स्वच्छता सर्वे : पटना फिसड्डी तो इंदौर अव्वल कैसे?
स्वच्छता सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश का इंदौर लगातार चौथे साल अवल रहा तो दस लाख से ज्यादा आबादी वाले 47 शहरों में बिहार की राजधानी पटना का नाम सबसे अंत में था।
यदि इंदौर को बारीकी से देखें तो स्पट हो जाएगा कि जब तक किसी शहर के लोगों में स्थानीयता पर गर्व का भाव नहीं होता, तब तक उसकी देखभाल का स्व:स्फरूत संकल्प उभरता नहीं है।
प्रशासनिक प्रयास अपनी जगह, लेकिन जब निवासी खुद ठान लेते हैं तभी स्वच्छता जैसा कार्य कोई बंधन नहीं, कर्तव्य बन जाता है। हालांकि पटना ने देश के कुल 4242 शहरों के स्वच्छता सर्वे में पिछली बार के 318वें स्थान से 105 वें पर छलांग लगाई है, लेकिन गौर करना होगा कि बिहार की राजधानी को स्वच्छता रैंकिग की अंकतालिका में 6000 में से मात्र 1552.11 अंक ही मिले। एक तो इस शहर का ओडीएफ अर्थात खुले में शौच मुक्ति प्रमाणित नहीं हो पाया, दूसरा यहां कचरा प्रबंधन बदतर हालत में है। पिछले दिनों एक सांसद महाकाल मंदिर के दर्शन करने के लिए इंदौर एयरपोर्ट पर उतरे और बाहर निकलते ही उन्होंने अपने बैग पर लगा टैग फाड़ कर फेंक दिया। उनकी टैक्सी का ड्राइवर तत्काल लपका, कागज उठाया व कूड़ेदान में डाल दिया।
इंदौर में भी 2015 तक बीते 60 साल से जमा कोई 15 लाख टन कूड़े के ढेर जमा थे। आज कोई भी ढेर बकाया नहीं, सारे कूड़े को मिट्टी में बदल दिया गया। यहां भी खुले में शौच की मजबूरी या आदत थी। जगह-जगह साफ-सुथरे सार्वजनिक शौचालयों ने लोगों की यह आदत बदली। एक तो यहां लोगों को जागरूक करने में समाज सफल रहा, फिर अधिकारियों ने भी जासूस जैसा काम किया। यदि कहीं कूड़ा पड़ा मिल जाए तो कलेक्टर स्तर के अधिकारी खुद खोजते थे कि यह है कहां का? एक कूड़े को उसमें पड़े टिशु पेपर से पहचाना व उस होटल पर पचास हजार का जुर्माना किया गया, जिसका नाम उस टिशु पेपर पर छपा था। इंदौर में कूड़े का निस्तारण खर्चीला नहीं बल्कि आय का साधन बन गया है। आम लोग तो गीला व सूख कूड़ा अलग करते ही हैं ,यहां मशीनों से 12 किस्म के कूड़े को छांटा जाता है। इस कूड़े से ईटें व इंटरलाकिंग टाइल्स, कंपोस्ट खाद आदि बनाया जा रहा है, जिससे निगम को आय हो रही है। इस धन का इस्तेमाल सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव व हरियाली के विस्तार में किया जा रहा है। जहां तक पटना की बात है; उसके लिए पिछले साल महानगर में आई बाढ़ बानगी है। स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल लगभग 109 वर्ग किलोमटर में फैले पटना शहर की कुल धरती का साठ प्रतिशत आवासीय क्षेत्र है। यहां हर दिन लगभग एक हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा होता है और नगर निगम की अधिकतम हैसियत बामुश्किल 600 मीट्रिक टन कूड़ा उठाने या उसका निबटारा करने की है। यह भी दुखद है कि निबटारे के नाम पर नदी के किनारे या उसकी जल धारा में उसे प्रवाहित कर देने का अघोषित काम तो गंगा को उथला बना ही रहा था, हर दिन औसतन 400 मीट्रिक टन कूड़ा शहर की नालियों, ड्रैन, सीवर में जज्ब कर दिया जाता था। उधर शहर के अशोधित गंदे पानी के 33 नाले गंगा में गिरते हैं। पिछले साल बरसात हुई तो कूड़े से भरे नाले व सीवर उफन गए। जब शहर में पानी भरने लगा तो कोशिश हुई कि ड्रैनेज को हाई कंप्रेशर से साफ करवाएं ताकि पानी की निकासी सुचारू हो। विडंबना कि नगर निगम के पास शहर की नालियों के नेटवर्क का नक्शा सन 2017 में गुम हो गया था। पटना शहर से कचरा उठाने व निस्तारण के लिए सन 2009 से तीन कंपनियां हाथ आजमा चुकी हैं।
इस समय एक अमेरिकी कंपनी के पास इसका ठेका है। इसे रामचक बेरिया में कई एकड़ का डंपिंग मैदान दिया गया है, जहां दूर-दूर तक बदबू और बेतरतीब कूड़ा फैला दिखता है। हालांकि इस कंपनी का भी कूड़े से बिजली बनाने व कूड़े को मिट्टी में बदल देने की तकनीक का वायदा है, लेकिन अभी तक जमीन पर कुछ होता दिखा नहीं। यह दुखद है कि पटना में अभी तक गीला व सूखा कचरा अलग-अलग एकत्र नहीं हो पा रहा है। इसके लिए आम लोगों में जागरूकता का बहुत अभाव है। कभी यहां दो रंग के डस्ट बीन लगाए गए थे जो अब नदारद हैं। सबसे बुरी हलात तो सार्वजनिक शौचालयों की है, जो या तो टूटे हैं या पर्याप्त जल-प्रबंधन ना होने के कारण गंदे। पटना को इंदौर बनने के लिए सबसे पहले स्थानीयता पर गर्व व संरक्षण करने का भाव पैदा करना होगा इसमें लेखक, कलाकार, शिक्षक व समाज के सभी प्रबुद्ध वर्ग को काम करना होगा। जब जनता जागरूक होगी तो स्थानीय निकाय को मजबूरी में स्वच्छता योजनाओं को कागजों से क्रियान्वयन के कैनवास पर लाना ही होगा।
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