ढह रही है उधार के सपनों की इमारतें
लॉक डाउन के उलटी गिनती के साथ ही उम्मीदें और अपेक्षाओं के बयार के बीच नयी चिंताएं भी अपने लिए स्थान बना रही हैं . कुछ करोड़ मजदूर घर लौट गए , कुछ लाख लघु-माध्यम उत्पादन इक्काई, व्यापार बंद हो गए -- आये रोज सफ़ेद कोलर कम्पनियाँ जैसे - उबर , ज़ोमेतो , आदि से लोगों की नौकरियां जाने की खबरें हैं , नोयडा, गुरुग्राम में कई सौ कम्पनियां ऐसी हैं जो दस से सौ लोगों के साथ सॉफ्ट वेयर , आउट सोर्स मेंटेनेंस जैसे काम करती हैं - टूरिज्म- होटल जैसे काम --- उनमें से लगभग पचास फीसदी लोगों की नौकरियां छूट चुकी हैं , अकेले दिल्ली एन सी आर में मिडिया से जुड़े दो हज़ार लोग घर बैठ चुके हैं . कार बेचने वाली कम्पनी हों या हाई एंड शो रूम -- बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो रहे हैं .
कामगार घर लौटे तो वे मेहनत- मजदूरी कर सकते हैं लेकिन जीवन के पच्चीस साल किसी अखबार के सम्पादकीय विभाग में जुड़े रहे तो परचून की दूकान भी नहीं चला सकते . छोटे कस्बों में जाओ तो इस तरह का कोई रोजगार नहीं मिलेगा , गगन चुम्बी ईमारतों में ऐसी कई आवाज़े घुट रही हैं -- जिनमें अभी तीन महीने पहले तक पति-पत्नी दोनों काम करते थे लेकिन अब एक कि नौकरी गयी और दुसरे का वेतन आधा हो गया . कहने को घर में दो कार खड़ी हैं लेकिन किश्तें देने को पैसा नहीं -- मकान की किश्त तो दूर सोसायटी का मेंटेनेंस देने के भी लाले पड़े हैं -- इस समय न तो कार बिक रही है और न ही फ्लेट --- न किसी को बोल सकते हैं न बच्चों की जरूरतों में कटौती कर सकते हैं -- कई- कई घर ऐसी दुविधा में घुट रहे हैं .
कल ही इंदौर में मेरे एक परिचित से बात हो रही थी-- उनकी एक औद्योगिक ईकाई है -- जो माल बाज़ार में उधार दिया उसका पैसा लगभग डूब गया- नया काम शुरू करना हो तो पूंजी नहीं क्योंकि सारी बचत तीन महीने में खा गये -- कुछ माल बना लो तो बाज़ार में खपत नहीं ---- फिर मजदुर को नगद देना है -- ऐसे परिवार देश भर में लाखों में हैं -- उनकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है लेकिन अपना जीवन स्तर बनाये रखने का दवाब जबर्दस्त हैं .
ऐसा ही एक और वर्ग है, सरकारी सेवा से रिटायर्ड, या जमापूंजी को बैंक या रियल एस्टेट या शेयर में लगा कर जीवकोपार्जन करने वाला। बैंक में जमा पर ब्याज दरें गिरने, प्रोपर्टी का किराया न मिलने और शेयर बाज़ार के लगातार नकारात्मक होने से इस वर्ग के करोड़ों लोग बेहद दुविधा और कुंठा में हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन आय कम हो गयी ऊपर से महंगाई भत्ता बन्द।
कोरोना का हल्ला जैसे जैसे शांत होगा , इस मध्य वर्ग के दर्द गहरे होंगे-- ये पलायन नहीं कर सकते- यह कोई दूसरा काम नहीं कर सकते - जीवन स्तर में बदलाव के लिए इन्हें अपनी आत्मा को कुचलना होगा -- ऐसे लोग आत्मघाती हो जाते हैं .
हाल
ही में कई ऐसी घटनाएं देश बाहर से सामने भी आयीं जिनमें हताश लोगों ने अपनी जीवन
लीला को ही समाप्त कर लिया . बारीकी से देखें तो मध्य वर्ग के सपनों की दुनिया अलग
अलग कर्ज ओर उसकी ई एम् आई पर ही चमकती -दमकती
दिखती हैं . आय का बड़ा हिस्सा किश्तों में ही जाता है , आज जब आय के साधन
या तो बंद हो रहे हैं या कम हो रहे हैं लेकिन मासिक बेंक कर्जे की किश्त घट नहीं
रही , ऐसे में इंसान का अवसाद में जाना लाजिमी है . आखिर यह वर्ग अकेला भी तो हैं
. संयुक्त परिवार की परम्परा में यह तो था
कि यदि घर का कोई एक सदस्य कम कमाता है या कमजोर है तो घर की चाहार दीवारी में सब
एक साथ एक सामान दिख जाते थे . कुछ मजबूरियां ओर कुछ सहिष्णुता की कमी ने परिवार
को बिखेरा ओर आज उत्पन्न त्रासदी में मध्य वर्ग के पास कोई कंधा नहीं है जिसके आसरे
वह इस विषम परिस्थिति से भले ही ना उबर पाए, कम से कम सांत्वना तो मिले .हालात दुश्वार जरूर हैं पर मध्यम वर्ग के अधिकांश परिवारों की
ये दुश्वारियां उनकी अपनी ही देन हैं। सबसे बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का एकल
परिवारों में विघटन है। सब साथ हों तो मिलजुल कर कोई न कोई रास्ता ढूँढ़ ही लेंगे।
लेकिन यहाँ तो सबकी अपनी ढफली अपना राग है। एक परिवार चार में बँटकर चार जगह
किराया देता है। आखिर क्यों? झूठे अहंकार की बुनियाद पर खड़े इस
वर्ग के लिए दो ही चीजें संभव हैं। या तो झूठा अहंकार छोड़ एकजुट हो जाओ, कम से कम अपने परिवारों के साथ। वरना एक बड़े हिस्से को
बर्बाद हो जाने दो। वक्त और परिस्थितियों से समझौता करके ही आगे बढ़ने का मार्ग
ढूँढ़ा जा सकता है।
हमारी शिक्षा प्रणाली ने भले ही बहुत
ज्ञानवान लोगों को तैयार कर दिया लेकिन
स्कूल स्तर पर कोई पाठ, कोर्र्स ऐसा नहीं है जो युवाओं को अपनी भावनाओं पर
नियंत्रण करना, खासकर विपरीत परिस्थितियों में, सीखा सके , हमारे देश में पढ़े लिखे
लोगों से होने वाले अपराध का बड़ा हिस्सा तात्कालिक प्रतिक्रया या भावनाओं में बह
आकर गलत निर्णय लेने के कारण होते हैं , आज भी आर्थिक स्थिति पर आये संकट में मानसिक संतुलन बनाये रखना ,
झूठे दिखावे की परवाह न कर अपने खर्चों में कटौती करना ओर "पहले जैसा
जीवन" ना जी पाने को किसी पाप की तरह से देखने से यदि मुक्त हो लिया जाए तो
हम नए जोश के साथ नई तरह से जिंदगी जीनी की कल्पना कर
सकते हैं
आज के हालत में
समाज को थोड़ा सतर्क होना पड़ेगा -यदि आपके आस पास यदि ऐसे लोग हैं जिनकी नौकरी का
संकट है, जिनके वेतन कम हो गए हिं उनसे बातचीत करते रहें , उनका हौसला भी बढ़ाएं -- वे कहेंगे नहीं
लेकिन यदि महसूस हो तो उनका सहयोग भी करें -- ये लोग न सरकारी राशन ले सकते हैं और
न ही खाने की लाईन में लग पायेंगे
यह वर्ग बहुत
बेसहारा और उपेक्षित छोड़ दिया गया है और यह बेहद भावुक भी है -- इसे नए हालात में
ढलने की आदत नहीं -- इन्होने केवल प्रगति- विकास, जीडीपी देखी है और उस को ही लक्ष्य
माना है -- पराभव इनके लिए अकल्पनीय है . इनका साथ भी वैसे ही देना है जैसे विस्थापित
कामगारों के लिए हर-गाँव -शहर से मदद के
हाथ उठे थे . साथ ही मध्य वर्ग के लिए व्यापक स्तर पर मनोवैज्ञानिक सलाह , आपस में
मिलना संभव न हो तो फोन या वीडीयो काल करना समाज की जिम्मेदारी है , काश इतने बड़े
बीस लाख करोड के पैकेज में इस वर्ग के लिए कुछ महीने के लिए ब्याज से मुक्ति के
साथ मासिक कर्ज किश्त से मुक्ति का भी प्रावधान होता , यहाँ जानना जरुरी है कि
दैनिक उपभोग वस्तुओं की खरीद के साथ बाज़ार को संचालित करने वाला यह वर्ग यदि अवसाद
या कुंठा में रहेगा तो उत्पादन, सर्विस ओर निवेश हर मैदान में आर्थिक विकास की
संभावना नगण्य ही रहेगी .
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