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शुक्रवार, 26 जून 2020

why not fair inquiry of inquiry of Delhi riots

फिर क्यों ना हो दिल्ली दंगों के जांच की जांच

                                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी
इसे हमारे मित्र अमलेंदु उपाध्याय के न्यूज पोर्टल "हस्तक्षेप" पर भी देख सकते हैं https://www.hastakshep.com/delhi-riots-investigation/ 
दिनांक 20 जून, 2020: दिल्ली की एक अदालत में फ़ैसल को जमानत देने वाले जज विनोद यादव ने कहा कि इस मामले के गवाहों के बयानों में अंतर है और मामले में नियुक्त जांच अधिकारी ने ख़ामियों को पूरा करने के लिए पूरक बयान दर्ज कर दिया है। अदालत ने अपने आदेश में कहा, ‘जांच अधिकारी ने इन लोगों में से किसी से भी बात नहीं की और सिर्फ़ आरोपों के अलावा कोई भी ठोस सबूत नहीं है, जिसके दम पर यह साबित किया जा सके कि फ़ैसल ने इन लोगों से दिल्ली दंगों के बारे में बात की थी।’
विदित हो राजधानी पब्लिक स्कूल जो कि दिल्ली के दंगों में पूरी तरह आग के हवाले कर दिया गया था, लेकिन उसके संचालक फैसल फारूक को पुलिस ने दंगों का मुख्य सूत्रधार, षड्यंत्रकर्ता  और  आयोजक बना कर 8 मार्च को गिरफ्तार  कर जेल भेज दिया। पुलिस ने यह भी दावा किया था कि फ़ारूक़ के कहने पर ही दंगाइयों ने राजधानी स्कूल के बगल में स्थित डीआरपी कॉन्वेन्ट स्कूल, पार्किंग की दो जगहों और अनिल स्वीट्स में भी सोच-समझकर तोड़फोड़ की थी।
29 मई 2020: दिल्ली हाई कोर्ट ने फिराज खान नामक एक अभियुक्त को जमानत देते हुए पुलिस से पूछा कि आपकी प्रथम सूचना रिपोर्ट में तो 250 से 300 की गैरकानूनी भीड का उल्लेख है। अपने उसमें से केवल फिरोज व एक अन्य अभियुक्त को ही कैसे पहचाना? पुलिस के पास इसका जवाब नहीं था और फिरोज को जमानत दे दी गई।
27 मई 2020: दिल्ली पुलिस की स्पेषल ब्रांच ने साकेत कोर्ट में जज धर्मेन्द्र राणा के सामने जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तनहा पेश किया गया था। इस ममले में भी आसिफ को न्यायिक हिरासत में भेजते हुए जज ने कहा कि दिल्ली दंगों की जांच दिशाहीन है । मामले की विवेचन एकतरफा है । कोर्ट ने पुलिस उपायुक्त को भी निर्देश दिया कि वे इस जांच का अवलोकन करें ।
25 मई 2020:  पिंजड़ा तोड़ संगठन की नताशा और देवांगना को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के सामने प्रदर्शन करने के आरोप में गिरफ्तार किया। अदालत ने कहा कि उन्होंने प्रदर्शन करने का कोई गुनाह नहीं किया इसलिए उन्हें जमानत दी जाती है । यही नहीं अदालत ने धारा धारा 353 लगाने को भी अनुचित माना। अदालत ने कहा कि अभियुक्त केवल प्रदर्शन कर रहे थे । उनका इरादा किसी सरकारी कर्मचारी को आपराधिक तरीके से उनका काम रोकने का नहीं था। इसलिए धारा 353 स्वीकार्य नहीं है ।

दिल्ली पुलिस की जांच तब और संदिग्घ हो गई जब केस नंबर 65/20 अंकित शर्मा हत्या और केस नंबर 101/20 खजूरी खास की चार्जशीट  में कहा गया कि 8 जनवरी को शाहीन बाग में ताहिर हुसैन की मुलाकात खालिद सैफी ने उमर खलिद से करवाई और तय किया गया कि अमेरिका के राष्ट्रपति  के आने पर दंगा करेंगे। हकीकत तो यह है कि 12 जनवरी 2020 तक किसी को पता ही नहीं था कि ट्रंप को भारत आना है और 12 जनवरी को भी एक संभावना व्यक्त की गई थी जिसमें तारीख या महीने का जिक्र था ही नहीं। यह यह तो कुछ ही मामले हैं । दिल्ली पुलिस ने दंगों से संबंधित जांच को एक उपन्यास बना दिया।  पुलिस स्थापित कर रही है कि दिल्ली में नागरिकता कानून के खिलाफ 100 दिन से चल रहे धरनों में ही दंगों की कहानी रची गई। गौरतलब है कि देश भर में मशहूर और सबसे भीड़भरे धरने शाहीन बाग में दो बार गोली चली और मुजरिम वही पकड़े गए, कोई आधा दर्जन बार दक्षिणपंथी समूह के लोग वहां नारेबाजी करते रहे, लेकिन कभी ना तो कोई तनाव हुआ, ना मारापीटी हुई और ना ही प्रतिकार हुआ। दिल्ली में चल रहे कोई 15 से अधिक स्थान के धरनों पर पर्याप्त पुलिस का पहरा रहता था। दिल्ली पुलिस का खुफिया विभाग, आईबी और अन्य कई खुफिया एजंेसियां इस धरने के इर्दगिर्द थीं। हर दिन की रिपोर्ट गृह मंत्रालय तक जा रही थी। यदि पुलिस की मानें तो दंगे की साजिश जनवरी से चल रही थी। यदि यह सच है तो हमारा पूरा खुफिया तंत्र एक स्थानीय स्तर की इतनी बड़ी साजिश का सूत्र भी नहीं निकाल पाया।

जब दंगे भड़क रहे थे तब 24 फरवरी 2020 को दिन में 3.00 बजे योगेन्द्र यादव, यूनाईटेड अगेंस्ट हेट्स के नदीम खान, सहित कई लोग तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक से मिलते हैं और ज्ञापन देते हैं कि दिल्ली में दगों को रोका जाए। 25 फरवरी 2020 को षाम 4.30 बजे राहुल राय, अपूर्वानंद, योगेंद्र यादव सहित 25 लोग फिर प्रषासन से लिखित अपील करते हैं कि दिल्ली की प्रषासनिक मशीनरी ठीक से काम करे ताकि दंगों का फैलाव ना हो। अब पता चल रहा है कि पुलिस ने कई चार्ज शीट में योगेंद्र यादव, हर्षमंदर , राहुल राय आदि को दंगे की साजिश में घसीटने की कोशिश की है। यूनाईटेड अंगेस्ट हेट्स क खालिद सैफी पर तो नाा जाने कितने मुकदमें लाद दिए गए।
यह शर्मनाक है कि देश की राजधानी दिल्ली में, जब अमेरिका के राष्ट्रपति आ रहे हों और चार दिन तक नार्थ-ईस्ट दिल्ली के कुछ ही वर्ग किलोमीटर के इलाके में दंगा चलता रहे और देश के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को खुद सड़क पर आना पड़े। कई रिटायर्ड पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी कह चुके हैं कि दिल्ली , जहां हर तरह की फोर्स, मशीनरी , इंटेलीजेंस उपलब्ध है और वहां इतने दिन दंगे होते हैं तो निश्चित ही यह पुलिस की नाकामी या मिलीभगत का नतीजा है।
दिल्ली दंगों की जांच की जांच इस लिए भी जरूरी है कि मुस्लिम पक्ष के लोगों का अधिक नुकसान हुआ, उस पक्ष से लोग ज्यादा मारे गए और गंभीर मामलों में गिरफ्तारियां भी उनकी हुईं। जहां कोई केस नहीं लग रहा था वहां यूएपीए लगा दिया गया। हालांकि आंकड़ों में पुलिस दोनो पक्ष की गिरफ्तारी को बराबर दिखती है लेकिन बारीकि से देखें तो हिंदू पक्ष के अधिकांश  मुकदमें ऐसे थे जिनमें उन्हें आसानी से जमानत मिल गई। यही नहीं जो लोग भी पकड़े गए उनमें एक गिरोह मिला जो 125 लोगों को व्हाट्सएप ग्रुप चलाता था और उन्होंने दो दिन में आठ मुसलमोनों को मार कर  नाले में फैंक दिया। यह बात पुलिस की चार्जशीट में हैं लेकिन ना तो इन पर मकोका लगा और ना ही यूएपीए। 

सबसे भयानक तो वे दस से अधिक एफआईआर हैं जिनमें लोनी के विधायक नन्द किशोर  गूजर, पूर्व विधायक जगदीश  प्रधान, मोहन नर्सिंग होम के सुनील, कपिल मिश्रा आदि को सरे आम दंगा करते, लोगों की हत्या करते, माल-असबाब जलाने के आरोप हैं। यमुना विहार के मोहम्मद इलीयास और  मोहम्मद जामी रिजवी ,चांदबाग की रुबीना बानो बानो, प्रेम विहार निवासी सलीम सहित कई लोगों की रिपोर्ट पर पुलिस थाने की पावती के ठप्पे तो लगे हैं लेकिन उनकी जांच का कोई कदम उठाया नहीं गया। इसी तारतम्य में हाई कोर्ट के जज श्री मुरलीधरन द्वारा कुछ वीडियो देख कर दिए गए जांच के आदेष और फिर जज साहब का तबादला हो जाना और उसके बाद उनके द्वारा दिए गए जांच के आदेष पर कार्यवाही ना होना वास्तव में न्याय होने पर षक खड़ा करता है। 
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश  के विकास, विश्वास  और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश  को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देष के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। इसी लिए आज जरूरी हो गया है कि दिल्ली दंगों की जांच की जांच किसी निश्पक्ष  एजेंसी से करवाई जाए, यदि हाई कोर्ट के किसी वर्तमान जज इसकी अगंआई करें तो बहुत उम्मीदें बंधती हैं।

















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