My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 17 जनवरी 2015

Delayed Justice is denied justice

देर से मिला न्याय बेमानी है

                                                                  पंकज चतुर्वेदी





दिल्ली से सटे गाजियाबाद में अदालती प्रक्रिया वीभत्स चेहरा देखा जा सकता है। पश्‍िचिमी उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय की पीठ की मांग को ले कर वकील दो महीने से हडताल पर हैं। उधर जेल में ऐसे लेागों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो एक ही दिन में जमानत पाने वाले सामान्य अपराध में जेल भेज दिए गए हैं। कड़ाके की ठंड में ऐसे कैदियों की बढ़ती भीड़ से प्रशासनकी परेशानी बढ़ गई है। दो दिन वकीलों ने एहसान किया मोटी फीसले कर चुनिंदा मुवक्किलों के मामले आगे बढ़ाए।  ना जाने कितनों का फैसला, जमानत, गवाही , पैरवी इस हड़ताल के चलते सालों लटक गई। लेकिन अदालत में काम कराना है तो वकीलों को लाना ही होगा और वकीलों की मनमानी रोकने का कोई कानून है नहीं। हालांकि यहां एक प्रयोग भी हुआ है- जिला अदालत के जज खुद जेल जा कर बैठ रहे हैं, छोटे मुकदमों मंे बंद मुजरिमों को प्रेरित किया कि वे खुद अपनी पैरवी करें। इस तरह कई लोगों की जमानत हो गई। लेकिन मुकदमों के फैसले आने के लिए वकील की भूमिका महति है। मेरठ की अदालतों में वकीलों के अड़ंगे के चलते वहां के केस सहारनपुर भजे गए तो नया बखेड़ा खउ़ा हुआ। ऐसे ही हालात देशभर में जिला, ब्लाक स्तर की अदालतों में आए रोज दिखते हैं -किसी की मौत तो किसी पर हमले का विरोध तो कभी आपसी गुटबंदी, वकील हड़ताल पर चले जाते हैं अदालतें ठप्प हो जाती हैं। भले ही उच्च न्यायालय नसीहतें देते रहें लेकिन वकील हैं कि मानते ही नहीं।
देश की सर्वोच्च अदालत में मुकदमों की संख्या कोई 55 हजार है, विभिन्न हाई कोर्ट में पैंतालिस लाख मुकदमें न्याय की बाट जोह रहे हैं। निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या दो करोड़ पैंतालिस लाख को पार कर गई है।  यदि इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो 320 साल चाहिए। इस बीच अदालतों में भ्रष्‍टाचार के मामले भी खूब उछल रहे हंै। ऐसे में अदालतों के सामाजिक सरोकार पर विचार होना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए माननीय आर.एस लोढा ने विचार जताया था कि मुकदमों के बढ़ते बोझ से निबटने के लिए अदालतों को 365 दिन काम करना चाहिए। इससे पहले अदालतों को दो सत्रों में लगाने की बात भी हो चुकी है। हालांकि वकीलों का मानना है कि 365 दिन काम करने से भी मुकदमों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला असल में मुकदमों की सुनवाई की प्रक्रिया, एक फैसला आने पर अपील का विकल्प और कानूनी प्रक्रिया का दिनों-दिन जटिल, महंगा आम आदमी की पहुंच से बाहर आना, ना केवल आम लोगों के दिल में न्याय-मंदिर के प्रति आस्था कम कर रहा है, साथ ही निराषा में और अपराध करने या खुद ही न्याय कर देने की प्रवृति को भी बढ़ावा दे रहा है।
JANSANDESH TIMES UP 21-1-15
बिहार में शंकर बिगहा के नृशस सामूहिक हत्याकांड में फैसला आया 19 साल बाद और नता चला कि उन 22 लोगों को किसी ने नहीं मारा था। मृतकों के परिवार, अभियुक्तों के कुल, की पीढि़यां बदल गईं, इलाके का भूगोल सियासत बदल गई, लेकिन न्याय नहीं मिला। इंदिराजी के मंत्रीमंडल में रेल मंत्री रहे ललित नारायण मिश्र की हत्या के मामले में फैसला आने में चालीस साल लगे। मुंबई धमाकों में पूरे 20 साल लग गए सुप्रीम कोर्ट तक फैसला आने में  इसी तरह एक मामला था सन 2000 में केरल मे ंनकली शराब पीने से 31 लोगों से हुई मौत का। पुलिस ने गैरइरादतन हत्या का मामला दर्ज किया और निचली अदालत ने इसके तहत दो साल की सजा सुना दी। मामला उच्च न्यायालय में गया और अदालत ने सजा बढ़ा कर पांच साल कर दी। आरोपी सुप्रीम कोर्ट गया, वहां न्यायमूर्ति आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की खंडपीठ ने उच्च न्यायालय की सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि दंड तो मानव जीवन की पवित्रता को स्वीकार करने वाला होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को दुख था कि 31 लोगों की मौत का कारण बने व्यक्ति को इतनी कम सजा हो रही है। यह बानगी है कि किस तरह निचली अदालतें मनमाने तरीके से अपराधियों की सजओं का निर्धारण करती हैं यह बात अब किसी से दबी-छुपी नहीं है कि जिला स्तर पर अदालतों में जम कर लेन-देन हो रहा हे। कई बार तो चर्चित अपराधों में सजा के फैसले इस तरह लिखने के मोल-भाव हो जाते हैं कि जब उसकी अपील ऊंची अदालत में जाए तो आरोपी को बरी होने में मदद मिल जाए। एक अन्य मामले का जिक्र करना जरूरी है जिसमें जयपुर यूनिवस्रिटी के जेसी बोस हाॅस्टल में कोई पंद्रह साल पहले एक राह चलती लड़की को अगवा कर ले जाया गया था और डेढ़ दर्जन लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था। 05 सितंबर 1997 कांे अपराध हुआ और मामले की जिला अदालत में सुनवाई पूरी हुई 25 अक्तूबर 2012 को पंद्रह साल बाद नौ लोग इस मामले में बरी कर दिए गए , जबकि आठ को 10 साल की सजा सुनाई गई। जरा सोचिए कि न्याय पाने के लिए उस 21 साल की लड़की को अपने प्रौढ होने का इंतजार करना पड़ा। हो सकता है इस बीच उसकी नौकरी लग गई हो, उसका परिवार हो बच्चे हो। वहीं आधे आरोपी छूट गए और सजा पाए आरोपियो के पास भी अभी उच्च न्यायालय जाने का विकल्प खुला है। क्या कोई आम आदमी इतनी लंबी कानूनी लड़ाई के लिए आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और व्यावहारिक तौर पर सक्षम होता है ?
देश की सड़कों पर आए रोज दिखने वाला आम आदमी का गुस्सा भले ही उस समय महज पुलिस या व्यवस्था का विरोध नजर आता हो, हकीकत में यह हमारी न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है - लोग अब महसूस कर रहे हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर ही है। यह बात भी लोग अब महसूस कर रहे हैं कि हमारी न्याय व्यवस्था में जहां अपराधी को बचने के बहुत से रास्ते खुले रहते हैं , वहीं पीडि़त की पीड़ा का अनंत सफर रहता है। हाल ही में देश की सुप्रीम कोर्ट ने हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली पर ही सवाल खड़े करते हुए कहा है कि  निचली अदालतों के दोशी को दी जाने वाली सजा के निर्धारण के लिए कोई विधायी या न्यायिक दिषा-निर्देश ना होना हमारी न्याय प्रणाली की सबसे कमजोर कड़ी है। कई मामाले पहले दस साल या उससे अधिक निचली अदालत में चलते हैं फिर उनकी अपील होती रहती है। कुछ मिला कर एक उम्र बीत जाती है, न्याय की आस में वहीं लंपट और पेशेवर अपराधी न्याय व्यवस्था की इस कमजोरी का फायदा उठा कर कानून से बैखोफ बने रहते हैं।
देशभर में हो रहे मौजूदा प्रदर्षनों में फास्ट-ट्रैक अदालतों या जल्दी फैसले का जिक्र हो रहा है। अभी पिछले साल ही मध्यप्रदेश के धार जिले में हत्या के एक मामले में एक महीने के भीतर आरोपियों को सजा सुना दी गई। राजस्थान में भी 21 दिन में फैसले हुए हैं। जाहिर है कि अदालतों में जल्दी फैसले सकते हैं। साफ नजर आता है कि आखिर मामलों को लंबा खींचने में किसके स्वार्थ निहित होते हैं। आजादी के बाद चुने हुए प्रतिनिधियों, नौकरशाही ने किस तरह आम लोगों को निराश किया,इसकी चर्चा अब मन दुखाने के अलावा कुछ नहीं करती है यह समाज ने मान लिया है कि ढर्रा उस हद तक बिगड़ गया है कि उसे सुधरना नामुमकिन है भले  ही हमारी न्याय व्यवस्था में लाख खामियां हैं, अदालतों में इंसाफ की आस कभी-कभी जीवन की संास से भी दूर हो जाती है इसके बावजूद देश को विधि सममत तरीके से चलाने के लिए लोग अदालतों को उम्मीद की आखिरी किरण तो मानते ही हैं बीते कुछ सालों से देश में जिस तरह अदालत के निर्देशों पर सियासती दलों का रूख देखने को मिला हैै, वह केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे संभावना जन्म लेती है कि कहीं पूरे देश का गणतंत्रात्मक ढ़ांचा ही पंगु हो जाए
यह विडंबना है कि देश का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निष्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है। पुलिस और प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावशाली लोग पुलिस को अपने इषारों परनचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और शोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। देशभर की अदालतों में वकील साल में कई दिन तो हडताल पर ही रहते हैं, यह जाने बगैर कि एक पेषी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। यह भी कहना गलत ना होगा कि बहुत से मामलों में वकील खुद ज्यादा पेषी की ज्यादा फीस के लालच में केस को खींचते रहते हैं।
देश की बड़ी और घनी आबादी, भाषाई, सामाजिक और अन्य विविधताओं को देखते हुए मौजूदा कानून और दंड देने की प्रक्रिया पूरी तरह असफल रही है। ऐसे में कुछ सिनेमा याद आते हैं- 70 के दशक में एक फिल्म में हत्या के लिए दोशी पाए गए राजेश खन्ना को फरियादी के घर पर देखभाल करने के लिए रखने पर उसका ह्दय परिवर्तन हो जाता है। अभिशेक बच्चन की एक फिल्म में बड़े बाप के बिगड़ैल युवा को एक वृद्धाश्रम में रह कर बूढ़ों की सेवा करना पड़ती है।  वैसे पिछले साल दिल्ली में एक लापरवाह ड्रायवर को सड़क पर खड़े हो कर 15 दिनों तक ट्राफिक का संचालन करने की सजा वाला मामला भी इसी श्रंखला में देखा जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसी व्यावहारिक सजा को बाद में बड़ी अदालत ने कानूनसम्मत ना मानते हुए रोक लगा दी थी। मोटर साईकलों पर उपद्रव काटने वाले सिख युवकों को कुछ दिनों के लिए गुरूद्वारे में झाड़ू-पोंछा करने का सजा की भी समाज में बेहद तारीफ हुई थी।
क्या यह वक्त नही गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ?आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, हडताल जैसी हालत में तारीख आगे बढाने की जगह वकील को दंडित करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्‍वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। ऊंची फीस लेने वाले वकीलों का एक वर्ग ऐसी सिफारिशों को अव्यावहारिक और गैरपारदर्शी या असंवदेनशील करार दे सकता है, लेकिन देशभर में सडकों पर उतरे लोगों की भावना ऐसी ही है और लोकतंत्र में जनभावना ही सर्वोपरि होती है।

पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
गाजियाबाद 201005




201005
गाजियाबाद 201005




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...