5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
न निरापद न ही सस्ती है परमाणु-बिजली
पंकज चतुर्वेदी
दो बातों से कोई इंकार नहीं कर सकता- देश के समग्र विकास के लिए उर्जा की जरूरत है, दूसरा कोयला जैसे उत्पाद पर आधारित बिजली उत्पादन के दिन ज्यादा नहीं हैं, ना तो इतना कोयला उपलब्ध है और उससे बेइंतिहा पर्यावरणीय संकट खड़ा हो रह है, सो अलग। सालों साल बिजली की मांग बढ़ रही है, हालांकि अभी हम कुल 4780 मेगावाट बिजली ही परमाणु से उपजा रहे हैं जो कि हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसदी ही है। भारत के पास एक अति महत्त्वाकांक्षी स्वदेशी परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम है, जिससे अपेक्षा है कि वर्ष 2024 तक यह 14.6 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा, जबकि वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की यह क्षमता 63 गीगावाट हो जाएगी। लेकिन अनुमान है कि हमारे परमाणु उर्जा घर सन 2020 तक 14600 मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और सन 2050 तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई अणु-शक्ति से आएगा।
एक तरफ उर्जा की चाह और दूसरी तरफ अब दुनियाभर के विकसित देश भी महसूस कर रहे हैं कि परमाणु उर्जा को बिजली में बदलना, उर्जा का निरापद विकल्प नहीं है। इसके साथ सबसे बड़ा खतरा तो परमाणु बम को रोकने के लिए हो रहे प्रयासों पर है। जब तक परमाणु उर्जा से बिजली बनेगी, तब तक दुनिया पर आज से 70 साल पहले जापान के हीरोशिमा में गिराए गए बम से उपजी त्रासदी की संभावनाएं बनी रहेंगी। भले ही आज का सभ्य समाज किसी दूसरे देश की आबादी को बम से प्रहार ना करे, लेकिन परमाणु रियेक्टरों में दुर्घटनाओं की संभावनाएं हर समय बम के असीम दर्द को बरकरार रखती हैं।
अधिक बिजली की लालसा में लोग भूल जाते हैं कि 11 मार्च 2011 को जापान में आई सुनामी के बाद फुकुशिमा के परमाणु बिजली संयंत्र का रिसाव अकेले जापान ही नहीं आधा दर्जन देशों के अस्तित्व पर संकट बन गया था। सनद रहे दुनिया में जापान ही वह देश है जिसने परमाणु त्रासदी को पीढ़ियों में भोगा है। उस समय सारी दुनिया में बहस चली थी कि परमाणु उर्जा कितनी उपयोगी और खतरनाक है। सभी ने माना था कि परमाणुु षक्ति को बिजली में बदलना षेर पर सवारी की तरह है- थोड़ा चूके तो काल का ग्रास बनना तय है। एटमी ताकत पाने के तीन प्रमुख पद हैं - यूरेनियम का खनन, उसका प्रसंस्करण और फिर विस्फोट या परीक्षण। लेकिन जिन लोगों की जान-माल की कीमत पर इस ताकत को हासिल किया जा रहा है; वे नारकीय जीवन काट रहे हैं ?
परमाणु उर्जा से बनने वाली बिजली का उपभोग करने वाले नेता व अफसर तो दिल्ली या किसी शहर में सुविधा संपन्न जीवन जी रहे हैं , परंतु हजारों लोग ऐसे भी हैं जो इस जुनून की कीमत अपना जीवन दे कर चुका रहे हैं । जिस जमीन पर परमाणु ताकत का परीक्षण किया जाता रहा है, वहां के लोग पेट के खातिर अपने ही बच्चों को अरब देशों में बेच रहे हैं । जिन इलाकों में एटमी ताकत के लिए रेडियो एक्टिव तत्व तैयार किए जा रहे हैं, वहां की अगली पीढ़ी तक का जीवन अंधकार में दिख रहा है । जिस जमीन से परमाणु बम का मुख्य मसाला खोदा जा रहा है, वहां के बाशिंदे तो जैसे मौत का हर पल इंतजार ही करते हैं ।
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के जादुगोड़ा में भारत की पहली और एकमात्र यूरेनियम की खान को लें या रावतभाटा(राजस्थान) में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने के संयत्र को , या फिर शौर्य भूमि पोकरण हर जगह स्थानीय आबादी परमाणु उर्जा की बड़ी कीमत अपने स्वास्थ्य और आनुवांशिकी परिवर्तन के रूप में चुका रही है। लगा है , लेकिन एटमी ताकत को बम में बदलने के लिए जरूरी तत्व जुटाने का भी यह मुख्य जरिया है । इन इलाकांे में षोध कर रहे कई जानकारों ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि विकिरण की थोड़ी सी मात्रा भी शरीर में परिवर्तन के लिए काफी होती है । विकिरण जीव कोशिकाओं को क्षति ग्रस्त करता है । इससे आनुवांशिकी कोशिकाओं में भी टूट-फूट होती है । आने वाली कई पीढ़ियों तक अप्रत्याशित बीमारियों की संभावना बनी रहती है ।
यह भी अब खुल कर सामने आ गया है कि परमाणु बिजली ना तो सस्ती है और ना ही सुरक्षित और ना ही स्वच्छ। हम परमाण्ुा रियेक्टर व कच्च्ेा माल के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं, वहां से निकलने वाले कचरे के निबटारे में जब जर्मनी व अमेरिका को कोई विकल्प नहीं दिख रहा है तो हमारे यहां यह कचरा निरंकुश संकट बनेगा ही। अणु उर्जा को विद्धुत उर्जा में बदलने के लिए यूरेनियम नामक रेडियो एक्टिव को बतौर इंधन प्रयोग में लाया जाता है। न्यूट्रान की बम वर्शा पर रेडियो एक्टिव तत्व में भयंकर विखंडन होता है। इस धमाके पर 10 लाख डिगरी सेल्सियस की गर्मी और लाखों वायुमंडलीय दवाब उत्पन्न होता है। सो मंदक के रूप में साधारण जल, भारी जल, ग्रेफाईट और बैरेलियम आक्साईड का प्रयोग होता है। षीतलक के रूप में हीलियम गैस संयत्र में प्रभावित की जाती है। विखंडन प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए केडमियम या बोरोन स्टील की छड़ें उसमें लगाई जाती है। बिजली पैदा करने लायक उर्जा मिलने के बाद यूरेनियम, प्यूटोनियम में बदल जाता है। जिसका उपयोग परमाणु बम बनाने में होता है। इसके नाभिकीय विखंडन पर उर्जा के साथ-साथ क्रिप्टान, जिनान, सीजियम, स्ट्रांशियम आदि तत्व बनते जाते हैं। एक बार विखंडन षुरू होने पर यह प्रक्रिया लगभग अनंत काल तक चलती रहती हैं। इस तरह यहां से निकला कचरा बहेद विध्वंसकारी होता है। इसका निबटान सारी दुनिया के लिए समस्या है।
भारत मे हर साल भारी मात्रा में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वत, गंगा-सिंधु के कछार या रेगिस्तान में तो डाला नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं भूकंप की आशंका है तो कही बाढ़ का खतरा। कहीं भूजल स्तर काफी ऊंचा है तो कहीं घनी आबादी। यह पुख्ता खबर है कि परमाणु उर्जा आयोग के वैज्ञानिकों को बुंदेलखंड, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश का कुछ पथरीला इलाका इस कचरे को दफनाने के लिए सर्वाधिक मुफीद लगा और अभी तक कई बार यहां गहराई में स्टील के ड्रम दबाए जा चुके हैं।
आने वाली पीढ़ी के लिए उर्जा के साधन जोड़ने के नाम पर एटमी ताकत की तारीफ करने वाले लोगों को यह जान लेना चाहिए कि क्षणिक भावनात्मक उत्तेजना से जनता को लंबे समय तक बरगलाया नहीं जा सकता है । यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार, कुपोषित और कमजोर होंगे तो लाख एटमी बिजली घर या बम भी हमें सर्वशक्तिमान नहीं बना सकते हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
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