लोक समाज में प्रकृति का आदर
पंकज चतुर्वेदी
हमारे पूर्वजों ने चंद्रमा हो या सूर्य, धरती हो या सर्प, हाथी हो या बैल , वृक्ष हो या पुष्प , नदी हो या समुद्र ; जिससे उन्होंने कुछ भी पाया, सभी को आदर दिया, सम्मान दिया, पूजा। भले ही कथित आधुनिक समाज उनकी इस आस्था का मखौल उड़ाए लेकिन उनकी मूल भावना थी कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना व उसके हर रूप को अक्षुण्ण बना रखने के लिए समाज में जागरूकता फैलाना। इसमें पूजा, पर्व, गीत, मान्यताएं, मिथक आदि सभी कुछ का सहारा लिया गया। यदि अतीत को खंगालें तो अठारहवीं सदी के अंत तक दुनिया मंे ना तो पानी की कमी थी और ना ही सांस लेने को साफ हवा की किल्लत। यूरोप व इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने भारत में सबसे पहले हथकरघे व हाथ से बने कपड़े को अपनी आसुरी आगोश में लिया और उसे बाद मशीनी दानवों ने उर्जा की मांग बढाई साल के अधिकतर महीने ठंड व बरफ में बिताने वाले कथित विकसित देशों ने मशीनों की उर्जा की आपूर्ति की पूर्ति के लिए भारत के जंगलों की लकड़ी और कोयला खदानों व अरब के तेल के कुओं का रूख किया। । तेल की तकनीकी उतनी विकसित नहीं थी लेकिन लकड़ी व कोयला को सीधे जला कर ही इंजन को चलया जा सकता था। और तभी से प्रकृति का संतुलन ऐसा बिगड़ा कि पहले जिस विकास पर लोग सफलता के गीत गाते थे, आज उसी से उपजे पर्यावरणीय संकट पर षोक-गान बज रहे हैं। तो क्या विकास को थाम देना चाहिए? क्या हमारे पूर्वजों ने पहिये से ले कर अग्नि और खेती से ले कर वस्त्र तक के विकास के आयाम नहीं लिखे थे? महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति इंसान की जरूरतें तो पूरी कर सकती है लेकिन लालच को नहीं।
भारत का आदि समाज और पर्यावरण
भारतीय जनजातियों का दर्शन पर्यावरण के मूल तत्वों - जल, अग्नि, आकाश, जंगल, पहाड़, नदी, मैदान, जीव-जंतु पर आधारित है। ये मूल रूप से प्रकृति के उपासक होते हैं। इनके असंख्य देवता है और सभी प्रकृति के अंग होते हैं। आदिवासी समुदाय धरती , जंगल , नदी नाला झरने आदि के निकट अपनी वेदी बना कर प्रकृति का सम्मान करते रहे हैं। यदि सन 2011 की जनगणना को आधार मानें तो हमारे देश की कुल आबादी के दसवें हिस्से से अधिक यानि 10. 45 प्रतिशत लोग अनुसूचित जनजाति के हैं। कोई 600 जनजातियां भारत की वैविध्य संस्कृति की सहभागी हैं। भले ही इनके रूप-रंग, गीत-संगीत, मान्यताएं अलग-अलग हों लेकिन सभी में एक ही बात समान है कि वे प्रकृति का संरक्षण व उपासना करते हैं। इनमें से अधिकांश अभी भी आधुनिकता की आंधी से बेखबर नैसर्गिक वातावरण में रहते हैं, प्रकृति को सहेजते है और जल-जंगल-जमीन-जानवर-जन के नियोजित विकास व सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं।
बस्तर: जहां वृक्षों से मित्रता और पूजा होती है
जिस आदिवासी समाज के जीवकोपार्जन , सामाजिक जीवन और अस्तित्व का आधार ही पेड़ हो, वह तो उसे हानि पहुंचाने से रहा। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग आदिवासी परम्पराओं और मान्यताओं से सराबोर है। बस्तर में नीम, महुआ, बरगद, आम, पीपल, नींबू, अमरूद, कुल्लू, मुनगा, केला, ताड़ी, सल्फी, गुलरबेल एवं कुल 16 प्रकार के पेड़ों को आराध्य माना जाता है व इनकी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इसके अलावा सौ प्रकार से ज्यादा वृक्ष, 28 प्रकार की लताएं, 47 प्रकार की झाडिय़ां, 9 प्रकार के बंास तथा फर्न को भी पूजा जाता है।
भले ही लोग भगवान की कसम खा कर खूब झूठ बोलें लेकिन जनजाति के लोग अपने आराध्य या कुल के पेड़ की कभी झूठी कसम नहीं खाते। आदिवासी समाज में गोत्रों के नाम, पेड़ पौधे व वन्य प्राणियों के आधार पर रखे गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वनों के बीच रहने के चलते पेड़ों एवं वन्य प्राणियों से इनका गहरा जुडा़व रहा है। आदिवासी समाज में सबसे अधिक महत्व साज के वृक्ष का होता है, अपने आराध्य बूढ़ादेव की या साज के पत्तों की कसम खिलाई जाए तो वह झूठ बोल नहीं सकता है, भले ही सच बोचने पर उसकी जान ही चली जाए।
वन पुत्रों के आदि देव पेड़, जंगल के जीव आदि ही हैं। आदिवासी मान्यता में धरती की उत्पत्ति करने वाले बूढ़ादेव और लिंगोपेन देव का वास साजा, अमलतास एवं कंरजी के पेड़ों में हैं। वनों को देवता तुल्य मानने वाला आदिवासी समुदाय वनों में निवास करना, वन प्रांतों में खेती, वनोपज संग्रहण को अपना गौरव मानते हैं। बीजा पंडुम एवं तीज ‘ त्यौहारों में वन देवताओं की विधि-विधान से पूजा की जाती है। बस्तर के गांव गांव में गुनिया-ओझा और बुजूर्ग अपनी अगली पीढ़ी को बताते हैं कि रती माता- बरगद, शीतला माता-पीपल, गुलर में मावली माता, आम व महुआ में साल, साज में भैरमदेव, साल साज, महुआ, आम में मांदुर्गा सम्मक्का, मां सरक्का एवं मां दंतेश्वरी का वास महुआ एवं बरगद में होता है। नीम पेड़ को श्रेष्ठतम माना जाता है । नीम व बरगद के पेड़ों में आदिवासी समुदाय द्वारा विवाह की रस्में सम्पन्न कराने की परम्परा आज भी कायम है। आदिवासियों का मानना है कि पेड़ों के शरण स्थल के पांच एकड़ तक परिधि में देवों का वास होता है।
असल में आदिवासी ना तो संचय करते हैं और ना ही आवश्यकता से अधिक की उम्म्ीद रखते हैं। तभी वे अपनी जरूरत का सारा सामान प्रकृति से तत्काल लेते हैं। तेंदू पत्ता या जड़ी बूटी उनके जीवन का आधार है। घने जंगलों में मिलने वाले इमली, महुआ, टोरा, आमचूर, चिरौंजी, तिखूर, शहद, चिरायता, मालकांगनी, सर्पगंधा, सतावर, गौरखमुंडी, बैचांदी, वनतुलसी, शिकाकाई, अमलबास, गूंज, मुंड़ी, बेल छिलका, कांटाबहारी, फूलबहारी, शहद, मोम, आंवला, हर्रा, बेहड़ा, सियाड़ी पत्ता, सियाडी रस्सी, कोसासाबुत, कोसा पोला, बाईबिरिंग, थवईफूल, पलास बीज, भेलवाबीज, सागौन बीज, करंजी बीज, अरण्डी बीज, गोंद, कुल्ले गोंद, निर्मली, कोचला, खोटला बीज, कुंभी फूल, इमली फूल सहित दर्जनों जड़ी-बूटियां आदिवासियों के जीवन की धारा है।
महुआ अकेले बस्तर ही नहीं मध्य भारत के सभी अािदवासियों का ईश्ट देव है। उनकी संस्कृति में महुए के वृक्ष की महत्त्व सबसे बढ़कर है। आदिवासी परम्परा में जन्म से लेकर मरण तक महुआ का उपयोग किया जाता है। जन्मोत्सव से मृत्योत्सव तक अतिथियों को महुआ रसपान कराया जाता है। अतिथि सत्कार में महुआ की अधिक आदिवासी समुदाय में प्रधानता रहती है। महुआ की मदिरा पितरों एवं आदिवासी देवताओं को भी अर्पित करने की परम्परा है, इसके लिए महुआ पान से पूर्व धरती पर छींटे मार कर पितरों को अर्पित किया जाता है। ये महुआ फूलों को भोजन, औशघि और षराब बनाने के लिए प्रयोग में लाते हैं। इसके पत्ते, फूल, फल, बीज, एवं लकड़ी सभी चीजों का उपयोग में आती है। इसकी लकड़ी खिड़की-दरवाजे बनवाने में ग्रामीण उपयोग करते हैं। साथ ही जंगलों में ग्रामीण इसकी लकड़ी को भी हाट बाजारों में बेचकर आय का अच्छा स्त्रोत मानते हैं। वहीं इसके फूल से व्यंजन एवं देशी शराब तो महुए का फल (टोरा) से सब्जी एवं तेल निकालने के उपयोग में आता है, जिसे खाने में इस्तेमाल किया जाता है। पेड़ के पत्तों से दोना-पतरी बनाई जाती है जो शादी विवाह के रस्मों-रिवाज में काम आती है।
बस्तर के आदिवासियों का दूसरा सबसे लोकप्रिय वृक्ष है - ताड़ प्रजाति के कारयोटा यूरेंस यानि सल्फी। इससे निकलने वाला सफेद पेय ‘‘बस्तर-बियर’ के नाम से मशहूर है। आदिवासी इसे ‘‘ पैसे का पेड़’’ कहते हैं बस्तर के आदिवासी सल्फी का पेड़, अपनी बेटियों को दहेज में देते रहे हैं। आदिवासी आम तौर पर आंगन और खेत की मेड़ों पर सल्फी के पेड़ लगाते हैं। 40 फीट ऊंचा यह पेड़ नौ-दस साल का होने के बाद रस देना शुरू करता है। स्थानीय बाज़ार में सल्फी का रस 40 से 50 रुपए लीटर बिकता है। यदि भौर में सल्फी पी जाए तो उससके पेट भर जाता है और इसके कई औशधीय गुण होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ता है, सल्फी के रस का फरमंटेशन शुरू होता है तो इसे पीने से भयंकर नशा आता है। कुछ आदिवासी सल्फी के रस से गुड़ भी बनाते हैं। सल्फी का पेड़ उनके लिए भगवान है।
धराड़ी यानि वृक्ष आराधना
पीपल काट हल घड़े, बेटी बेच खाये
सींव फोड़ खेती करे, वह जड़मूल सुन जाये।
राजस्थान के मीणा आदिवासियों में पेड़ को लेकर यह लोकोक्ति हर एक की जुबान पर होती है और वे इसका कड़ाई से पालन भी करते हैं। मीणाओं के कबीलों के अपने एक आराध्य वृक्ष को ध्राड़ी मान लेते हैं और वे उसके न तो कभी काटते हैं और न ही उसको किसी तरह का नुकसान पहुंचाते हैं। धराड़ी यानि धरा और आड़ी षब्दों का संगम। धरा यानि धरती और आड़ी का अर्थ रक्षा करना। हर कबीले की कुल देवी या धराड़ी होती है। कहा जाता है कि मीणा आदिवासियों के पहले 5248 गौत्र हुआ करते थे और आज भी कोई 1200 गौत्र हैं। प्रत्येक गौत्र की एक धराड़ी। कई कुलों की एक धराड़ी भी हो सकती है। किसी की धराड़ी नीम तो किसी की आम। जैसे घुंिसंगा गौत्र की धराड़ी गिरीजाड तो गुणावत की नीम। मंडावत लोग बेल को पूजते हैं किसी का पील तो किसी का खेजड़ी।
बच्चों के जन्म के समय धरड़ी का पत्ता बच्चे के सिरहाने रखा जाता। विवाह भी धराड़ी वाले पेड़ के फेरे ले कर ही होता। हां, मृत्यू के समय अपनी धराड़ी की ही लकड़ी से दाह संस्कार की रिवाज इनमें होती है। हालांकि वे इसके लिए पेड़ नहीं काटते है। सूखे, गिर गई डाल को ये लेाग ऐसे ही अवसर के लिए एकत्र कर रखते हैं।
मीणा जनजाति स्वयं को सिंधु घाटी की सभ्यता की समकालीन मानती है। हालंकि बदलते वक्त साथ मीणा आदिवासी भी धराड़ी को एक मिट्टी या पतरि की प्रतिमा मानने लगे हैं और अब उनके संस्कार में धराड़ी का काश्ट प्रतीकस्वरूप ही षामिल होता जा रहा है। इसका बड़ा कारण है कि मीणा जनजाति के बहुत से लोग बड़ी सरकारी नौकरियों में आए। फिर वे षहरी परिवेश में ढल गए और उनके गांव-कबीले कहीं पीछे छूट गए।
प्रकृति प्रेम का पर्व: सरहुल
झारखंड व बस्तर और बंगाल के कुछ हिस्सों में आदिवासियों का पर्व सरहुल एक ऐसा अवसर है जब वे सामूहिक रूप से धरती को संरक्षित करने का संकल्प करते हैं। जब सर्दी के मौसम की विदाई के बाद जंगलों में पलाश फूल की लालिमा, कोयल की कूक मन को मोहती है, सरई फूल की खुशबू से जंगल का कोना-कोना महक उठता है, ऐसे ही मादक मौसम में आदिवासी सरहुल महापर्व मनाते हैं। चैत्र के षुक्ल पक्ष की अमावस्या पर प्रकृति यानी सखुआ वृक्ष की पूजा कर नए साल का स्वागत किया जाता है। द्वितीया तिथि को सरहुल की पूजा की जाती है। इस पूजा में गांव को रोग से दूर रखने, जंगल व खेत में अच्छी पैदावार की कामना की जाती है। पाहन राजा इस मौसम में आए नये फल और सात प्रकार की तरकारी -जिसमें सहजन, कटहल, पुटकल, बड़हर, ककड़ी, कचनार, कोयनार, की सब्जी और मीठी रोटी बनाते हैं। सबसे पहले धरती को मां के रूप में पूजा जाता है। उसके बाद मांदर की थाप पर नाच-गाना और जुलूस निकलता है। तीसरे दिन फूलखोंसी की जाती है। सरहुल साक्षात प्रकृति की पूजा है।
सरहुल का पहला दिन मछली और केकड़े को अर्पित होता है। शाम को भोजन में उन्हें सम्मिलित कर लोगों के खाने के पहले घर के मुखिया थोड़ा सा अंश घर के पूर्वजों को अर्पित करते हैं। उसी दिन गांव के पाहन गांव के लोगों के साथ सरना स्थल जाते हैं । वहां की साफ-सफाई, गोबर से लिपाई-पुताई करते हैं और दो नये घड़ा में पानी भर का पानी की गहराई को साल की टहनी से नाप लेते हैं।
पाहन क्रमशः सिगबोंगा, पृथ्वी और पहाड़ देवता (बुरु बोंगा), जल देवता (इकिर बोंगा), ग्राम देवता (हातु बोंगा) और पूर्वजों को संबोधित कर उनसे प्रार्थना करते हैं। सभी अनुष्ठान में पृथ्वी को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वही जीवन स्रोत है। बीज के माध्यम से सभी पुनः जीवन को प्राप्त करते हैं। प्रार्थना में चारों दिशाओं, पृथ्वी, आकाश, पाताल, सृष्टि, जीव-जंतु को संबोधित किया जाता है एवं समस्त मानव के लिए या विश्व के सभी जीवित जनों के भले की कामना की जाती है। फिर नाच-गाना होता है और गीतों में भी प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव ही होता है, नृत्य की मुद्राओं में भी जल-जंगल-जमीन के प्रति सम्मान होता है।
माड़िया: धरती तो मां है
माड़िया आदिवासी मध्य भारत में सर्वाधिक प्राचीन यानि पांच हजार साल से अधिक पुरानी जनजाति है। उनके जीवन का मूल आधार खेती ही है। बाकी अपनी जरूरतों के लिए वे जंगल पर निर्भर होते हैं। इसमें औशधि, मांसाहार आदि षामिल है। चूंकि माड़िया धरती को अपनी मां मानते हैं अतः खेती करने के लिए वे हल नहीं चलाते। खेती की इस पद्धति को बेरवा पद्धती कहा जाता है। आदिवासी हर दो या तीन वर्षों मे नया जंगल साफ़ करते और उसमे आग लगा कर नये खेत बना लेते हैं । यह खेत की जुताई नही करते इनका मानना है कि धरती हमारी मां है, उसपर हल चलाना यानी कि मां के शरीर को घायल करना होगा । आधुनिक समाज सोच सकता है कि आदिवासी तो जंगल उजाड़ रहे हैं लेकिन ध्यान दें जिस स्थान को वे दो-तीन साल खेती कर छोड़ते हैं वहां अपने आप चारागाह विकसित हो जाता है जो उनके पालतु व जंगल के जानवरों के लिए जीवनदायी होता है। चूंकि आदिवासी किसी भी तरह की खाद या रसायन इस्तेमाल नहीं करते सो जल्द ही उस क्षेत्र में नए जंगल उग आते हैं। बगैर जुताई के खेती का प्रयोग जापान में बेहद सफल रहा है। भारत में बिना जुताई की खेती का चलन आदिवासी अंचलों में अभी भी देखा जा सकता है। परम्परागत देशी खेती किसानी में जिसमें गोसंवर्धन किया जाता था ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिस में किसान जमीन को जोते बगेर खेती करते हैं. वे हलकी जुताई कर जमीन की ताकत और नमी को संरक्षित करते थे। जुताई के कारण कमजोर होती जमीन को चारागाह से बदल लेते थे। जिस से एक और जहाँ पशुधन संवर्धित रहता था और कमजोर होती जमीन सुधर जाती थी।
भले ही षहरी समाज के लिए सागौन ‘‘ग्रीन गोल्ड’ हो, लेकिन माड़िया इस पेड़ को पसंद नहीं करते। उनकी माान्यता है कि सागौन के पत्ते खेती के लिये अशुभ होते हैं । हाल ही मे हुये शोध मे यह बात साबित हुई है कि सगौन के पत्तो से मिट्टी की उर्वरता मे भारी कमी आती है ।
हिमालय के आदिवासियों की पर्यावरणीय संवेदनशीलता
लेपचा जनजाति हिमाच्छाादित हिमालय में निवास करती है। हिम-रेगिस्तान कहलाने वाले इस अंचल में प्रकृति के सहारे अपना जीवन जीना लेपचाओं की आइिदकालीन परंपरा है। यह एकमात्र ऐसी जनजाति है, जो पहाड़ों को अर्धमानव, येती के रूप में पूजते हैं। लेपचा की कहानियांे में पर्यावरणीय ज्ञान कूट-कूट कर भरा है। इनमें जटिल सामाजिक मुद्दों का समाधान भी प्रकृति के तत्वों का उपयोग करके किया जाता है। इसी इलाके की जनजाति है, किराति । किराती का संस्कृत में अर्थ है- पहाड़ों पर रहने वाले। ये लोग प्रकृति को ही अपना धर्म मानते हैं। इनके यहां हर साल अप्रैल-मई महीने में उभौली (जिसे सकेला या सकेवा भी कहा जाता है) नाम से 14 दिन का पर्व मनाया जाता है। चूंकि यह समय पहाड़ की मछलियों के गर्भधारण या अंडे देने का होता है, अतः इस पर्व की अवधि में वे मछली का शिकार नहीं करते। उभौली पर्व में किरातियों का पुजारी ‘पवित्र मुंडम’ का पाठ करते हैं। इसमें किरातियों के उद्गम, समृद्ध परंपराओं, उनके पूर्वजों की कहानी और उनकी प्राकृतिक दुनिया के रीति रिवाजों आदि के बारे में बताया जाता है। इस दौरान नदियों, पहाड़ों, इंद्रधनुष, भूमि और जानवरों की प्रार्थना की जाती है।
मुंडम में एक पवित्र कथा के अनुसार समुदाय के एक सदस्य को अनुमति दी जाती है कि वह घर बनाने के लिए एक पेड़ को काट सकता है । इसके बदले में धरती के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु उसे 10 पेड़ लगाने पड़ते हैं। उनका मानना है कि जब एक ओझा/पुजारी अपना शरीर त्याग करता है, तो उनका उच्च ज्ञान दिव्य ऊर्जा के रूप में पौधों के विभिन्न प्रजातियों में प्रवेश कर जाता है। इसी विश्वास के चलते आदिवासी फर्न, बांस और बेंत की कुछ किस्मों की मनमानी कटाई नहीं करते हैं।
देव वन परंपरा
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू अंचल में जंगलों के संरक्षण की अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहां कुछ जंगलों को देव-वन कहा जाता है, वहां से लकड़ियों को कोटना तो दूर, समाज के लेाग वहां की पत्ती या गिरी हुई लकड़ी भी इस्तेमाल नहीं करते। इन जंगलो ंमें पवित्रता का खयाल रखा जाता है और लोग यहां षौच को भी नहीं जाते। फौजल सहित आठ जंगल इस तरह की मान्यता से संरक्षित हैं। इनके नाम भी देवताओं के नाम पर हैं। लगवैली फारेस्ट बीट में फलाणी नारायण जंगल हैं तो पास ही में माता फुंगणी और पंचाली नारायण वन। ग्रेट हिमालय नेशनल पार्क में बंजार वैली का कुछ हिस्सा, षांगण के साथ लगा हुआ जंगल, मणिकर्ण घाटी में पुलगा जंगल को देच-जंगल के रूप में जाना जाता है।
हिमाच्दित पहाड़ों के विपरीत भीशण गर्मी वाले राजस्थान के लोक समाज में भी देव-वनों की परंपरा मिलती है। कोटा के करीब डाए़ देवी का वन तो राजस्थान के सबसे घने जंगलों में से एक है। बारां के छीपाबडज्ञेद के समीप देवनारायण की राड़,, गराड़िया महादेव के पास का जंगल सहित कई दर्जनों जंगलों को समाज देव-वन के रूप में पूजते और संरक्षित करता है। यहां मान्यता है कि
‘‘लीलो रूंख नीं घावणो, अनि घावै द्यो प्राण
सिर साटै जे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण।।
अर्थात - हरा पेड़ यदि है तो उसे कटना नहीं चाहिए, भले ही इसके लिए प्राण चले जाएं।। पेड़ के बदले यदि सिर कलम हो जाए तो इसे सस्त मानना चाहिए। उल्लेखनीय है कि राजस्थानी में रूंख का अर्थ है पेड़।
पेड़ व हिरण के लिए जान देने वाले विश्नोई
लंबी कानूनी लड़ाई और भारी दवाब के बावजूद नहीं झुकने और फिल्म अभिनेता सलमान खान को हिरण के शिकर के ममले में सजा दिलवाने के कारण दुनियाभर में चर्चित हुए विश्नोई समाज की स्थापना संत जम्भेश्वर ने प्रकृति की रक्षा के लिए ही की थी। विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भोजी (1451-1536 ई०) ने अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम स्थापित किए थे। 20 और नौ के कारण ही यह समाज विश्नोई कहलाया। संत जी के इन नियमों में अधिकांश पर्यावरण के साथ सहचारिता बनाये रखने पर बल देते हैं जैसे हरे-भरे वृक्षों को काटने तथा पशुवध की पाबंधी। उस समय राजस्थान के जो कल्पवृक्ष थे, वे खेजडी के पेड़ थे, जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में भी पनप जाते थे। उनसे केवल पशुओं को चारा ही नहीं मिलता था, उनकी फलियों से मनुष्यों को खाना भी मिलता था।
सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अजय सिंह ने एक विशाल महल बनाने की योजना बनाई। जब महल के लिए लकड़ी की बात आई तो यह सुझाव दिया गया कि राजस्थान में वृझों का अकाल है लेकिन केवल एक ही जगह है जहां बहुत मोटे-मोटे पेड़ हैं वह है विश्नोई समाज का खिजड़ी गांव। महाराजा के हुकूम पर महल के लोगों को कुल्हाडीयों के साथ उस गांव भेजा गया। वे लोग गए और कुल्हाडिय़ों से सीधे खेजड़ी के मोटे-मोटे पेड काटने लगे। उसी समय एक बहन अमृता देवी छाछ विलो रही थी। उसके कानों में अजीब सी आवाज आई, पेड काटने की आवाज, जो उसने कभी सुनी नहीं थी। वह बाहर आई। उसने कहा-क्या कर रहे हो? रूको। पेड काटने वालों ने कहा कि राजा का हुकूम है। इस पर अमृता देवी ने कहा राजा का हुकूम भले ही हो लेकिन यह हमारे पंथ के खिलाफ है। पेड़ काटने वालों के नहीं मानने पर अमृता देवी ने फैसला लिया कि यदि धर्म की रक्षा के लिए, पेड़ की रक्षा के लिए, प्राणों की आहुति भी देनी पड़े, तो वह कम है। वह पेड से लिपट गई और उसने अपना बलिदान दे दिया। उसकी तीनों बेटियां भी पास ही खड़ी थीं वे बारी-बारी से पेडों से लिपट गई और उन्होंने भी अपना बलिदान दे दिया। यह खबर सारे क्षेत्र में फैल गई और देखते की देखते 363 विश्नोईयों ने इस स्थान पर अपना बलिदान दे दिया।
बिश्नोई समुदाय वन्यजीवों को अपने परिवार जैसा मानता है । इतना ही नहीं बिश्नोई समाज की महिलाएं तो हिरण के बच्चों को अपना बच्चा मानती हैं। यहां तक कि महिलाएं अपना दूध तक हिरण के बच्चों को पिलाती हैं। यहां के पुरुषों को जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरण का बच्चा या हिरण दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं, बच्चों की तरह उनकी सेवा करते हैं। कहा जाता है कि पिछले 500 सालों से यह समुदाय इस परंपरा को निभाता आ रहा है। रेगिस्तान और अल्प वर्शा के लिए बदनाम राजस्थान में आज भी विश्नोई लेागों के रिहाईशी इलाकों में घने जंल देखने को मिल जाएंगे।
इसी तरह उत्तरांचल के पहाड़ पर चिपको और कर्नाटक का अप्पिको आंदोलन हमारे लोक समाज के पर्यावरणीय संवेदनशीलता की बानगी हैं।
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