मानसिक इलाज की सुधरे दशा
अभी तीन साल पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और अखिल भारतीय आयुíवज्ञान संस्थान के एक शोध से पता चला था कि देश में चौथी सबसे बड़ी बीमारी अवसाद या डिप्रेशन है। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों को यह ही पता नहीं है कि उन्हें किसी इलाज की जरूरत है। बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में बढ़ती भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढीले होना, इस दौर की कुछ ऐसी त्रसदियां हैं जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही है। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर आते नहीं हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।
इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि विज्ञान के इस युग में मनोविकारों को एक रोग के बजाय ऊपर वाले की नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है। तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए बहुत से लोग डॉक्टर के पास जाने के बजाय पीर-फकीरों, मजारों-मंदिरों में जाते हैं। सामान्य डॉक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं। इसके चलते ओझा, पुरोहित, मौलवी, तथाकथित यौन विशेषज्ञ अवैध रूप से मनोचिकित्सक का काम कर रहे हैं।
विश्व स्वास्थ संगठन ने स्वास्थ्य की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि यह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वास्थ्य की अनुकूल चेतना है, ना कि केवल बीमारी की गैर मौजूदगी। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य, एक स्वस्थ शरीर का जरूरी हिस्सा है। यह हमारे देश की कागजी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी दर्ज है। वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था। आम डॉक्टर के पास आने वाले आधे मरीज उदासी, भूख, नींद और सेक्स इच्छा में कमी आना जैसी शिकायतें लेकर आते हैं। वास्तव में वे किसी ना किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं। देश भर में मानसिक रोगियों के इलाज के लिए कोई 32 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि इनकी संख्या मुश्किल से नौ हजार है। इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं। यह रोग भयावह है और इसका इलाज लंबे समय तक चलता है, जो खर्चीला भी है। इसके बावजूद किसी भी स्वास्थ्य बीमा योजना में इसे शामिल नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में बीमा नियामक संस्था से यह पूछा भी है कि मानसिक रोग को बीमा सुविधा के दायरे में क्यों नहीं लाया गया है।
उधर सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल उपेक्षित हैं। वर्ष 2018-19 में केंद्र सरकार का इस मद में सालाना बजट 50 करोड़ था, जिसे 2019-20 में घटा कर 40 करोड़ कर दिया गया। दिनों-दिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है। विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं। बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना ऐसे रोगियों की आदत बन जाती है। काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना इनके प्रारंभिक लक्षण हैं। भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है। जल्द ही दिमाग प्रभावित होता है और पनप उठते हैं मानसिक रोग।
जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के रूप में ही जाने जाते हैं। ये इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैये और सरकारी उदासीनता की गवाह हैं। तभी 2017 में 10,246 और 2018 में 10,134 मानसिक रोगियों ने आत्महत्या कर ली थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देश भर के पागलखानों की हालत बदतर है। इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान (निमहान्स) में एक परियोजना शुरू की गई थी। पर उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है। यह भी संसाधनों का रोना रोते हुए फाइलों में ठंडी हो गई।
हमारे देश में केवल 43 सरकारी मानसिक रोग अस्पताल हैं। इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था तीन जगह ही है। इन अस्पतालों में 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत से बहुत कम है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में भी इस बात का प्रमाण है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है। आज भी अधिकांश मानसिक रोगी बगैर इलाज के अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं। इन तमाम पहलुओं को समझते हुए हमें इस बारे में निर्णय लेना होगा।
देश-समाज में मानसिक रोग, रोगियों और उनके इलाज को लेकर व्यापक भ्रांतियां हैं, जिन्हें समङो बिना इस समस्या को समाप्त नहीं किया जा सकता
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