजट को खर्च ही नहीं कया और उपलब्धि
में शून्य तालाब लिखे थे तो उड़िसा में 145.18 करोड़ खर्च कर 810 तालाबों के कायाकल्प की जानकारी सरकार को भ्ेजी गई। गुजरात
महज 8.81 करोड़ व्यय के साथ
तीन तालाब पर काम कर पाया।
उप्र के आदर्श तालाब योजना के तहत सीतापुर
और लखनउ के इस समय सूखे पड़े सैंकड़ों गड्ढे
बानगी हैं कि सरोवर को खेदना या सुंदर
बनाने से ज्यादा जरूरी है कि उसमें पानी की नैसिर्गिक आवक, जल निधि में गंदगी ना मिलना सुनिश्चित करना और उसका नियमित
प्रयोग ज्यादा जरूरी है ना कि प्रचार और नारे।
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