राजनीतिः असम क्यों सुलग रहा है
बांग्लादेश को छूती हमारी जमीनी और जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसका फायदा उठाकर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आते रहे हैं। विडंबना यह है कि हमारी अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कहकर उसे वापस लेने से इनकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं है।
बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानी एनआरसी का पहला प्रारूप आते ही सीमावर्ती राज्य असम में तनाव बढ़ गया है। सूची में घोषित आतंकी व लंबे समय से विदेश में रहे परेश बरुआ, अरुणोदय दहोटिया के नाम तो हैं लेकिन दो सांसदों व कई विधायकों के नाम इसमें नहीं हैं। अपना नाम देखने के लिए केंद्रों पर भीड़ है, तो वेबसाइट ठप हो गई। इस बीच सिलचर में एक व्यक्ति ने अपना नाम न होने के कारण आत्महत्या कर ली। हजारों मामले ऐसे हैं जहां परिवार के आधे लोगों को तो नागरिक माना गया और आधों को नहीं।
हालांकि प्रशासन कह रहा है कि यह पहला प्रारूप है और उसके बाद भी सूचियां आएंगी। फिर भी कोई दिक्कत हो तो प्राधिकरण में अपील की जा सकती है। यह सच है कि यह दुनिया का अपने आप में ऐसा पहला प्रयोग है जब साढ़े तीन करोड़ से अधिक लोगों की नागरिकता की जांच की जा रही है। लेकिन इसको लेकर कई दिनों से राज्य के सभी कामकाज ठप हैं। पूरे राज्य में सेना लगा दी गई है।
असम समझौते के पूरे अड़तीस साल बाद वहां से अवैध बांग्लादेशियों को निकालने की जो कवायद शुरू हुई, उसमें राज्य सरकार ने सांप्रदायिक तड़का दे दिया, जिससे भय, आशंकाओं और अविश्वास का माहौल है। असम के मूल निवासियों की कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वापस भेजा जाए। इस मांग को लेकर आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) की अगुआई में 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया था।
चुनाव के बाद जमकर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत तत्कालीन केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार, जनवरी 1966 से मार्च 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापस अपने देश जाना होगा। इसके बाद असम गण परिषद (जिसका गठन आसू के नेताओं ने किया था) की सरकार भी बनी। लेकिन इस समझौते को पूरे अड़तीस साल बीत गए हैं और बांग्लादेश व म्यांमा से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं, घुसपैठ करने वाले लोग बाकायदा भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
सन 2009 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एनआरसी बनाने का काम शुरू हुआ तो जाहिर है कि अवैध घुसपैठियों में भय तो होगा ही। लेकिन असल तनाव तब शुरू हुआ जब राज्य-शासन ने नागरिकता कानून संशोधन विधेयक विधानसभा में पेश किया। इस कानून के तहत बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है। यही नहीं, घुसपैठियों की पहचान का आधार वर्ष 1971 की जगह 2014 किया जा रहा है। जाहिर है, इससे अवैध घुसपैठियों की पहचान करने का असल मकसद तो भटक ही जाएगा। हालांकि राज्य सरकार के सहयोगी दल असम गण परिषद ने इसे असम समझौते की मूल भावना के विपरीत बताते हुए सरकार से अलग होने की धमकी भी दे दी है। हिरेन गोहार्इं, हरेकृष्ण डेका, इंदीबर देउरी, अखिल गोगोई जैसे हजारों सामाजिक कार्यकर्ता भी इसके विरोध में सड़कों पर हैं, लेकिन राज्य सरकार अपने कदम पीछे खींचने को राजी नहीं है।
बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसका फायदा उठाकर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आते रहे हैं, बस जाते रहे हैं। विडंबना यह है कि हमारी अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कहकर उसे वापस लेने से इनकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं है। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से अधिक पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत (अविभाजित) की आबादी में वृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिशत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसद दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, शिवसागर जिलों में म्यांमा व अन्य देशों से लोगों का आना शुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी तीस सालों में असम में केवल शिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां बहुसंख्यक आबादी असम मूल की होगी।
असम में विदेशियों के शरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 से 1971 के बीच 37 लाख 57 हजार बांग्लादेशी, जिनमें अधिकतर मुसलमान थे, अवैध रूप से असम में घुसे व यहीं बस गए। सन 1970 के आसपास अवैध शरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के तैंतीत मुसलिम विधायकों ने देवकांत बरुआ की अगुआई में तत्कालीन मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। शुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत-सी है जिस पर खेती नहीं होती है, और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं।
लेकिन आज हालात इतने बदतर हैं कि काजीरंगा नेशनल पार्क को छूते कई सौ किलोमीटर के राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जिनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकाचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने खराब हैं कि कोई आठ साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसकी छानबीन करने व फिर वापस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
एनआरसी के पहले मसौदे के कारण लोगों में बैचेनी की बानगी केवल एक जिले नवगांव के आंकड़ों से भांपी जा सकती है। यहां कुल 20,64,124 लोगों ने खुद को भारत का नागरिक बताने वाले दस्तावेज जमा किए थे। लेकिन पहली सूची में केवल 9,11,604 लोगों के नाम शामिल हैं। यानी कुल आवेदन के 55.84 प्रतिशत लोगों की नागरिकता फिलहाल संदिग्ध है। राज्य में 1.9 करोड़ लोग ही पहली सूची में हैं जबकि नागरिकता का दावा करने वाले 1.39 करोड़ लोगों के नाम नदारद हैं। ऐसी हालत कई जिलों की है। इनमें सैकड़ों लोग तो ऐसे भी हैं जो सेना या पुलिस में तीस साल नौकरी कर सेवानिवृत्त हुए, लेकिन उन्हें इस सूची में नागरिकता के काबिल नहीं माना गया। भले ही राज्य सरकार संयम रखने व अगली सूची में नाम होने का वास्ता दे रही हो, लेकिन राज्य में बेहद तनाव और अनिश्चितता का माहौल है। ऐसे में कुछ लोग अफवाहें फैला कर भी माहौल खराब कर रहे हैं।
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