My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 21 सितंबर 2014

Tribute to Pro. Bipan Chandra

एक छात्र कि नज़र में विपिन चंद्र
आलोक वाजपेयी

प्रोफेसर बिपन चन्द्र (1928-2014) भारत के ऐसे इतिहासकार रहे, जिनके नाम से विश्व प्रसिद्ध
इतिहासकार, इतिहास के शोधार्थी, शिक्षित जनमानस एवं स्कूली छात्र तक सभी जानते हैं। सबक े उन्हें
जानने के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उन सब में एक बात जो काॅमन है, वह यह कि बिपन
चन्द्र आधुनिक भारत के सम्भवतः महानतम इतिहासकार थे, जिनके इतिहास लेखन के माध्यम से तमाम
पीढि़यां भारत के अतीत और वर्तमान के बारे में मुकम्मल तरीके से जान-समझ सकीं।
प्रो0 बिपन चन्द्र (जिन्हें हिन्दी भाषी प्रायः बिपिन चन्द्रा नाम से ज्यादा जानते हैं) म ें आधुनिक भारतीय
इतिहास के तमाम पहलुओं को अपने लेखन का विषय बनाया और एक विशिष्ट ’बिपिन चन्द्रा स्कूल’ के रूप
में स्थापित किया। वो असीमित ऊर्जा सम्पन्न थे, बौद्धिक अभिमान से कोसों दूर थे, अपने छात्रों के साथ
दोस्ताना रिश्ता रखते थे, वाद-विवाद संवाद की श्रेृष्ठतम परम्परा के वाहक थे, जो सच समझते थे, उसे
कहने लिखने से कभी हिचकते न थे, उनके पास उत्कृष्ट इतिहासकारों की फौज भले थी, लेकिन किसी
फौज को बनाने के चक्कर में समझौता परस्त कभी न रहे, इतिहासकारों की भीड़ में अकेला पड़ जाने के
लिए तैयार रहते थे और कभी भी किसी निजी फायदे-नुकसान को ध्यान में रखकर न कभी कुछ लिखा या
सोचा या बोला।
सत्तर के दशक में उनका स्थापित कम्युनिष्ट पार्टियों के साथ बौद्धिक मतभेद बढ़ने लगा। जैसा कि भारत
में कम्युनिष्ट पार्टियों का तौर-तरीका रहा है कि जो भी शख़्स उनकी थोड़ी भी आलोचना करने लगे, उसे
संशोधनवादी या प्रतिक्रांतिकारी साबित किया जाने लगता है। प्रो0 बिपन चन्द्र के साथ भी यही कोशिशें की
गईं। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टियों के अग्रणी नेता अजय घोष, पी0 सी0 जोशी, ई0 एम0 एस0 नम्बूदरीपाद,
मोहित सेन, पी0 सुन्दरैय्या जैसों के साथ उनक े निजी रिश्त े थे। जब बिपन को एक भटका हुआ माक्र्सवादी
बताया जाने लगा और मौजूदा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आदमी होने का इल्जाम तक थोपा गया, तब भी
बिपन हमेशा अपने को एक प्रतिबद्ध माक्र्सवादी इतिहासकार ही कहत े रहे। निजी बातचीत में उन्होंने हमेशा
हंसते हुए कहा कि सब मुझे अब कांग्रेसी बताने लगे हैं, सच तो ये है कि मैं किसी अदने से कांग्रेसी नेता
को व्यक्तिगत जानता तक नहीं, न ही मैंने कभी ऐसी कोशिश की। जात े-जाते मैं साबित कर जाऊंगा कि
मुझे माक्र्सवादी ही मान लिया जाए। आज देश भर में वामपंथी विचारधारा के लोगों में बिपन के न रहने से
जो शोक व्याप्त है और देश के कोने-कोने से शोक सभाएं और श्रृद्धांजलियां वामपंथी लोगा ें द्वारा की जा
रही हैं, उसके बाद शायद यह सवाल न उठाया जाए कि बिपन बाद में कांग्रेसी इतिहासकार हो गए थे।
एक नजर उनकी पथ-प्रदर्शक किताबों पर। साठ के दशक में उ में उनकी पहली किताब आई ’राईज़ एण्ड ग्रोथ
आॅफ इकाॅनाॅमिक नेशनलिज़्म इन माॅडर्न इण्डिया’। किताब की मूल स्थापना यह थी कि भारत में राष्ट्रवाद
का आधार जीवन की आवश्यकताओं से उद्भूत आर्थिक राष्ट्रवाद है और यह आर्थिक राष्ट्रवाद अंगे्रजी
शासन के विरूद्ध लड़ते हुए उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से बना और मजबूत हुआ है। उनकी
इस स्थापना ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक गैर साम्प्रदायिक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया, जिससे आज
लगभग सभी इतिहासकार (साम्प्रदायिक सोच रखन े वालों के अलावा) सहमत हैं।
बिपन ने भारत में साम्प्रदायिकता के मुद्दे की गहन विचारधारात्मक ऐतिहासिक पड़ताल की। यह करने वाले
वो पहले थे। ल ेखक त्रयी के साथ उनकी पुस्तिका आई ’कम्युनलिज़्म एण्ड राईटिंग आॅफ इण्डियन हिस्ट्री’।
यह किताब किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए जरूरी किताब है। बाद में 1982 में उनकी इसी विषय पर
एक सघन विचारधारात्मक किताब आई- ’कम्युनलिज़्म इन माॅडर्न इण्डिया’। साम्प्रदायिकता जैसे जटिल
विषय पर इतनी वैज्ञानिक तरीके से लिखी गई दूसरी किताब शायद न हो।जजहां एक ओर बिपन ने दुनिया भर के साम्राज्यवादी इतिहासकारों से लोहा लिया और अपनी प्रखर मेघा व
शोध से उन्हें लगभग परास्त ही कर दिया, वहीं दूसरी ओर उनकी नजर भारत की भावी पीढ़ी पर भी थी।
उन्होंने स्कूली बच्चा ें के लिए किताब लिखी-’आधुनिक भारत’। देश का यह सौभाग्य है कि लाखों-करोड़ों
युवाओं ने इस किताब को आधुनिक भारत को समझने की गीता बना लिया। इस लेखक का यह दावा है
कि जिसने भी उनकी यह किताब और बाद के वर्षाें म ें आई ’भारत का स्वतंत्रा संघर्ष’ पढ़ ली, वह कभी भी
साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों व प्रपंचों के चंगुल में नहीं फंस सकता। इसी सन्दर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है
कि बिपन ने अपनी इतिहास की समझ केवल चुनिन्दा किताबें या पुस्तकालयों-अभिलेखागारों में बैठ कर ही
नहीं बनाई। अस्सी के दशक में अपने छात्रों-सहयोगियों के साथ टीम बनाकर पूरे देश में घ ूमे, छोटे शहर,
कस्बे और यहां तक की गांवों में भी गए। स्वतंत्रा संग्राम सेनानियों से साक्षात्कार लिए और उन सबकी
समझ को अपनी समझ से मिलाया। यह साक्षात्कार अभी छप नहीं सके हैं, लेकिन जिस दिन दुनिया के
परदे पर भारतीय जनमानस की यह आवाज सामने आएगी, तो लोग और बेहतर समझ सकेंगे कि बिपिन
चन्द्रा होने का क्या मतलब था और है।
देश आजाद होने के बाद जब एक नई पीढ़ी सामने आई, जिसने भारत की आजादी की लड़ाई नहीं देखी
थी और न सुनी थी, तो उसके मन में एक निराशा सी भर गई कि स्वतंत्रयोत्तर भारत की उपलब्धियां शून्य
हैं और देश रसातल में जा रहा है। एक फैशन सा बन गया कि इनसे अच्छे तो अंग्रेज ही थे। एक
जागरूक नागरिक इतिहासकार होने के नाते बिपन ने इस निराशावादी भावना को पहचाना और फिर उनकी
एक किताब आई-’इण्डिया सिन्स इन्डिपेंडेंस’। आजादी के बाद के भारत को जानने-समझने के लिए यह
किताब एक जरूरी पुस्तक है, जिसमें एक ऐतिहासिक नजरिए से आजादी के भारत की मुकम्मल तस्वीर
खींची गई है।
आजाद भारत की एक महत्वपूर्ण परिघटना है, सत्तर के दशक का जे0 पी0 मूवमेण्ट और इंदिरा गांधी द्वारा
इमर्जेंसी लगाया जाना। बिपन ने इस विषय पर एक किताब लिखी-’इन द नेम आॅफ डेमोक्रेसी जे0 पी0
मूवमेण्ट एण्ड इमर्जेंसी’। एक मिथ्या धारणा बिपन के खिलाफ फैलाई गई थी कि वो इंदिरा गांधी के खास
थे और वो इमर्जेंसी के समर्थक थे। शायद अपने खिलाफ इस प्रपंच को खत्म करने के लिए ही उन्होंने यह
पुस्तक लिखी, लेकिन उनका ध्येय ज्यादा बड़ा था। वो लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण से चिंतित थे और
जन आंदोलनों के नाम पर जो भीड़बाजी का दौर चल रहा था, उससे व्यथित भी। वो शायद भारत के पहले बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने यह पहचान लिया कि जेन्यून जन आंदोलन और जन आंदोलन के नाम पर
हुड़दंग, भीड़बाजी को बढ़ावा देना दोनों अलग-अलग चीजें हैं। उन्हो ंने बहुत पहले ही कह दिया था कि
अगर इसी तरह हुल्लड़बाजी को राजनीति समझ लिया जाएगा तो देश विरोधी साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत
होंगी, जिसका खामियाजा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। उन्होंने इंदिरा गांधी क े द्वारा इमर्जेंसी लगाए जाने की
आलोचना की और जे0 पी0 के द्वारा अपने व्यक्तिगत प्रभाव को इस्तेमाल कर गलत व भ्रमपूर्ण राजनीति
फैलाने की भी जम कर निन्दा की। उनका मानना था कि दोनों-इंदिरा गांधी व जे0 पी0- के पास चुनाव
में उतरने का लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद था और दोनों ने गलत राजनीतिक निर्णय लिए।
इस छोटे से श्रृद्धांजलि लेख में बिपन के रचना संसार को समेटना सम्भव नहीं। अंत में यही कहना चाहूंगा
कि यदि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग (खासकर वामपंथी) प्रो0 बिपन चन्द्र के वृह्त लेखन से खुले दिल-दिमाग
से रूबरू हो सक े तो सम्भवतः वर्तमान भारतीय राजनीति और समाज की एक अधिक गम्भीर समझ सामने आएगी, जो हमें आज की समस्याओं से निपटने में मददगार ही साबित होगी।

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