आफत बनते आवारा मवेशी
पंकज चतुर्वेदी
देश के जिन इलाकांे मे सूखे ने दस्तक दे दी है और खेत सूखने के बाद किसानों व खेत-मजदूरों के परिवार पलायन कर गए हैं , वहां छुट्टा मवेशियों की तादात सबसे ज्यादा है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होनें वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेषी मर रहे हैं। आने वाले गर्मी के दिन और भी बदतर होंगे क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा।
बुंदेलखंड की मषहूर ‘‘अन्ना प्रथा’’ यानी लोगों ने अपने मवेषियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते । सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। पिछले दिनों कोई पांचह जार अन्ना गायों का रेला हमीरपुर से महोबा जिले की सीमा में घुसा तो किसानों ने रास्ता जाम कर दिया। इन जानवरों को हमीरपुर जिले के राठ के बीएनबी कालेज के परिसर में घेरा गया था और योजना अनुसार पुलिस की अभिरक्षा में इन्हें रात में चुपके से महोबा जिले में खदेड़ना था। एक तरफ पुलिस, दूसरी तरफ सशस्त्र गांव वाले और बीच में हजारों गायें। कई घंटे तनाव के बाद जब जिला प्रशसन ने इन गायों को जंगल में भेजने की बात मानी , तब तनाव कम हुआ। उधर बांदा जिले के कई गांवों में अन्ना पशुओं को ले कर हो रहे तनाव से निबटने के लिए प्रशासन ने बेआसरा पशुओं को स्कूलों के परिसर में घेरना शुरू कर दिया हे। इससे वहां पढ़ाई चौपट हो गई । वहीं प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेषी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे
भूखेे -प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं। किसानों के लिए यह परेषानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेषियों का झुंड चट कर जाता है।
पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का षिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेषियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दषक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेषी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल ससांधन हैं लेकिन वे अन्ना पषुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मंे कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि हिंदी पट्टी में तीन करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दषक पहले तक हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। षायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेषी के चरने पर रोक है। एक बात जान लें जब चरने की जहग कम होती है और मवेशी ज्यादा तो बंतरतीब चराई, जमीन को बंजर भी बनाती है। ठीक इसी तरह मवेािशयों के बउ़े झुंड द्वारा खेतों को बुरी तरह कुचलने से भी जमीन की उत्पादक मिट्टी का नुकसान होता है।
अभी बरसात बहुत दूर है। जब सूखे का संकट चरम पर होगा तो लोगों को मुआवजा, राहत कार्य या ऐसे ही नाम पर राषि बांटी जाएगी, लेकिन देष व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पषु-धन को सहेजने के प्रति षायद ही किसी का ध्यान जाए। अभी तो औसत या अल्प बारिष के चलते जमीन पर थोड़ी हरियाली है और कहीं-कहीं पानी भी, लेकिन अगली बारिष होने में अभी कम से कम तीन महीना हैं और इतने लंबे समय तक आधे पेट व प्यासे रह कर मवेषियों का जी पाना संभव नहीं होगा। बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेषी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पषु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनषील लोग नहीं होंगे, मवेषी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।
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