My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 21 जून 2023

environment conservation in temples

 पर्यावरण संरक्षण के साथ देवोपासना के उदाहरण देवालय !

पंकज चतुर्वेदी



यह परम्परा भी है और संस्कार भी, .जयपुर के परकोटे में स्थित ताड़केश्वर मंदिर की खासियत है कि यहाँ शिव लिंग पर चढ़ने वाले पानी को नाली में बहाने के बनिस्पत ,एक चूने के बने कुंड , जिसे परवंडी कहते है , के जरिये धरती के भीतर एकत्र किया जाता है । यह प्रक्रिया उस इलाके के भूजल के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है।  हो सकता है कि प्राचीन परम्परा में शिव लिंग पर जल चढ़ा़ने का असली मकसद इसी तरह भविष्य के प्रकृति-प्रकोप के हालात में जल को सहेज कर रखना हुआ करता हो । उस काल में मंदिरों में नाली तो होती नहीं थी , यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम व्यय में शुरू किया जा सकता है । यदि दस हज़ार मंदिर इसे अपनाते हें और हर मंदिर में औसतन एक हज़ार लीटर पानी प्रति दिन शिवलिंग पर आता है तो गणित लगा लें हर महीने कितने अधिक जल से धरती तर रहेगी ।



जयपुर के इस शिव मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शिवजी की प्रतिमा भूमि के भीतर से अवतरित हुई है। चौड़ा रास्ता स्थित इस मंदिर का निर्माण 1784 ईस्वी में किया गया था। उस वक्त यहां धुंधरमीनाज गांव हुआ करता था। मुख्य शिवलिंग काले पत्थर का बना है। इसका व्यास 9 इंच है। इस मंदिर से पाराशर व्यास परिवार का संबंध हैं और नित्य पूजा अर्चना इसी परिवार द्वारा की जाती है। मंदिर का फर्श संगमरमर का है। चौक के पास ही जगमोहन सभा हॉल है। इस हॉल में चार विशाल घंटे हैं, जिनमें प्रत्येक का वजन 125 किलोग्राम है। यहां एक पीतल का नंदी बैल है और गणेशजी की भी प्रतिमा है, जिनकी सूंड बाईं ओर है। 


षायद इसी मंदिर से प्रेरणा पा कर जयपुर के ही एक ज्योतिषी और सामाजिक कार्यकर्ता ने पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले दो दषकों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जलसंरक्षण ढांचे का विकास किया है। समाज सेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए गौड़ को महाराणा मेवाड़ अवार्ड समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। श्री गौड़ ने वर्ष 2000 में उन्होंने अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया। वे मंदिरों में 30 फुट गहरा गढडा बनवाते हैं और षिवलिग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजार कर जमीन में उतारते हैं। इसके अलावा प्रतिमाओं पर चढाए जाने वाले दूध को जमा करने के लिए पांच फुट के गड्ढे की अलग से जरूरत पड़ी। हिसाब लगाया गया था कि शहर में 300 से ज्यादा मंदिर हैं जहां श्रावण महीने में रोजाना कम से कम चार करोड़ 50 लाख लीटर जल भगवान शिव व अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाओं पर अर्पित किया जाता है। इससे जल संरक्षण तो हुआ ही मंदिरों के आसपास रहने वाली कीचड़, गंदगी से भी छुटकारा मिला। 


ठीक ऐसा ही प्रयोग लखनऊ के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग मंदिर में भी किया गया। यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक के बाद जल नालियों के बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है। कोई 160 साल पुराने इस मंदिर का  वर्ष 2014 में मंदिर का जीर्णाद्धार किया गया। 12 ज्योतिर्लिग की स्थापना उनके मूल स्वरूप के अनुसार की गई है। यहां करीब 40 फीट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है जबकि दूध और पूजन सामग्री को अलग इस्तेमाल किया जाता है। बेलपत्र और फूलों को एकत्रित कर खाद बनाई जाती है। चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है। यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ते का निर्माण किया गया है। यहां चढ़े फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है। वहीं बेलपत्र और अन्य पूजन सामग्री को खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बड़ा शिवाला और छोटा शिवाला में चढ़ने वाले दूध की बनी खीर भक्तों में वितरित की जाती है और जल को भूमिगत किया जाता है।



मध्यप्रदेष के षजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते। इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है। इसके लिए केंचुए लाए गए हैं। इस खाद को पास के गांव वाले श्रद्धा स ेले जा रहे हें और अपने खेतों में इस आस्थ के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं कि देवी कृपास ेउनकी फसल अच्छी रहेगी। यहां पर खाद बनाने के लिए मंदिर प्रांगण में चार चक्रीय वर्मी कम्पोस्ट यूनिट का शेड सहित निर्माण किया गया है. मंदिर में नित्य आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा फूल व मालायें चढ़ाई जाती हैं। पहले उन फूल व मालाओं को नदी में फेंका जाता था जिससे नदी भी दूशित होती थी। मंदिर प्रांगण में वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए 12 फीट लम्बाई 12 फीट चौड़ाई व 2.5 फीट गहरे चार टांके बनाए गए है, जिसके बीच की दीवार जालीनुमा बनाई गई है. इनके ऊपर छाया हेतु टीन शेड भी बनाए गए. सबसे पहले प्रथम टांके में मंदिर में इकट्ठा होने वाला फूलों आदि का कचरा एकत्रित किया गया. जिसे एक माह सड़ने देने के बाद उसमें केचूएं डाले गए. । यह प्रक्रिया तीसरे एवं चौथे टांके के लिए भी अपनाई गई । इस चक्रीय पद्धति में चौथे महीने से बारहवें महीने तक हर महीने लगभग 500 किलो खाद मिलना प्रारंभ हो गई। इस प्रकार 8 महीनों में 4000 किलो जैविक खाद तैयार हो रही है। इस प्रकार रोज एकत्रित होने वाले फूल व मालाओं के कचरे जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया सतत चलते रहेगी। तैयार होने वाली इस खाद में पोषक तत्वों व कार्बनिक पदार्थों के अलावा मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में होते हैं. यह खाद डालने से मिट्टी में समस्त प्रकार के पोषक तत्वों की मात्रा उपलब्धता बढ़ती है और मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बढ़ती है. जिससे फसलों एवं पौधों का सर्वांगीण विकास होकर उत्पादित फसल स्वास्थ्य हेतु लाभप्रद होती है।


मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मषहूर झंडेवालाना मंदिर में भी हो रहा है। इसके अलावा देवास, ग्वालियर, रांची के पहाड़ी मंदिर सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कंपोस्ट में बदला जा रहा है। अभी जरूरत है कि मंदिरों में पॉलीथीन थैलियों के इस्तेमाल, प्रसाद की बर्बादी पर भी रोक लगे। इसके साथ ही षिवलिंग पर दूध चढ़ाने के बनिस्पत उसके अलग से एकत्र कर जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। 


यह जानना जरूरी है कि भगवान को पुष्प या बेल पत्र चढ़ाने से भगवान के प्रसन्न होने की परंपरा असल में आम लोगों को अपने घर में हरियाली लगाने को प्रेरित करने का प्रयास  था। विडंबना है कि अब लोग या तो बाजार से फूल खरीदते हें या फिर दूसरों की क्यारियों से उठा लेते है।। काश हर मंदिर यह अनिवार्य करेंं कि केवल स्वयं के बगीचे या गमले में लगाए फूल ही भगवान को स्वीकार करे जाएंगे तो हर घर में हरियाली का प्रसार सहजता से हो जाएगा। 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...