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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

Chhath festival: water resources should conserved throughout the year


                              छठ पर्व : काश सालभर जल-निधियों को सहेजा होता

पंकज चतुर्वेदी


दिल्ली है ही इसी लिए क्योंकि इसके बीच से यमुना बहती है  लेकिन  इस बार छठ का स्नान या पूजा यमुना में नहीं हो पाएगी . सारी दिल्ली में  अस्थाई तालाब बनाए जा रहे हैं . इसके लिए राज्य सरकार पैसा बाँट रही है .  पिछले साल 9 अक्टूबर, 2021 को  दिल्ली सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर   यमुना में छठ पर्व पर रोक लगी थी . कुछ संगठनों ने इस अधिसूचना को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती देते हुए तर्क दिया गया कि इस   अधिसूचना से  दिल्ली के लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता हैं . अभी 9 नवम्बर 23 को अदालत ने याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने टिप्पणी की कि प्रतिबंध यमुना में प्रदूषण को रोकने के लिए लगाया गया है। दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद की हिंडन नदी नाम की ही बची है , इसे नाबदान कहना बेहतर होगा. चूँकि यहाँ कई लाख पूर्वांचलवासी हैं सो इसे गंग- नहर से  थोडा सा पानी डाल कर तीन दिन को जिलाया जाएगा .

 यह विचार करना होगा कि जिस नदी के लिए सारे साल समाज बेपरवाह रहता है ,उसके घाटों पर झाड़ू- बुहारू होने लगी है . कहने को वहां  स्थाई पूजा के चबूतरे हैं लेकिन साल के 360 दिन यह  सार्वजनिक शौचालय अधिक होता है . जैसे ही पर्व का समापन ओता है . जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते काला-बदबूदार नाला बन जाती है.  बस नाम बदलते जाएँ  देश के अधिकाँश नदी  और तालाबों की यहो गाथा है . सामाज कोशिश करता है कि  घर से दूर अपनी परम्परा का जैसे तैसे पालन हो जाये- चाहे सोसायटी के स्विमिंग पूल में या फिर  अस्थाई बनाए गए कुंड में, लेकिन वह बेपरवाह रहता है कि असली छठ  मैया  तो उस  जल-निधि की पवित्रता में बसती है जहाँ  उसे सारे साल सहेज कर रखने की आदत हो .

यह ऋतू के संक्रमण काल का पर्व है ताकि कफ-वात और पित्त दोष को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित किया जा सके  और इसका मूल तत्व है जल- स्वच्छ जल . जीवनदायी कहलाने वाला यदि जल यदि स्वच्छ नहीं है तो जहर है .

छठ पर्व वास्तव में बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों पर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सकें, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिशबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने।

अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें , संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें । इसकी जगह अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में व्रत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूषित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेसही  और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।

बिहार में सबसे बड़ा पर्व तो छठ ही है . वहां की नदियों के हालात भी यमुना- हिंडन से ही हैं . जलवायु परिवर्तन का सर इस राज्य पर भारी है सो, नदियों में अभी से पानी की मात्रा कम है .  लोगों को छोटी जल निधियों का सहारा है . जान लें बिहार में कोई एक लाख छः हज़ार तालाब, 34 सौ आहर और लगभग 20 हजार जगहों पर नहर का प्रवाह है।  लेकिन दिल्ली , जहां कोई एक तिहाई आबादी  पूर्वांचल की है . यमुना में छठ का अर्ग देने पर सियासत हो रही है, पिछले कुछ सालों झाग वाले दूषित यमुना- जल में  महिलाओं के सूर्योपासना के चित्रों ने दुनिया में किरकिरी करवाते हैं . इस बार दिल्ली में  कोई 400  अस्थाई तालाब बनाए जा रहे हैं  और इसके लिए हर वार्ड को चालीस हज़ार रूपये दिए जा रहे हैं , ताकि  लोग यमुना के बजाये  वहां छठ पर्व मनाएं – यहीं एक सवाल उठाता है कि इन तालाबों  या कुंड को नागरिक समाज को सौंप कर इन्हें स्थाई क्यों नहीं किया जा सकता  ?

हमारे पुरखों ने जब  छट जैसे पर्व की कल्पना की थी तब निश्चित ही उन्होंने  हमारी जल निधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा व आस्था से सहेजने  के जतन के रूप में स्थापित किया होगा।

छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेराका भाव।

सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाशय से टकरा कर अपने शरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। व्रत करने वाली महिलाओं के भोजन  में कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्शियम को पचाने में भी मदद करता है। तप-व्रत  से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मष्तिष्क से दूर रहते हैं।

काश , छट पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, सव्च्छता के संदेष को आस्था के साथ व्याहवारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देश  भर की जल निधियों को हर महीने  मिल-जुल कर स्वच्छ बनाने का, देशभर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की शपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।

 

 

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