भविष्य को संवारने का सटीक समय
इस बार देर से ही सही, पूरे देश में बीते सप्ताह गर्मी का व्यापक असर दिखा है। हालांकि अनेक भौगोलिक कारणों से आजकल उत्तर भारत में तापमान कुछ हद तक सामान्य से कम जरूर है, किंतु महज एक सप्ताह पूर्व ही पारा 47 डिग्री तक पहुंच चुका था। ठीक इसी समय कोरोना से पैदा हालात के कारण गांव लौटे लोगों के कारण आंचलिक क्षेत्रों में आबादी बढ़ गई है। लोगों की संख्या में एकाएक हुई वृद्धि के साथ पानी की मांग दैनिक कार्यो के अलावा अनाज पैदा करने के लिए खेती-किसानी में भी बढ़ रही है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में यदि मनरेगा और शहरों से लौटे लोगों का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो गांव में बेहतर जीवन की कल्पना को साकार किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में पलायन का मूल कारण पानी की कमी है। वहां टीकमगढ़ जैसे जिले, जहां एक हजार तालाब हैं, लेकिन साठ फीसद आबादी एक-एक बूंद पानी को तरसते हुए पलायन करती है। असल में लोगों को पानी जैसी जरूरतों के लिए सरकार पर निर्भरता और प्रकृति को कोसने की आदतों से मुक्त करना कोई कठिन काम नहीं है। आज भी गांवों में ऐसे लोग हैं जो डिग्रीधारी ज्ञान की तुलना में अपने पूर्वजों के देशज ज्ञान पर ज्यादा भरोसा करते हैं। यदि इन लोगों के ज्ञान एवं आम लोगों की मेहनत में सरकारी बजट का तड़का लग जाए तो सूख गए ताल-तलैयों, नदी-नालों को संवार कर जल संकट मुक्ति का सफल यज्ञ कर सकते हैं। पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट मनरेगा से आसानी से लिया जा सकता है। हकीकत में तालाबों की सफाई और उन्हें यथोचित गहराई प्रदान करने का काम अधिक खर्चीला नहीं है, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। तालाबों में भरी गाद वर्षो से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थो के कारण ही उपजी हैं, जो उम्दा दर्जे की खाद हैं।
रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है, यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट एवं अन्य प्राकृतिक खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खोदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई। यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेशकीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही तालाबों के रखरखाव से सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो, न तो तालाबों में गाद बचेगी और न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की समस्या रहेगी।
देश भर में बीते दिनों ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब वहां के कुछ स्थानीय उत्साही युवकों ने नदियों को इस तरह से खोदा कि अब उसमें साल भर पानी रहता है। जल-संकट से जूझ रहे समाज ने नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियां बनाकर उनका पानी तालाब में जुटाने जैसे अनगिनत प्रयोग किए हैं और प्रकृति के कोप पर विजय पाई है। यह जरूरी है कि लोग सरकार पर निर्भरता छोड़कर घर से निकलें, तपती गरमी में अपने मोहल्ले-कस्बों के पारंपरिक जल संसाधनों-तालाब, बावड़ी, कुओं आदि से गाद निकालने, गहरीकरण एवं मरम्म्त का काम करें। यह गाद जिन खेतों में पहुंचेगी, वे सोना उगलेंगे। बस एक बात का ख्याल रखना होगा कि पारंपरिक जलस्नेतों के गहरीकरण में भारी मशीनों के इस्तेमाल से परहेज करें।
भौगोलिक दशाओं के अनुकूल हो कार्यप्रणाली : मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी पर गौर करें। कोई दो दशक पहले वहां सूखा राहत के तहत तालाब को गहरा करने का काम शुरू किया गया। इंजीनियर साहब ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खोदाई करवा दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, लेकिन यह क्या? अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। असल में हुआ यह कि बगैर भौगोलिक परिस्थितियों को जाने-समङो की गई खोदाई में तालाब की वह ङिार टूट गई, जिसका संबंध सीधे इलाके की ग्रेनाइट भू-संरचना से था। पानी आया और ङिार से बह गया। यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते थे और इसके बदले में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
अभी ठिकाने से बादल बरसने में कम से कम 20 से 25 दिन बकाया हैं। यदि समाज सप्ताह में केवल तीन दिन अपने पुरखों की देन जल संसाधनों की सफाई के लिए घर से बाहर निकले और उनमें गंदा पानी जाने से रोकने के प्रयास करे तो जान लें कि आने वाले दिन ‘पानीदार’ होंगे। यह भी जान लें कि धरती को चीर कर पानी निकालने जैसे प्रयोग तात्कालिक तो हैं, लेकिन बढ़ती आबादी, जल की जरूरत में इजाफा और जलवायु परिवर्तन के अबूझ खेल के सामने ऐसी बाजीगरी बेअसर ही है और इसके लिए लोक विज्ञान की जल संरक्षण नीतियों की शरण में जाना ही एकमात्र निदान है। ये कम लागत के हैं, जन भागीदारी के हैं और पर्यावरण पर कोई विपरीत असर नहीं डालते हैं। इनसे रोजगार भी मिलेगा और जीवन का अनिवार्य तत्व जल भी।
पंकज चतुर्वेदी
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