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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

Experiments like Kashi-Tamil Sangam across the country are necessary for cultural awareness.

 

सांस्कृतिक संचेतना के लिए जरुरी है देशभर में काशी-तमिल संगमम जैसे प्रयोग

पंकज चतुर्वेदी



 

‘‘तमिलनाडु से काशी आने का मतलब है महादेव के एक घर से उनके दूसरे घर तक आना। तमिलनाडु से काशी आने का मतलब है मदुरै मीनाक्षी के स्थान से काशी विशालाक्षी के स्थान तक आना।'' प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘‘तमिलनाडु और काशी के लोगों के दिलों में जो प्यार और बंधन है, वह अलग और अनोखा है। मुझे यकीन है, काशी के लोग आप सभी की मेहमान नवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। जब आप जाएंगे तो अपने साथ बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद, काशी का स्वाद, संस्कृति और यादें भी लेकर जायेंगे।'' काशी तमिल संगम के दूसरे संस्करण का शुभारम्भ करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने जो कहा वह  , वास्तव में हमारे देश के विभिन्न  अंचलों के साझा ज्ञान, साझा परम्पराओं को सशक्त करने का सूत्र है . यह सच है कि भारत में राज्यों का विभाजन पहले भाषा और उसके बाद स्थानीय संस्कृति के आधार पर हुआ लेकिन  दुखद है कि बहुत से राज्य , देश के ही अन्य हिस्सों को भलीभांति समझा नहीं पाए .हालांकि हमारे देश में ढेर सारी विविधता के बावजूद अतीत- सूत्र सभी को साथ बांधते हैं .  बनारस में  तमिलनाडु का 15 दिन का उत्सव उस समय  को उत्खनित करता है , जिसकी जानकारी के अभाव में कभी तमिलनाडू में हिंदी या उत्तर भारतीय विरोधी स्वर देखा जाता था . जैसे जैसे बैंगलुरु और हैदराबाद में बहुराष्ट्रीय कंपनियां आईं और वहाँ देशभर के लोग नौकरी के लिए पहुँचने लगे , अकेले भाषा ही नहीं, संस्कृति , पर्व-त्योहार, मान्यताओं के कई अनछुए पहलू सामने आने लगे ।



विदित हो इस बार काशी संगमम में भाग लेने के लिए छह तरह के समूह बनाए गए हैं . शिक्षकों के दल को यमुना नदी का नाम दिया गया है तो पेशेवर लोग गोदावरी के नाम से बने दल में शामिल हैं . अध्यात्म से जुड़े लोग  सरस्वती समूह में हैं और  किसान और कारीगर के समूह का नाम नर्मदा है . सिन्धु  नदी के दल में लेखक शामिल हैं और  व्यापारी गन के लिए कावेरी दल बनाया गया है . इस तरह दक्षिण और उत्तर की जल-निध्यों- नदियों को  एकसाथ प्रस्तुत कर जल की तरह सांस्कृतिक  प्रवाह की संकल्पना की गई है .

 

सदियों से बनारस शिक्षा, धर्म और व्यापार के लिए देश ही नहीं दुनियाभर के लोगों की आगमन का केंद्र रहा है . यहाँ आज भी तमिलनाडु से कोई 200 साल पहले आ कर  बसे कई सौ परिवार हैं जो अब  काशी के कण-कण में रच पग गए हैं . सुब्रमण्यम भारती जैसे दिग्गज काशी में रहे, उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी और स्थानीय संस्कृति को समृद्ध किया और तमिल में व्याख्यान दिए। काशी संगमम  जैसे आयोजन भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृतियों का उत्सव है। यह विभिन्न राज्यों के समान सांस्कृतिक संबंधों  की खोज  और एक भारत, श्रेष्ठ भारत के संदेश को बढ़ाने के लिए दिशा प्रदान करता है। इन दो धाराओं के सम्बन्ध पांड्यों के प्राचीन काल से लेकर काशी के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक बीएचयू की नींव तक रहे है . और वर्तमान में दोनों के बीच संबंध,  शिक्षा की आदरणीय पीठ के रूप में सजीव हैं .


 

अतीत में झांकें तो  स्पष्ट होता है कि देह में मानव सभ्यता की विकास यात्रा में काशी और तमिलनाडु दोनों ही शिक्षा और शोध ,सजीव भाषाई परंपरा के विकास और अध्यात्म के प्रसार में समान सहभागी रहे हैं । 15वीं शताब्दी में, शिवकाशी की स्थापना करने वाले राजवंश के वंशज राजा अधिवीर पांडियन ने दक्षिण-पश्चिमी तमिलनाडु के तेनकासी में उन भक्तों के लिए शिव मंदिर बनवाया, जो काशी की यात्रा नहीं कर सकते थे। उसके बाद , 17 वीं शताब्दी में तिरुनेलवेली में पैदा हुए श्रद्धेय संत कुमारगुरुपारा ने काशी पर कविताओं की व्याकरणिक रचना “काशी कलमबकम” लिखी और कुमारस्वामी मठ की स्थापना की। इस आदान-प्रदान ने न केवल दो क्षेत्रों के लोगों को अलग-अलग रीति-रिवाजों से परिचित कराया, बल्कि इसने परंपराओं के बीच की सीमाओं को इतना सहज  और गतिशील बना दिया, जिससे वे  एक - दूसरे में समाहित होते थे। काशी और तमिलनाडु दोनों महत्वपूर्ण मंदिरों के  शहरों के रूप में उभरे हैं, जिनमे  काशी का  विश्वनाथ मंदिर और रामनाथस्वामी मंदिर जैसे सबसे शानदार मंदिर शामिल हैं।

कैसा सुखद संयोग है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में दक्षिण से महान वैज्ञानिक सीवी रमन उपस्थित थे और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे। काशी और चेन्नई दोनों को यूनेस्को द्वारा “संगीत के सृजनात्मक शहरों” के रूप में मान्यता दी गई है और इस शानदार संबंध को इस रूप में देखा जा सकता है कि महान गायक, अभिनेत्री और भारत रत्न से सम्मानित एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने  काशी की प्रसिद्ध हिंदुस्तानी गायिका सिद्धेश्वरी देवी से संगीत सीखा था।

तमिलनाडु के कोने –कोने से आये  विभिन्न वर्ग के लोग जब काशी की भव्यता . अपनी संस्कृति से समानता  और स्थानीय लोगों का प्रेम पाते हैं तो उनके मन में घर किये कई पूर्वाग्रह भी स्वतः  मिट जाते हैं .

इस समय अनिवार्य है कि काशी की ही तरह कश्मीर या  अरुणाचल प्रदेश या फिर मणिपुर  और नासिक में इस तरह की  आयोजन हों, जिनमें किन्ही दो ऐतिहासिक शहरों -नदियों- सांस्कृतिक धरोहरों के बीच सामंजस्य के बात हो. इस तरह के आयोजन कम से कम 15 दिन होने से यह फायदा होता है कि आगंतुक , अतिथि भाव से मुक्त हो कर स्थानीयता को अपने नज़रिए से आंकता-देखता है . ऐसे आयोजन देश के दो सिरों, उत्तर और दक्षिण या पूर्व-उत्तर के मिलन का प्रतीक होंगे . दो हफ्ते तक छात्र, शिक्षक, किसान , लेखक सभी क्षेत्रों के पेशेवर, और संस्कृति और विरासत के विशेषज्ञ एक साथ आयें  और इस साझा विरासत के सार को जीवित रखने का प्रयास करते हुए उसे प्रासंगिक बनाने के लिए प्रयास करें। जब हमें विरासत में इस तरह का जीवंत इतिहास और जुड़ाव मिला हो तो इसका संरक्षण सर्वोपरि हो जाता है। यह अनिवार्य है कि इस साझा विरासत का ज्ञान युवा पीढ़ी को दिया जाए और उन्हें भारत की सांस्कृतिक और सभ्यतागत लोकाचार के बारे में एक दृष्टिकोण प्रदान किया जाए। आज भी मध्यप्रदेश या  उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में पूर्वोत्तर भारत के लोग अजनबी से हैं । महाराष्ट्र में  कश्मीर अजनाना सा है , काश हर राज्य हर साल किसी एक अन्य राज्य का ऐसा ही संगमम अलग अलग शहरों, खासकर राजधानी से दूर के शहरों में आयोजित करे । लोग स्थानीयता से परिचित हों, अपने राज्य से साम्य  और विविधता को देखें – समझने के बाद उसे शास्वत तरीके से स्वीकार करें और “एक भारत-श्रेष्ठ  भारत “ की संकल्पना को साकार करें ।

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