आखिर हम पेकिंग से सीखते क्यों नहीं ?
भास्कर, रसरंग 25 जनवरी 2015 |
http://epaper.bhaskar.com/magazine/rasrang/211/25012015/mpcg/1/पंकज चतुर्वेदी
बीते दो दशकों के दौरान हमारे देष के कई सौ मंत्री-अफसर, विशेषज्ञ चीन गए, पेकिंग(बीजिंग) में कई दिन बिताए - हर एक का उद्देश्य था वहां की व्यवस्था को देखना और उसके अनुरूप भारत में सुधार करना। जान कर आष्चर्य होगा कि चीन की व्यवस्था को अपनाने के लिए वहां की यात्रा करने वाले सबसे ज्यादा दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री व मंत्री थे। इसमें कोई शक नहीं कि वहां सीखने को बहुत कुछ है- परिवहन, सड़कें, सुरक्षा, नगरीकरण......, लेकिन हमारे नेता-अफसर शायद वहां से मिली सीख को वहीं छोड़ कर आ जाते हैं।
सन 2010 में हमने कई हजारों करोड़ खर्च कर कामनवैल्थ खेलों का आयोजन किया, हालांकि जो लोग पिछला लंदन ओलंपिक देख कर आए है वे बताते हैं कि हमारी व्यवस्थाएं लंदन से लाख गुणा बेहतर थी, इसके बावजूद खेल के बाद हमारे खेल केल घोटालों के खेल के लिए मषहूर हुए। इसके विपरीत बीजिंग या पेकिंग में छह साल पहले हुए आलंपिक खेल के लिए बनाया गया ‘‘ बर्ड नेस्ट’’ स्टेडियम आज भी पर्यटकों, खिलाडि़यों का स्वर्ग बना हुआ है। हमारे नेहरू स्टेडियम के बड़े हिस्से में सरकारी दफ्तर चल रहे हैं , त्यागराज स्टेडियम शादी व अन्य आयोजनों के लिए खोल दिया गया है। इन स्टेडियमों के कोई पांच सौ मीटर दूरी पर ही झुग्गियों सड़क पर आ गई हैं। वहीं ‘बर्ड नेस्ट’ स्टेडियम पेकिंग के चारों ओर सफाई, सुंदरता , हरियाली बरकरार हे। पेंिकंग आने वाले पर्यटकों के लिए इसका बाहरी हिससा खुला हुआ है। यहां हर शाम बेहतरीन रोशनी होती है। परिसर में ही सुंदर सा बाजार लगा हुआ है, जिनमें कई खाने-पीने के स्टाल भी हैं। स्टेडियम के भीतर कम उम्र के प्रशिक्षु बच्चों के लिए सभी सुविधाएं निशुल्क उपलब्ध हैं और आज भी यह परिसर कई ओलंपिक विजेता तैयार कर रहा है। काश हमने कम से कम जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम को इस लायक छोड़ होता कि पर्यटक और खिलाड़ी इसे देख सकते- इस्तेमाल कर सकते। शायद पेकिंग का यह अनुसरण करने में बेहतर इच्छा-शक्ति के अलावा कुछ हर्जा-खर्चा नहीं होना था।
पेंिकग में मैं कम से कम दो हजार किलोमीटर दूरी की सड़कों से तो गुजरा ही होउंगा, टैक्सी, बस, पैदल, और सबवे यानी मेट्रो- कई बाग-बगीचे, शापिंग माॅल, दर्षनीय स्थल भी ; बामुश्किल कहीं सुरक्षाकर्मी दिखे, कई जगह निजी सुरक्षा गार्ड दिखे, लेकिन बगैर किसी लाठी-असलहा के। तीन साल तक वहां का चार दिन का अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला भी देखा है , उसमें घुसते समय कड़ी सुरक्षा-जांच, फिर भीतर सतर्क निगरानी,लेकिन आम लोग भांप तक नहीं पाते हैं कि उन पर कहीं कोई नजर रखे हुए है। हां, सड़क पर ट्राफिक नियंत्रण करने वाले लोग तो दिखेंगे ही नहीं। कुछ व्यस्त चैराहों पर पैदल लोगांे को सड़क पार करने में मदद करने वाले वालेंटियर जरूर दिख जाएंगे। ये वालेंटियर उसी इलाके के बाषिंदे होते हैं- कई बुजुर्ग और औरतें भी। जब हम कहते हैं कि आतंकवाद वैश्विक खतरा है तो जाहिर है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक आबादी वाले देश की राजधानी इससे अछूती नहीं रह सकती। लेकिन वहां सुरक्षा एक तनाव नहीं, बंधन नहीं; एक अनिवार्य गतिविधि है, जो किसी हादसे का इंतजार नहीं करती। तिपहया साईकिल(बैटरी चालित) पर दौडते सुरक्षाकर्मियों की चैाकस निगाहें, उनके पास केवल एक छोटा सा हेंडीकैम होता है और वायरलेस। उनका काम केवल किसी संदिग्ध परिस्थिति की सूचना देना मात्र है, पलक झपकते ही तेज गति वाली कारों में सवार पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं।
पेकिंग दिल्ली एनसीआर से बड़ा इलाका है- लगभग 16,800 वर्ग किलोमीटर, आबादी भी दो करोड़ के करीब पहुंच गई है। सड़कों पर कोई 47 लाख वाहन सूरज चढ़ते ही आ जाते हैं और कई सड़कों पर दिल्ली-मुंबई की ही तरह ट्राफिक रैंगता दिखता है, हां जाम नहीं होता। बावजूद इसके हजारों-हजार साईकिल और इलेक्ट्रिक मोपेड वाले सड़कों पर सहजता से चलते हैं। एक तो लेन में चलना वहां की आदत है, दूसरा सड़कों पर या तो कार दिखती हैं या फिर बसें- रेहड़ी, रिक्षा, इक्का, छोटे मालवाहक कहीं नहीं- उनके लिए इलाके तय हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी किसी भी रेड-लाईट पर यातायात पुलिस वाला नहीं दिखता। जरा ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि बेहद कम-कम दूरी पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और सड़कों पर घूमने के बनिस्पत यातायात कर्मी कहीं बैठ कर देखते रहते हैं। वहां रोक कर वसूली करने की व्यवस्था कहीं दिखी नहीं। कार-बसें उलटे हाथ की तरफ स्टेयरिंग वाली होती हैं सो सड़क के कट भी उसीके अनुरूप हैं। यहां अधिकांष चालक लेन-ड्राईविंग का पालन करते हैं। इतनी कड़ी व्यवस्थ होने पर भी वहां के टैक्सी चालक दिल्ली के आटो रिक्षा चालकों के बड़े भाई ही दिखते हैं। असल में स्थानीय लोग टैक्सी बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। यह केवल पर्यटकों के लिए मान कर शायद लूट की छूट दी गई है।
दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कारीडोर जी का जंजाल बना हुआ है, काश पेकिंग गए हमारे नेता ईमानदारी से वहां की बसों को देख करे आते। पेकिंग में 800 रूटों पर बसें चलती हैं। कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दुगनी बड़ी, लेकिन कमाल है कि कहीं मोड़ पर ड्रायवर अटक जाए। इन बसों में पहले 12 किलोमीटर का किराया एक यूआन यानी हमारे हिसांब से कोई साढे सात रूप्ए है , उसके आगे प्रत्येक पांच किलोमीटर के लिए आधा युआन चुकाना होता है। अधिकांश बसों में आटोमेटिक टिकट सुविधा और स्मार्ट कार्ड व्यवस्था हे। स्मार्ट कार्ड वालों को साठ फीसदी की छूट दी जाती हे। इन बसों में तीन दरवाजे होते हैं -चढ़ने के लिए केवल बीच वाला और उतरने के लिए आगे और पीछे दो दरवाजे। पुराने पेकिंग में जहां सड़कों को चैाडा करना संभव नहीं था, बसें बिजली के तार पर चलती हैं मेट्रो की तरह। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं । एक तो बस की रफ्तार बांध दी गई हैं फिर सिर पर लगे बिजली के हैंगर स ेचल रही है सो इधर-उधर भाग नहीं सकती। यदि बीआरटी , मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बनिस्पत केवल बसों को सीधे बिजली से चलाने पर विचार किया होता तो हमारे शहर ज्यादा सहजता से चलते दिखते। यदि किसी यातायात विषेशज्ञ ने वहां की बस-वयवस्था को देख लिया होता तो हम कम खर्चें में बेहतर सार्वजनिक परिवहन दे सकते थे।
सार्वजनिक परिवहन का सबसे ज्यादा लोकप्रिय तरीका सबवे या मेट्रो है और इसकी किसी भी लाईन पर कितना भी लंबा सफर करने के लिए केवल दो यूआन चुकाने होते हैं। छात्रों को कार्ड दिखाने पर आधी छूट मिलती है। टिकट खिड़की भी ओटोमेटिक है, अपनी करंसी डालों और दो युआन का टिकट ले लो। दिल्ली मेट्रो के सामने आए रोज लोग कूद कर खुदकुशी कर लेते हैं। शायद ऐसी ही घटनाओं से बचाव के लिए पेकिंग के मेट्रो स्टेशनों पर ट्रेन के दरवाजे से पहले एक अलग से कांच का दरवाजा होता है जो कोच आ कर ठहरने के बाद ही खुलता है। पता नहीं हमारे तकनीकी विषेशज्ञों ने इस छोटी सी चीज को क्यों नहीं देखा।
पेकिंग की मुख्य सड़कों पर सफाई कर्मचारी भी हमारे लिए मिसाल हैं। वे साईकिल पर चलते हैं, छोटी ऊचाई वाली साईकिल। उसके पीछे कैरियर में सफाई में काम आने वाले उपकरण, फिनाईल आदि होतेहैं और कर्मचारी के हाथ में चिमटा जैसा यंत्र। सड़क पर कोई बोतल, कागज दिखा कि वह चिमटे से उठे चलते-चलते उठाता है और पीछे कैरियर में लगी टोकरी में डाल देता हे। ये सफाईकर्मी नांरगी रंग की वेषभूशा में होते हैं और हाथों में दस्ताने जरूर पहनते हैं।
शहरीकरण का बेहतरीन माॅडल है बीजिंग का विकास। चूंकि वहां का अंरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में होने के कारण सड़क पर भीड़ व दिक्कत पैदा कर रहा था सो वहां एयरपोर्ट के पास विशाल प्रदर्शनी मैदान बनाया गया, हमारे प्रगति मैदान की तरह। पहले वहां चैाड़ी सड़कें बनीं, शापिंग माॅल व अंतरराष्ट्रीय स्तर के होटल बने, सबवे की लाईन नंबर 15 शुरू की गई, उसके बाद सभी अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियां वहां लगने लगीं। जबकि हमारे यहां ग्रेटर नोएडा में एक्सपो बने कई साल हो गए, अभी तक वहां के लिए परिवहन व संपर्क के रास्ते नहीं बन पाए हैं। शहर में सभी विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान हाईडायन जिले में हैं तो नया विकास, नए दफ्तर आदि षुनेयी जिले में हैं इसी तरह आवासीय, व्यापारिक प्रतिश्ठानों के लिए जगह तय है, वहां बेतरतीब कहीं भी खुली दुकाने नहीं मिलेंगी। शहर का अधिकांश खुदरा व्यापार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े स्टोर्स से होता है।
ऐसा नहीं है कि पेकिंग में राम-राज है और उसे आदर्श के रूप में मान लिया जाए, लेकिन जब हमारे हुक्मरान जनता के पैसे से यह कहते हुए वहां घूमने जाते हैं कि वे व्यवस्था को आंकने जा रहे हैं तो कुछ अच्छाईयों का अनुसरण किया जाता तो उनके दौरे व हमारा व्यय हुआ धन, दोनो ही सार्थक होता। हां , एक बात और समूचे बीजिंग शहर में किसी भी तरह के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक प्रदर्षन,धरनों पर कड़ाई से पाबंदी है।
बीते दो दशकों के दौरान हमारे देष के कई सौ मंत्री-अफसर, विशेषज्ञ चीन गए, पेकिंग(बीजिंग) में कई दिन बिताए - हर एक का उद्देश्य था वहां की व्यवस्था को देखना और उसके अनुरूप भारत में सुधार करना। जान कर आष्चर्य होगा कि चीन की व्यवस्था को अपनाने के लिए वहां की यात्रा करने वाले सबसे ज्यादा दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री व मंत्री थे। इसमें कोई शक नहीं कि वहां सीखने को बहुत कुछ है- परिवहन, सड़कें, सुरक्षा, नगरीकरण......, लेकिन हमारे नेता-अफसर शायद वहां से मिली सीख को वहीं छोड़ कर आ जाते हैं।
सन 2010 में हमने कई हजारों करोड़ खर्च कर कामनवैल्थ खेलों का आयोजन किया, हालांकि जो लोग पिछला लंदन ओलंपिक देख कर आए है वे बताते हैं कि हमारी व्यवस्थाएं लंदन से लाख गुणा बेहतर थी, इसके बावजूद खेल के बाद हमारे खेल केल घोटालों के खेल के लिए मषहूर हुए। इसके विपरीत बीजिंग या पेकिंग में छह साल पहले हुए आलंपिक खेल के लिए बनाया गया ‘‘ बर्ड नेस्ट’’ स्टेडियम आज भी पर्यटकों, खिलाडि़यों का स्वर्ग बना हुआ है। हमारे नेहरू स्टेडियम के बड़े हिस्से में सरकारी दफ्तर चल रहे हैं , त्यागराज स्टेडियम शादी व अन्य आयोजनों के लिए खोल दिया गया है। इन स्टेडियमों के कोई पांच सौ मीटर दूरी पर ही झुग्गियों सड़क पर आ गई हैं। वहीं ‘बर्ड नेस्ट’ स्टेडियम पेकिंग के चारों ओर सफाई, सुंदरता , हरियाली बरकरार हे। पेंिकंग आने वाले पर्यटकों के लिए इसका बाहरी हिससा खुला हुआ है। यहां हर शाम बेहतरीन रोशनी होती है। परिसर में ही सुंदर सा बाजार लगा हुआ है, जिनमें कई खाने-पीने के स्टाल भी हैं। स्टेडियम के भीतर कम उम्र के प्रशिक्षु बच्चों के लिए सभी सुविधाएं निशुल्क उपलब्ध हैं और आज भी यह परिसर कई ओलंपिक विजेता तैयार कर रहा है। काश हमने कम से कम जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम को इस लायक छोड़ होता कि पर्यटक और खिलाड़ी इसे देख सकते- इस्तेमाल कर सकते। शायद पेकिंग का यह अनुसरण करने में बेहतर इच्छा-शक्ति के अलावा कुछ हर्जा-खर्चा नहीं होना था।
पेंिकग में मैं कम से कम दो हजार किलोमीटर दूरी की सड़कों से तो गुजरा ही होउंगा, टैक्सी, बस, पैदल, और सबवे यानी मेट्रो- कई बाग-बगीचे, शापिंग माॅल, दर्षनीय स्थल भी ; बामुश्किल कहीं सुरक्षाकर्मी दिखे, कई जगह निजी सुरक्षा गार्ड दिखे, लेकिन बगैर किसी लाठी-असलहा के। तीन साल तक वहां का चार दिन का अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला भी देखा है , उसमें घुसते समय कड़ी सुरक्षा-जांच, फिर भीतर सतर्क निगरानी,लेकिन आम लोग भांप तक नहीं पाते हैं कि उन पर कहीं कोई नजर रखे हुए है। हां, सड़क पर ट्राफिक नियंत्रण करने वाले लोग तो दिखेंगे ही नहीं। कुछ व्यस्त चैराहों पर पैदल लोगांे को सड़क पार करने में मदद करने वाले वालेंटियर जरूर दिख जाएंगे। ये वालेंटियर उसी इलाके के बाषिंदे होते हैं- कई बुजुर्ग और औरतें भी। जब हम कहते हैं कि आतंकवाद वैश्विक खतरा है तो जाहिर है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक आबादी वाले देश की राजधानी इससे अछूती नहीं रह सकती। लेकिन वहां सुरक्षा एक तनाव नहीं, बंधन नहीं; एक अनिवार्य गतिविधि है, जो किसी हादसे का इंतजार नहीं करती। तिपहया साईकिल(बैटरी चालित) पर दौडते सुरक्षाकर्मियों की चैाकस निगाहें, उनके पास केवल एक छोटा सा हेंडीकैम होता है और वायरलेस। उनका काम केवल किसी संदिग्ध परिस्थिति की सूचना देना मात्र है, पलक झपकते ही तेज गति वाली कारों में सवार पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं।
पेकिंग दिल्ली एनसीआर से बड़ा इलाका है- लगभग 16,800 वर्ग किलोमीटर, आबादी भी दो करोड़ के करीब पहुंच गई है। सड़कों पर कोई 47 लाख वाहन सूरज चढ़ते ही आ जाते हैं और कई सड़कों पर दिल्ली-मुंबई की ही तरह ट्राफिक रैंगता दिखता है, हां जाम नहीं होता। बावजूद इसके हजारों-हजार साईकिल और इलेक्ट्रिक मोपेड वाले सड़कों पर सहजता से चलते हैं। एक तो लेन में चलना वहां की आदत है, दूसरा सड़कों पर या तो कार दिखती हैं या फिर बसें- रेहड़ी, रिक्षा, इक्का, छोटे मालवाहक कहीं नहीं- उनके लिए इलाके तय हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी किसी भी रेड-लाईट पर यातायात पुलिस वाला नहीं दिखता। जरा ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि बेहद कम-कम दूरी पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और सड़कों पर घूमने के बनिस्पत यातायात कर्मी कहीं बैठ कर देखते रहते हैं। वहां रोक कर वसूली करने की व्यवस्था कहीं दिखी नहीं। कार-बसें उलटे हाथ की तरफ स्टेयरिंग वाली होती हैं सो सड़क के कट भी उसीके अनुरूप हैं। यहां अधिकांष चालक लेन-ड्राईविंग का पालन करते हैं। इतनी कड़ी व्यवस्थ होने पर भी वहां के टैक्सी चालक दिल्ली के आटो रिक्षा चालकों के बड़े भाई ही दिखते हैं। असल में स्थानीय लोग टैक्सी बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। यह केवल पर्यटकों के लिए मान कर शायद लूट की छूट दी गई है।
दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कारीडोर जी का जंजाल बना हुआ है, काश पेकिंग गए हमारे नेता ईमानदारी से वहां की बसों को देख करे आते। पेकिंग में 800 रूटों पर बसें चलती हैं। कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दुगनी बड़ी, लेकिन कमाल है कि कहीं मोड़ पर ड्रायवर अटक जाए। इन बसों में पहले 12 किलोमीटर का किराया एक यूआन यानी हमारे हिसांब से कोई साढे सात रूप्ए है , उसके आगे प्रत्येक पांच किलोमीटर के लिए आधा युआन चुकाना होता है। अधिकांश बसों में आटोमेटिक टिकट सुविधा और स्मार्ट कार्ड व्यवस्था हे। स्मार्ट कार्ड वालों को साठ फीसदी की छूट दी जाती हे। इन बसों में तीन दरवाजे होते हैं -चढ़ने के लिए केवल बीच वाला और उतरने के लिए आगे और पीछे दो दरवाजे। पुराने पेकिंग में जहां सड़कों को चैाडा करना संभव नहीं था, बसें बिजली के तार पर चलती हैं मेट्रो की तरह। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं । एक तो बस की रफ्तार बांध दी गई हैं फिर सिर पर लगे बिजली के हैंगर स ेचल रही है सो इधर-उधर भाग नहीं सकती। यदि बीआरटी , मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बनिस्पत केवल बसों को सीधे बिजली से चलाने पर विचार किया होता तो हमारे शहर ज्यादा सहजता से चलते दिखते। यदि किसी यातायात विषेशज्ञ ने वहां की बस-वयवस्था को देख लिया होता तो हम कम खर्चें में बेहतर सार्वजनिक परिवहन दे सकते थे।
सार्वजनिक परिवहन का सबसे ज्यादा लोकप्रिय तरीका सबवे या मेट्रो है और इसकी किसी भी लाईन पर कितना भी लंबा सफर करने के लिए केवल दो यूआन चुकाने होते हैं। छात्रों को कार्ड दिखाने पर आधी छूट मिलती है। टिकट खिड़की भी ओटोमेटिक है, अपनी करंसी डालों और दो युआन का टिकट ले लो। दिल्ली मेट्रो के सामने आए रोज लोग कूद कर खुदकुशी कर लेते हैं। शायद ऐसी ही घटनाओं से बचाव के लिए पेकिंग के मेट्रो स्टेशनों पर ट्रेन के दरवाजे से पहले एक अलग से कांच का दरवाजा होता है जो कोच आ कर ठहरने के बाद ही खुलता है। पता नहीं हमारे तकनीकी विषेशज्ञों ने इस छोटी सी चीज को क्यों नहीं देखा।
पेकिंग की मुख्य सड़कों पर सफाई कर्मचारी भी हमारे लिए मिसाल हैं। वे साईकिल पर चलते हैं, छोटी ऊचाई वाली साईकिल। उसके पीछे कैरियर में सफाई में काम आने वाले उपकरण, फिनाईल आदि होतेहैं और कर्मचारी के हाथ में चिमटा जैसा यंत्र। सड़क पर कोई बोतल, कागज दिखा कि वह चिमटे से उठे चलते-चलते उठाता है और पीछे कैरियर में लगी टोकरी में डाल देता हे। ये सफाईकर्मी नांरगी रंग की वेषभूशा में होते हैं और हाथों में दस्ताने जरूर पहनते हैं।
शहरीकरण का बेहतरीन माॅडल है बीजिंग का विकास। चूंकि वहां का अंरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में होने के कारण सड़क पर भीड़ व दिक्कत पैदा कर रहा था सो वहां एयरपोर्ट के पास विशाल प्रदर्शनी मैदान बनाया गया, हमारे प्रगति मैदान की तरह। पहले वहां चैाड़ी सड़कें बनीं, शापिंग माॅल व अंतरराष्ट्रीय स्तर के होटल बने, सबवे की लाईन नंबर 15 शुरू की गई, उसके बाद सभी अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियां वहां लगने लगीं। जबकि हमारे यहां ग्रेटर नोएडा में एक्सपो बने कई साल हो गए, अभी तक वहां के लिए परिवहन व संपर्क के रास्ते नहीं बन पाए हैं। शहर में सभी विश्वविद्यालय व शिक्षण संस्थान हाईडायन जिले में हैं तो नया विकास, नए दफ्तर आदि षुनेयी जिले में हैं इसी तरह आवासीय, व्यापारिक प्रतिश्ठानों के लिए जगह तय है, वहां बेतरतीब कहीं भी खुली दुकाने नहीं मिलेंगी। शहर का अधिकांश खुदरा व्यापार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े स्टोर्स से होता है।
ऐसा नहीं है कि पेकिंग में राम-राज है और उसे आदर्श के रूप में मान लिया जाए, लेकिन जब हमारे हुक्मरान जनता के पैसे से यह कहते हुए वहां घूमने जाते हैं कि वे व्यवस्था को आंकने जा रहे हैं तो कुछ अच्छाईयों का अनुसरण किया जाता तो उनके दौरे व हमारा व्यय हुआ धन, दोनो ही सार्थक होता। हां , एक बात और समूचे बीजिंग शहर में किसी भी तरह के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक प्रदर्षन,धरनों पर कड़ाई से पाबंदी है।
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