इस तरह कैसे बचेंगी बेटियां?
पंकज चतुर्वेदी
![]() |
rashtriy sahara 8-8-18 |
भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि देश में हर साल औसतन 90 हजार बच्चों के गुमने की रपट थानों तक पहुंचती है जिनमें से 30 हजार से ज्यादा का पता नहीं लग पाता। हाल ही में संसद में पेश एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011-14 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गये थे। जब भी बच्चों के गुम होने के तथ्य आते हैं, तो सरकार समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाती।
![]() |
independent mail. bhopal |
संयुक्त राष्ट्र की एक रपट कहती है कि भारत में हर साल 24,500 बच्चे गुम हो जाते हैं। सबसे ज्यादा बच्चे महाराष्ट्र में गुमते है। यहां 2011-14 के बीच 50,947 बच्चों के नदारद हो जाने की खबर पुलिस थानों तक पहुंची थी। मध्य प्रदेश से 24,836, दिल्ली से 19,948 और आंध्र प्रदेश से 18,540 बच्चे लापता हुए थे। विडंबना है कि गुम हुए बच्चों में बेटियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। सन् 2011 में गुम हुए कुल 90,654 बच्चों में से 53,683 लडकियां थीं। सन् 2012 में कुल गुमशुदा 65,038 में से 39,336 बच्चियां थीं, 2013 में कुल 1,35,262 में से 68,869 और सन् 2014 में कुल 36,704 में से 17,944 बच्चियां थीं। यह बात भी सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह हैं जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो सिर्फ अपहरण किये गये बच्चों की गिनती बताता है। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने कुछ साल पहले एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें बताया गया था कि देश में लगभग एक लाख वैश्याएं हैं जिनमें से 15 प्रतिशत 15 साल से भी कम उम्र की हैं। असल में देश में पारंपरिक रूप से कम उम्र की कोई 10 लाख बच्चियां देह व्यापार के नरक में हैं।
यह बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह हैं, जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है। अभी कुछ साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाश में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान में वैश्यावृति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। अलवर जिले के दो गांवों में पुलिस के छापे से पता चला था कि कम उम्र की बच्चियों का अपरहण किया जाता है। फिर उन्हें इन गांवों में ले जा कर खिलाया-पिलाया जाता है। गाय-भैंस से ज्यादा दूध लेने के लिए लगाये जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन 'आॅक्सीटासीन' देकर छह-सात साल की उम्र की इन लड़कियों को कुछ ही दिनों में 14-15 साल की किशोरी बना दिया जाता और फिर उनसे देह व्यापार कराया जाता। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस के इस खुलासे के बाद यह घिनौना धंधा रुक गया है। अलवर, मेरठ, आगरा, मंदसौर सहित कई जिलों के कई गांव इस पैशाचिक कृत्य के लिए ही जाने जाते हैं। पुलिस छापे मारती है, बच्चियों को महिला सुधार गृह भेज दिया जाता है, फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं और उन्हें बेच देते हैं। बच्चियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल स्वीकार करते हैं कि एक नाबालिग बच्ची को धंधे वालोें तक पहुंचाने के लिए उन्हें चैगुना दाम मिलता है। वहीं कम उम्र की बच्ची के लिए ग्राहक भी ज्यादा दाम देते हैं। तभी दिल्ली व कई बड़े शहरों में हर साल कई छोटी बच्चियां गुम हो जाती हैं और पुलिस कभी उनका पता नहीं लगा पाती। इस बात को लेकर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत, बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशाें की गरीब बच्चियों के लिए अतंरराष्ट्रीय बाजार बन गया है।
भले ही मुफलिसी को बाल वैश्यावृति का प्रमुख कारण माना जाए लेकिन इसके और भी कई कारण हैं जो समाज में मौजूद विकृृत मन की सूचना देते हैं। एक तो एड्स के भूत ने दुराचारियों को भयभीत कर दिया है, सो वे छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं, फिर कुछ हकीमों ने भी फैला रखा है कि संक्रमण ठीक करने के लिए कम उम्र की बच्ची से संबंध बनाना कारगर उपाय है। इसके अलावा देश में कई लोग इन मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियो बनाने में कर रहे हैं। अरब देशों में भारत की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। ताईवान, थाईलैंड जैसे देह-व्यापार के अड्डों की सप्लाई-लाइन भी भारत बन रहा है। यह बात समय-समय पर सामने आती रहती है कि गोवा, पुष्कर जैसे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक केंद्र बच्चियों की खपत के बड़े केंद्र हैं।
कहने को तो सरकारी रिकार्ड में कई बड़े-बड़े दावे हैं: जैसे कि सन 1974 में देश की संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति पर मुहर लगायी थी जिसमें बच्चों को देश की अमूल्य धरोहर घोषित किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 372 में नाबालिग बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल की सजा का प्रवधान है लेकिन इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है, क्योंकि अभी हमारा समाज बाल-वैश्यावृति जैसे कलंक से निकली किसी भी बच्ची के पुनर्वास के लिए सहजता से राजी नहीं होता। इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते।
संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के उत्पीड़न से निरापद रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। कहने को तो देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो शिक्षा की भी गारंटी देता है लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ाने के लिए न तो इच्छा-शक्ति है और न ही धन। कहने को कई आयोग बने हुए हैं लेकिन वे विभिन्न सियासती दलों के लोगों को पद-सुविधा देने से आगे काम नहीं कर पाते। आज बच्चियों को केवल जीवित रखना ही नहीं बल्कि उन्हें इस तरह की त्रासदियों से बचाना भी जरूरी है और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और हमारी सोच में बदलाव जरूरी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें