चीन से फौजी ही नहीं बौद्धिक स्तर भी निबटना होगा
पंकज चतुर्वेदी
नव भारत टाइम्स 02 जुलाई 2020Add caption |
भारत और चीन के बीच 3488 किलोमीटर की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौजूदा विवाद और हमारे बीस जवानों की शहादत से सरकार पर यह जन दवाब है कि चीन को सबक सीखाया जाए , कुछ लोग चीनी उत्पादों के बहिष्कार तोबहुत से लोग पकिस्तान की तरह सर्जिकल स्त्रयिक कर अपने जवानों की मौत का बदला लेना चाहते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि चीन की सोच साम्राज्यवादी है और वह यह कतई नहीं चाहता कि भारत सीमा के
पास सडक –संचार जैसी सुविधाओं को सशक्त करे . लेकिन यह समझना जरुरी है कि चीन जैसी विश्व शक्ति से
महज सैनिक या व्यापारिक कार्यवाही के बल पर मुकाबला नहीं हो सकता, हमारे घर में लगने वाली बिजली के
मीटर का उत्पादन कई महीनों से केवल इस लिए बंद है कि उसमें लगने वाला डिजिटल डिस्प्ले हम चीन से मंगा
ते हैं और कोविड के चलते यह आयात बंद है , यह बानगी है कि चीन किस तरह दुनिया के देशों को मजबूर बनाता है, उसे समझा जाए .
यह जान लें कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) ही वहां की फौज अर्थात पीपल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) को
नियंत्रित करती है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी केवल हथियार या तकनीक से सेना को ताकत देने का काम ही नहीं
, बल्कि ऐसे कई मोर्चों पर निवेश और नियोजन करती है जिससे उनकी सेना को बगैर लडे ही कई जगह“ जीत” मिल जाती है . इसके लिए उसने सूचना अतंत्र , जानकारी एकत्र करने और उसे अपनी सहूलियत के हिसाब से दुनिया को देने का काम भी किया है—इसमें तकनीकी शामिल है और जानकारी देने का तरीका भी - दूसरे शब्दों में, धारणाओं की लड़ाई का प्रबंधन. शांतिकाल में भी चीनी अपनी ताकत को ले कर दुनिया में भ्रम, संदेह, चिंता, भय, आतंक के भाव को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए कई कई स्तर पर काम करते रहते हैं नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी, गुओयानहुआ के एक चीनी प्रोफेसर ने “साइकोलॉजिकल वारफेयर नॉलेज” नामक अपनी किताब में लिखा है, "जब कोई दुश्मन को हरा देता है, तो यह महज दुश्मन को मारना या जमीन के एक टुकड़े को जीतना नहीं होता है, बल्कि मुख्य रूप से दुश्मन के दिल में हार का भाव स्थापित करना होता है ।" युद्ध के मैदान के बाहर प्रतिद्वंद्वी के मनोबल को कम करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि युद्ध के मैदान में। जब से शी जिनपिंग ने चीन पर पूरी तरह नियंत्रण किया है, तब से वह न केवल अपने देश में बल्कि अन्य देशों में भी मीडिया को नियंत्रित करने पर बहुत काम कर रहे हैं। चीन के मिडिया के लिए शी का स्पष्ट निर्देश है कि उसका काम "देश में राजनीतिक स्थिरता के लिए काम करना , पार्टी से प्यार करना, पार्टी की रक्षा करना और पार्टी नेतृत्व के साथ मिलकर नीति और विचार का प्रसार करना है।" यह सभी जानते हैं कि चीम में अखबार और टीवी , सोशल मिडिया से ले कर सर्च इंजन तक सरकार के नियंत्रण में है . वहां का प्रकाशन उद्योग भी सरकार के कब्जे में है , हर साल जुलाई के अंतिम हफ्ते में लगने वाला पेइचिंग पुस्तक मेला दुनिअभर के बड़े प्रकाशकों को आकर्षित करता है , वहां चीन के फोरें पब्लिशिं डिपार्टमेंट का असली उद्देश्य उनके यहाँ की पुस्तकों के अधिक से अधिक राइट्स या स्वत्ताधिकार बेचना होता हैं , गत दस सैलून में अकेले दिल्ली में चीन से प्राप्त अनुदान के आधार पर सैंकड़ा भर चीनी पुस्तकों का अनुवाद हुआ, यही नहीं भारत- चीन के विदेशी विभाग भी ऐसे ही अनुवाद परियोजना पर काम कर रहे हैं . दिल्ली के कई निजी प्रकाशक अब अधिकांश चीनी पुस्तकों के अनुवाद छाप कर मालामाल हो रहे हैं इस तरह चीन दुनियाभर के जनमत निर्माताओं, पत्रकारों, विश्लेषकों, राजनेताओं, मीडिया हाउसों और लेखकों-अनुवादकों का समूह बनाने में भारी निवेश कर रहा है जो अपने-अपने देशों में चीनी हित को बढ़ावा देने के लिए प्रयत्नशील और इच्छुक हैं।
वैसे तो यह महज साहित्यिक या पत्रकारीय कार्य होता है लेकिन इसका असली एजेंडा चीन की भव्यता, ताकत , क्षमता को शांति और युद्ध दोनों के समय दुसरे देशों में प्रसारित करने में होता हैं , ये लोग अपने लेख वीडियों, सोशल मिडिया सामग्री आदि को इस नेटवर्क के माध्यम से प्रसारित करते हैं . हाल ही की गलवान घाटी में हमारे जवानों की शहादत के मामले को देखें , भारत का मिडिया अधिकांश ग्लोबल टाइम्स या चीनी सहयोग से चलने वाली आस्ट्रेलिया या सिंगापूर की संवाद एजेंसियों की खबर और फूटेज पर बहस, कर रहा है . भारत सरकार ने अद्तालिश घंटे तक कोई आधिकारिक आंकड़े या चित्र जारी नहीं किये, इतनी देर चीन का ही बोलबाला रहा .ऐसी सूचनाओं के कई मनोवैज्ञानिक दूरगामी असर होते हैं जैसे कि उस देश के आम लोगों, सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व के बीच चेतावनी और भय-मनोविकृति पैदा करने और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर करने और चीनी दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए मजबूर करना आदी । चीन की सरकार भारत सहित अन्य कई देशों में मिडिया में निवेश के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रही है। हाल ही में, चीन ने विदेशी मीडिया प्रकाशनों में विज्ञापन स्थान की खरीद के माध्यम से भारी निवेश किया है।
चीन मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीकी देशों के विदेशी पत्रकारों के लिए फेलोशिप कार्यक्रम भी चलाता है। भारतीयों सहित प्रति वर्ष 100 पत्रकारों को हर साल फ़ेलोशिप कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण मिलता है। उन्हें अपने देशों में चीनी विचारों का प्रचार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। पेइचिंग विश्विद्यालय सहित कई स्थान पर बाकायदा हिंदी के कोर्स हैं और वहां अधिकांश लड़कियां होती हैं, ये अपने नाम भी राधा, बिंदु जैसे भारतीय रखती हैं . नियमित भारत के अखबारों को पढ़ना, उसमें चीन के उल्लेख को अनूदित करना , उसके अनुरूप सामग्री तैयार करना इन छात्रों का कार्य होता है . इसके बदले इन्हें कई सुविधाएँ मिलती हैं , रेडियों चाइना में बांग्ला सेक्शन भी है और उसका कार्य एक कोरिया की महिला देखती है जो कि बांग्ला में पारंगत है . यह बानगी है बताने को कि चीन भारत में अपने पक्ष में धारणा विकसित करें को किस हद तक मेहनत करता हैं ।
जान कर आश्चर्य होगा कि टीवी बहस में शामिल कई सेवानिवृत सैन्य अधिकारी ऐसे हैं जिन्होंने कभी लेह-लद्दाख , अरुणाचल प्रदेश या उत्तराखंड के सीमाई इलाकों में सेवा ही नहीं दी और वे टीवी पर सीमा विवाद और सैन्य तयारी पर विमर्श करते हैं. यह तय है कि भारत सरकार या सेना उनसे कोई गोपनीय या नीतिगत योजना तो साझा करती नहीं है लेकिन वे दुनिया भर में मिडिया के माध्यम से भारत की सेना की तरफ से बोलते दीखते हैं, हकीकत यह है कि ऐसे अफसर या लेखक किसी हथियार एजेंसी या अन्य उत्पाद संस्था के भारतीय एजेंट की नौकरी करते हैं और उनकी सेवा शर्तों में इस तरह के उल्लेख होते हैं कि भारतीय सैन्य स्थिति पर अनुमान या सतही व्याख्या करनी होती है , किसी हथियार या उपकरण की आवश्यकता या अन्य देश के वैसे ही उपकरण की तुलना में चीनी उत्पाद या चीन के किसी एनी देश में निवेश द्वारा निर्मित उत्पाद को बेहतर बताना होता है ।
यह भी सच है कि हमारे देश में ही राजनितिक विचारधारा के कारण चीन के प्रति
सहानुभूति रखने वाले भले ही बहुत कम हों लेकिन इस बारे में दोषारोपण या गालियाँ
देने वाले अधिक हैं , वास्तव में यह आम लोगों में एक दुसरे के प्रति अविश्वास का
माहौल बनाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं . युद्ध या तनाव काल में जब देश एकजुट हो,
तब ऐसी वैचारिक टकराव सोशल मिडिया पर एकजुटता का भाव दिखने में सफल होते हैं । शायद आश्चर्य होगा कि इस तरह के
टकराव बाकायदा चीन से नियोजित होते हैं . जो व्यापारी कुछ दिनों पहले तक गणपति की
मूर्ति या दिवाली पूजा के सजावटी सामान के सेम्पल ले कर चीन गए थे और उनके साथ
व्यापारी के हिंदी दुभाषिये थे , ऐसे ही लोग व्हाट्स एप सन्देश बना क्र भेजते हैं
और उसका प्रचार गणपति- दिवाली वाले व्यापारी यह सोच कर करते हैं कि यह खबर तो सीधे
वहीँ से मिली है । विश्वास
जीतना , पैसा कमाई करवाना और फिर अपने तरह के विचार लोगों में संप्रेषित कर देना ,
यह चीन का बौद्धिक युद्ध- कौशल है ।
सैन्य स्तर पर हम चीन से निश्चित ही निबट लेंगे लेकिन हमारे
देश 65 फीसदी मोबाईल बाज़ार , स्मार्ट टीवी का 35 प्रतिशत . लाखों लोगों को रोजगार
देने वाली पेटीएम , ओला, ओयो जैसी कम्पनियाँ , हमारे लघु और माध्यम उद्योगों की
कच्चे माल या एसेम्बलिंग मटेरियल के लिए चीन पर निर्भरता के अलावा बौद्धिक सामग्री
और मिडिया में चीन का अपरोक्ष दखल ऐसे कारक हैं जिनसे आने वाले कुछ सालों में भारत
को पार पाना होगा . भारतीय फौज शारीरिक, मानसिक और अनुभव के क्षेत्र में चीन से कई
गुना सक्षम है लेकिन आज का युद्ध बहुत कुछ आर्थिक और बौद्धिक है और इसके लिए हमें
अभी से तयारी करना होगा ।
सुचिंतित आलेख..
जवाब देंहटाएंजरूरी भी