मोमबत्ती की ऊष्मा वहां तक क्यों नहीं पहुंचती ?
पंकज चतुर्वेदी
बीती नवरात्रि में एक ही रात में दिल्ली में दो
बच्चियों के साथ कुकर्म हुआ- ढाई साल व चार साल की बच्चियां। नवरात्रि की अष्टमी
की रात को रामलीला के दौरान दिल्ली में एक पांच साल की बच्ची के साथ यौन हिंसा
करने का प्रयास हुआ। अभी पिछले सप्ताह ही एक चार साल की बच्ची के साथ दरिंदों ने
ना केवल मुंह काला किया था बल्कि उसे कई जगह ब्लैड मार कर घायल कर दिया था। दिल्ली
से सटे नाएडा के छिजारसी गांव में उसी शुक्रवार की रात 12वीं में पढने
वाली एक बच्ची ने इस लिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे गांव के कुछ षोहदे लगातार
छेड़ रहे थे और उनके परिवार द्वारा पुलिस में कई बार गुहार लगाने के बावजूद लफंगों
के हौंसले बुलंद ही रहे। यह तब हो रहा है जब निर्भया की मौत के बाद हुए देश व्यापी
आंदोलन व नाबालिक बच्चें से दुश्कर्म के लिए बनाए गए विषेश सख्त कानून में कई
मुकदमें दर्ज हो च.ुके है।। पूरे देश में यह बात पुहंच चुकी है कि निर्भया कांड के
एक को छोड़ कर सभी आरोपियों को फंासी की सजा सुनाई जा चुकी है। बहुत षोर कर रहे थे
तो बीते मंगलवार को संसद ने किषोर अपराध कानून में भी माकूल बदलाव कर दिया।
हालांकि निभर्या वाले कांड में न्याय तो हो
चुका है, अपराधियों को फंासी पर चढाने की विधिसम्मत प्रक्रिया यानि अपील आदि
भी चल रही है। कथित नाबालिक आरोपी कानून के मुताबिक सजा काट कर अभी भी नजरबंदी में
है। निर्भया या ज्योति के माता पिता का गुस्सा लाजिमी है। लेकिन यह बात तय है कि
उस मामले में न्याय हो चुका है और अब जो मांग हो रही है वह बदले की हैं और इसकी
कानून में कोई गुंजाईश नहीं है। दुखद तो यह है कि एक दुखी मां के दर्द पर सियासत
हो रही है, एक राजनीतिक दल की छात्र शाखा दिल्ली में
प्रदर्षन कर रही है और उनके हाथ में थामी गई तख्तियों में उनकी मांग तो दिखती नहीं
है, दिखता है तो संगठन का नाम। इस बीच कुछ लंपटों ने प्रचारित किया व सोशल
मीडिया पर मुंबई का एक फोटो प्रचारित कर दिया कि यही निर्भया कांड का नाबालिक
आरोपी है। असल में इसका उद्देश्य न्याय
की मांग से ज्यादा किसी समाज विषेश के लिए नफरत पैदा करना है। यह कुछ बानगी है कि
अभी भी समाज के जिम्म्ेदार हिस्से का ‘‘माईंड सेट’’ औरतो ंके प्रति
बदला नहीं है व मांग, मोमबत्ती और नारे उछालने वाले असल में इस आड़
में अपने चने भुना रहे हैं। ये वही लेाग है जो छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी या मीना
खल्को या ऐसे ही सैंकडों मामलों में पुलिस द्वारा औरतों के साथ किए गए पाशविक
व्यवहार पर केवल इस लिए चुप रहते हैं क्योंकि वहां उनकी विचारधारा का राज है।
तीन साल पहले दिल्ली व देश के कई हिस्सों में
उस अनाम अंजान ‘‘दामिनी’ के लिए खड़ा हुआ
आंदोलन, आक्रोश, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के
ईद-गिर्द एक सप्तहा में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या
स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार कहीं ना कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े
करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है जिसके मंचन के पात्र, संावद,
मीडिया
आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देशक महज सत्ता तक पुहंचने के लिए
बच्चियों के साथ वहषियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर
मंतर पर प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तिया केवल उन्ही लोगों का झकझोर पा रही हैं जो
पहले से काफी कुछ संवदेनशील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए
-अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और
समूचा तंत्र भी।
अभी हाल के ही दिनों में दिल्ली कई-कई बार शर्मसार हुई। अगस्त में ओखला में एक
सात साल की बच्ची के साथ षारीरिक षोशण कर उसके नाजुक अंगों को चाकू से गोद दिया
गया। सितंबर में द्वारका में एक पांच साल की बच्ची के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। अभी 11
अक्तूबर को केशवपुरम में एक झुग्गी बस्ती की बच्ची के साथ कुकर्म कर उसे रेल की
पटरियों पर मरने को छोड़ दिया गया। यह तो बस फौरी घटनाएं हैं और वह भी महज दिल्ली
की। दामिनी कांड में सजा होने के बाद व उससे पहले भी ऐसी दिल दहला देने वाली
घटनाएं होती रहीं, उनमें से अधिकांश में पुलिस की लापरवाही चलती
रही, वरिश्ठ नेता बलात्कारियों कों बचाने वाले बयान देते रहे । दिल्ली में
दामिनी की घटना के बाद हुए देशभर के धरना-प्रदर्षनों में शायद करोड़ो मोमबत्तिया
जल कर धुंआ हो गई हों, संसद ने नाबालिक बच्चियों के साथ छेडछाड़ पर
कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं
लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुव्र्यवहार को ले कर
जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर
काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला
लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के शरीर को रोंदना एक अपराध
नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी
परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के शरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या
इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे
हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है। हालांकि जान कर
आष्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या
फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल ; बलात्कार के
आरोप में आए कैदी की , पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जें का
माना जाता है और उसकी पिटाई या टाॅयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवश करने जैसे
स्वघोशित नियम लागू हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जेल जिसे असामाजिक लोगों की
बस्ती कहा जाता है, जब वहां बलात्कारी को दोयम माना जाता है तो
बिरादरी-पंचायतें- पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं। खाप,
जाति
बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन
के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके
पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है।
ऐसा नही है कि समय-समय पर बलात्कार या शोषण के मामले चर्चा में नहीं आते
हैं और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करती हैं, । इक्कीस साल पहले
भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी को बाल
विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में दी गई थीं
उस ममाले को कई जन संगठन सुप्रीम कोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था।
लेकिन जान कर आष्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है । हाई कोर्ट से उस पर
अंतिम फैसला नहीं आ पाया है । इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो
मुजरिमों की मौत हो चुकी है। ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्षों,
तात्कालिक
सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं
कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई।
जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे।
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का
षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने अपने जहग लाजिमी हैं लेकिन
जब तक बलातकार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब
तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी;
परिणा
अधूरे ही रहें्रे। आज भी हमारे देश में किसी को प्रताडित करने या किसी के प्रति
अपना गुससा जताने का सबसे भदेस, लोकप्रिय, सर्वव्यापी ,
सहज,
बेरोकटोक,
बगैर
किसी कानूनी अड़चन वाला तरीका है - विरोधी की मां और बहने के साथ अपने षारीरिक
संबंध स्थापित करने वाली गाली देना। अब तो यह युवाओं का तकियाकलाम सा बनता जा रहा
है। आज भी टीवी पर खबरिया चैनलों से ले कर सास-बहू वाले सीरियलों वाले चैनल तक ऐसे
विज्ञापन चल रहे हैं जिसमें औरत के गुदाज शरीर को जितनी गहराई तक देखा जा सके,
दिखा
कर माल बेचा जा रहा है। आज भी देश में हर रोज करोड़ों चुटकुले, एमएएस
क्लीप और वीडियों फुटेज बेचे, खरीदे, षेयर किए जा रहे
हैं, जो औरत के शरीर को मसलने, मजा लेने के लिए उततेजित करते हैं।
अकेले फेस बुक पर ही ‘‘भाभी’’ जैसे पवित्र रिष्ते के नाम पर कोई एक
दर्जन पेज हैं जो केवल नंगापन और अष्लीलता परोस रहे हैं। अखबारों के क्लासीफाईड
मसाज, एस्कार्ट के विज्ञापनों से भरे पड़े हैंजिनके बारे में सभी को पता
है िकवे क्या हैं। मामला पटियाला को या
फिर ग्रेटर नोएडा का सभी जगह पुलिस का रवैया वैसा ही है मामले को दबाने, हल्का
करने, कुछ छिपाने का प्रयास करने का। बीते दस दिनों के दौरान देशभर की
अदालतों में ना जाने कितने बलात्कार के मामलों की सुनवाई भी हुई होगी लेकिन कहीं
से कोई ऐसी खबर नहीं आई जिसने ‘दामिनी’’ के साथ हुए
दुश्कर्म के कारण कुछ बदलाव के संकेत दिए हों।
फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली
बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए
जाते , अपने अहमं की
तुश्टि के लिए औरत के शरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वृत्ति पर अंकुश नहीं
लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प
लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोशिश
एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा,
असंतुश्टि
वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम
सिंह-मुकेश’’ की पैदाईश को रोका नहीं जा सकेगा।
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