बगैर पानी के कैसे केारेाना से लड़ेगा ग्रामीण भारत
पंकज चतुर्वेदी
कोरोना ने देश को एक बात की चेतावनी दे दी कि स्वास्थ्य सेवाएं भी राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। जब तक कोई माकूल इलाज या वैक्सीन नहीं मिलती, तब तक देश को इस संक्रमण से बचाने का एकमात्र उपाय व्यक्तिगत स्वच्छता और उसमें भी बार-बार साबुन से हाथ धोना है। कोरोना से जूझते समय हमारे जर्जर विकित्सा तंत्र के अलावा जो सबसे बड़ी चुनौती देश के सामने है , वह है इस संग्राम के लिए अनिवार्य पानी की बेहद कमी, दूशित जल और पानी का लाचार सा प्रबंधन। सनद रहे बीस सैकंड हाथ धोने के लिए कम से कम दो लीटर पानी की जरूरत होती है। इस तरह पांच लोगों को परिवार को यदि दिन में पांच से सात बार हाथ धोना पड़े तो उसका पचास लीटर पानी इसी मद में चाहिए, जबकि देश में औसतन 40 लीटर पानी प्रति व्यक्ति बमुश्किल मिल पा रहा है।
नेशनल सैंपल सर्वे आफिस(एनएसएसओ) की ताजा 76वीं रिपोर्ट बताती है कि देश में 82 करोड़ लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक पानी मिल नहीं पा रहा है। देश के महज 21.4 फीसदी लोगों को ही घर तक सुरक्षित जल उपलब्ध है। सबसे दुखद है कि नदी-तालाब जैसे भूतल जल का 70 प्रतिशत बुरी तरह प्रदूषित है। यह सरकार स्वीकार रही है कि 78 फीसदी ग्रामीण और 59 प्रतिषत शहरी घरों तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हैं। कोरोना संकट के चलते ग्रामीण अंचलों में आबादी का भार बढ़ा है। अनुमान है कि कोई आठ करोड़ लोग गांवों को लौटे हैं। जाहिर है कि इनके कारण पानी की मांग भी बढ़ी है। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है। यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गाँवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गाँव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है।सन 1950 में लागू भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 में भले ही यह दर्ज हो कि प्रत्येक देशवासी को साफ पानी मुहैया करवाना राज्य का दायित्व है लेकिन 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने का पानी की आस अभी बहुत दूर है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चल कर पानी लाते हैं। राजधानी दिल्ली की बीस फीसदी से ज्यादा आबादी पानी के लिए टैंकरों पर निर्भर है। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।
अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं जोकि निर्धारित लक्ष्य का आधा था। रिपोर्ट में कहा गया कि खराब निष्पादन और घटिया प्रबंधन के चलते सारी योजनएं अपने लक्ष्य से दूर होती गईं । कारण वितरित करने में विफल रही। भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिषोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन 2022 तक देष में षत प्रतिषत षुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की पिछले साल की रिपोर्ट बानगी है कि कई हजार करोड़ खर्च करने के बाद भी यह परियेाजना सफेद हाथी साबित हुई है। सन 2017 तक परियोजना की कुल राषि 89,956 करोड़ रुपये का 90 प्रतिषत खर्च करने के बावजूद, कार्यक्रम में अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के बहुत दूर है।
ग्रामीण भारत में पेय जल मुहैया करवाने के लिए 10वीं पंचवर्षीय योजना(2002-2007) तक 1,105 अरब रुपये खर्च किये जा चुके थे। इसकी शुरुआत 1949 में हुई जब 40 वर्षों के भीतर 90 प्रतिशत जनसंख्या को साफ पीने का पानी उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसके ठीक दो दशक बाद 1969 में यूनिसेफ की तकनीकी मदद से करीब 255 करोड़ रुपये खर्च कर 12 लाख बोरवेल खोदे गए और पाइप से पानी आपूर्ति की 17,000 योजनाएं शुरू की गईं। इसके अगले दो दशकों में सरकार ने एक्सीलरेटेड वाटर सप्लाई प्रोग्राम (एआरडब्ल्यूएसपी), अंतरराष्ट्रीय पेयजल और स्वच्छता दशक के तहत सभी गाँवों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये एक शीर्ष समिति का निर्माण, राष्ट्रीय पेयजल मिशन (एनडीडब्ल्यूएम) और 1987 की राष्ट्रीय जलनीति के रूप में कई योजनाएं बनीं।
उसके बाद 2009 से दूसरी योजना प्रारंभ हो गई। हजारों करोड़ रुपये और दसियों योजनाओं के बावजूद आज भी कोई करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। लगभग 15 लाख बच्चे दस्त से अकाल मौत मरते हैं । अंदाजा है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद होते हैं। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 39 अरब रूपए का नुकसान होता है।
गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। यह संसद में बताया गया है कि करीब 6.6 करोड़ लोग अत्यधिक फ्लोराइड वाले पानी के घातक नतीजों से जूझ रहे हैं, इन्हें दांत खराब होने , हाथ पैरे टेड़े होने जैसे रोग झेलने पड़ रहे हैं। जबकि करीब एक करोड़ लोग अत्यधिक आर्सेनिक वाले पानी के शिकार हैं। कई जगहों पर पानी में लोहे (आयरन) की ज्यादा मात्रा भी बड़ी परेशानी का सबब है।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 32.7 लाख वर्गमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1913.6 अरब घनमीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिष के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। जो नदियों बची भी हैं वे भारी प्रदूशण की मारी हैं। हर घर को नल से जल या ऐसी कोई भी योजना तभी सफल है जब हम बरसात के पानी को सहजेने के संसाधन - नदी, तालाब, जोहड़, बावलियों ,कुओं आदि को उनके मूल स्वरूप में लाने का संकल्प नहीं करते।
यह आशंका पूरी दुनिया जता रही है कि जैव विविधता से हुई छेड़छाड़, जलवायु परिवर्तन और धरती के सतत बढ़ते तापमान के दुश्परिणाम अब अजीब-अंजान से जंतु-जन्य संक्रामक रोगों के रूप में सामने आने लगे हैं। इनके भय से सामाजिक दूरी बनाए रखने के उपायों के चलते बड़ी आबादी के सामने जीवकोपार्जन का संकट खउ़ा हो रहा है। जाहिर है कि ऐसे में स्वच्छ पानी की बतौर पेयजल और व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए पर्याप्त उपलब्धता ना केवल स्वास्थ्य का बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा का मामला है।
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