तालाबों को बचाने के लिए सशक्त निकाय की जरूरत
आज
जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए
वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत
में बड़े परिणाम दे सकता है। इस बार बारिश बहुत कम हाने की चेतावनी से देष
के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इसलिए भी गहरी हैं कि
यहां रहने वाली सोलह करोड़ से ज्यादा आबादी के आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के
लिए भूजल पर निर्भर है। वैसे भी भूजल पाताल में जा रहा है और इस बार जब
बारिश हुई नहीं तो रिचार्ज भी हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा। जमीन की
नमी बरकरार रखनी हो या फिर भूजल का स्तर या फिर धरती के बढ़ते तापमान पर
नियंत्रण, तालाब या झील ही ऐसी पारंपरिक संरचनाएं हैं, जो बगैर किसी खास
खर्च के यह सब काम करती हैं। यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को
सरकारी भाषा में ‘‘जल संसाधन’’ माना नहीं जाता है , वहीं समाज और सरकार ने
उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमोें में बंटे हुए
हैं। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को
पूरा व समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट सभी
के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक
तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है।
एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के
समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता
था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले
तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस
तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4
लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15
प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई
20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से
कम नहीं होगा। सालभर प्यास से कराहने वाले बुंदेलखंड के छतरपुर शहर के
किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रूख कितना
कोताहीभरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी की भोपाल बेंच ने सख्त आदेश दिया कि
इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रशासन
मापजोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की
मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आर आर आर) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं
योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को
अमली जामा पहनाना था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की
ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुएं, बावड़ी। यही नहीं सरकार
का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर
सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव
से सूख रहे है। तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्रोत
हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे
तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को
रोजगार मिलता है। असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश
के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व, विभाग, वन विभाग, पंचायत,
मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ...शायद और भी बहुत कुछ हों। अभी
तालाबों के कई सौ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि
तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है,
जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती
हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की
अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही
इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र
में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी
परंपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो ना तो तालाबों में गाद
बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी होगी। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है
कि तालाबों को जल संसाधन मान कर इनका जिम्मा अलग से एक महकमे को दिया जाए।
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