कूड़ा निस्तारण : ढूंढ़ना होगा समाधान
हालांकि दिल्ली के गाजीपुर के कूड़ा घर की क्षमता सन 2006 में आवश्यकता से अधिक हो गई थी, समय-समय पर अदालत चेताती रही है कि पचास मीटर ऊंचा कूड़े का ढेर धरती, समाज के लिए खतरनाक है, लेकिन अब जाकर सरकार जागी है।
उसे चिंता है कि कूड़े की नई खत्ती कहां बनाई जाए। यह सच है कि हर दिन कूड़ा तो निकलना ही है और उसके निबटान के आधुनिक वैज्ञानिक तरीके खोजे जाने चाहिए, लेकिन उससे भी अनिवार्य है कि समाज कूड़े को कम करना सीखे। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना है कि यह कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चौगुना बढ़ रहा है।
नेशनल इन्वायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है। हमारे देश में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकालता है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसद कूड़ा-कबाड़ा, घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है।
दिल्ली के नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश रहे हैं। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढोकर ले जाना, कितना महंगा और जटिल काम है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का ही ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसद कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत-सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाइकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। सनद रहे दिल्ली तो बानगी है, ठीक यही हालात लखनऊ, पटना, गुवाहाटी, सतना, जयपुर या चंडीगढ़ के भी हैं। हम कूड़ा निकाल कर शहर से दूर कहीं फेंक देते हैं और फिर वही कूड़ा हमारी जमीन, जल और जीवन को जहरीला करता जाता है। सुंदर शहरों में तनिक-सी बरसात के बाद बनते दरिया हों या फिर भूजल के जहरीला होने की चिंता या फिर तालाब समाप्त होने और नदियों के उथला होने के सरोकार, जरा गंभीरता से देखें तो यह सब कुछ उस कूड़े के कुप्रभाव हैं। हमारे देश के शहर हर दिन लगभग 1,50,000 टन ठोस कचरा (एमएसडब्ल्यू) उगल रहे हैं, जिसमें से महज 25 फीसद का प्रसंस्करण हो पाता है। बाकी बचा कचरा या तो खुले में फेंक दिया जाता है, या जला दिया जाता है। वर्ष 2030 तक कचरे की यह मात्रा 4,50,000 टन प्रति दिन हो जाएगी। सालों से हमारे यहां इस कूड़े से बिजली बनाने की चर्चा रही है, लेकिन यह प्रयोग बुरी तरह असफल रहा। इस तरह का पहला संयंत्र (डब्ल्यूटीई) दिल्ली के तिमारपुर में वर्ष 1987 में लगा लेकिन चला नहीं। तब से देश में 130 मेगावाट क्षमता के चौदह और डब्ल्यूटीई संयंत्र लगाए गए, लेकिन इनमें से आधे बंद हो चुके हैं। बाकी पर पर्यावरण नियमों की अनदेखी की जांच चल रही है।
दिल्ली के ओखला संयंत्र पर तो पच्चीस लाख का जुर्माना भी हो गया। इन संयंत्रों के फेल होने का कारण कचरे की गुणवत्ता और संघटन है। कचरे में नमी ज्यादा होती है। इसलिए उसे जलाने में अधिक ऊर्जा लगती है जबकि बिजली कम मिलती है। कूड़ा अब नये तरह की आफत बन रहा है, सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी और अन्य प्रयास भी कर रही है। लेकिन असल में कोशिश तो कचरे को कम करने की होनी चाहिए। इसके लिए केरल में कन्नूर जिले से सीख ले सकते हैं, जहां पूरे जिले में बॉल पेन के इस्तेमाल से लोगों ने तौबा कर ली है क्योंकि इससे हर दिन लाखों रिफिल का कूड़ा निकलता था। पूरे जिले में कोई भी दुकानदार पॉलीथीन की थैली या प्लास्टिक के डिस्पोजेबल बर्तन ना तो बेचता है और ना ही इस्तेमाल करता है। सबसे बड़ी बात उच्च होती जीवन-शैली में कचरा-नियंत्रण और उसके निबटान की शिक्षा स्कूली स्तर पर दिया जाना अनिवार्य बनाना जरूरी है।
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