मुद्दा
|
RASHTRIY SAHARA 23-9-14 http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9 |
पंकज चतुव्रेदी
कश्मीर में आई अभूतपूर्व बाढ़ के दौरान तब तक अफरा-तफरी मची रही जब तक फौज व केंद्रीय अर्धसैनिक बलों ने राहत कार्य का जिम्मा नहीं ले लिया। आपदा प्रबंधन व स्थानीय शासन-प्रशासन तो असहाय से हो गए थे। देश में कही भी बाढ़, भूकंप, आगजनी या बोरवेल में बच्चा गिरने जैसी घटनाओं से राहत का आखिरी विकल्प फौज बुलाना रह जाता है। शासन- प्रशासन तो नुकसान के बाद बस बयान-बहादुर बन राहत बांटने में जुट जाता है। लेकिन यह सवाल कहीं से नहीं उठता कि आपदा प्रबंधन महकमा क्या कर रहा था। बिहार, असम व कुछ अन्य राज्यों के आधा दर्जन जिलों में हर साल बाढ़ और फिर सूखे की त्रासदी होती है। पानी में फंसे लोगों को निकालना शुरू किया जाता है तो भूख-प्यास सामने खड़ी दिखती है। पानी उतरता है तो बीमारियां चपेट में ले लेती हैं। बीमारियों से जैसे-तैसे जूझते हैं तो पुनर्वास का संकट होता है। कहने को देश में आपदा प्रबंधन महकमा है और भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आपदा प्रबंधन पर एक पोर्टल भी है लेकिन सवा अरब की आबादी वाला देश, जिसका विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में नाम है, एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय दिखता है। प्रधानमंत्री ने बेशक कश्मीर की आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया हो, लेकिन यहां राहत कार्य वैसे ही चलते दिख रहे हैं, जैसे 50 साल पहले होते थे। इस बार भी देशभर से चंदा और सामान जुटा, मदद के लिए असंख्य हाथ आगे आए, लेकिन उसे जरूरतमंदों तक तत्काल पहुंचाने की कोई सुनियोजित नीति नहीं थी। यह हर हादसे के बाद होता है। कहने को तो सेकेंडरी स्तर के स्कूल और कॉलेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा पाठय़क्रम का विषय बना दिया गया है। गुजरात भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए लेकिन उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखता। देश में आपदा प्रबंधन के नाम पर गठित विभागों का मासिक खर्च कोई दो करोड़ है, लेकिन उनके पास वे नक्शे तत्काल उपलब्ध नहीं मिलते कि किस इलाके में पानी भरने पर किस तरह लोगों को जल्द से जल्द निकाला जाए। यहां तक कि नदी तट के किनारे की बस्तियों में बाढ़ की संभावनाओं के मद्देनजर जरूरी नावों तक की व्यवस्था नहीं होती। बिहार गवाह है कि वहां पानी से बच कर भाग रहे लोगों को मझधार में दबंग लूट लेते हैं। बाढ़ से घिरे गांवों के मकान बदमाश खाली कर जाते हैं। चलिए, बाढ़ या तूफान तो अचानक आ जाते हैं लेकिन बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में सूखे की विपदा से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है और इसका अनुमान पहले से हो जाता है, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन का महकमा कहीं तैयारी करता नहीं दिखता। भूख और प्यास से बेहाल लाखों लोग घर-गांव छोड़ भाग जाते हैं। जंगल में दुर्लभ जानवर और गांवों में दुधारू पशु बेमौत मरते हैं। इस मामले में हमने अपने अनुभवों से भी नहीं सीखा। कोई पांच साल पहले आंधप्रदेश के तटवर्ती जिलों में आए जल-विप्लव के दौरान वहां प्रशासन ने सबसे पहले और तत्काल जिस राहत सामग्री की व्यवस्था की थी, वह था बोतलबंद सुरक्षित पेयजल व ओरआरएस। कारण बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में जल जनित बीमारियों का बहुत खतरा होता है। गुजरात भूकंप का उदाहरण भी सामने है। वहां पुराना मलबा हटाने में भारी मशीनों का उपयोग, बड़े स्तर पर सुरक्षित मकानों का निर्माण और रोजगार के साधन उपलब्ध कराने से जीवन को सामान्य बनाने में तेजी आई थी। लेकिन बिहार व बुंदेलखंड में इन अनुभवों के इस्तेमाल से परहेज किया जाता रहा है। यूनेस्को ने भारत में आपदा प्रबंधन से निबटने व जागरूकता के उद्देश्य से कई पुस्तकों का प्रकाशन किया। यूनेस्को ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक कार्यशाला का आयोजन कर बाढ़, सूखे और भूकंप पर ऐसी सामग्री तैयार करवाई जो समाज व सरकार दोनों के लिए मार्गदर्शक हो। तीनों विपदाओं पर एक-एक फोल्डर, संदर्भ पुस्तिका और एक-एक कहानी का सेट रखा गया। यह प्रकाशन जामिया मिल्लिया इस्स्लामिया के स्टेट रिसोर्स सेंटर ने किया है और उम्मीद की जाती है कि इसका वितरण देशभर में हुआ होगा। जाहिर है, इस कवायद में भी लाखों- लाख रपए खर्च हुए होंगे। सवाल यह है कि ऐसे उपाय वास्तविकता के धरातल पर धराशायी क्यों हो जाते हैं!
यह बात पाठ्यक्रम और अन्य सभी पुस्तकों में दर्ज है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, पालीथीन शीट, टार्च, सूखा व जल्दी खराब न होने वाला खाने का पर्याप्त स्टाक होना चाहिए। इसके बावजूद विडंबना है कि पूरे देश का सरकारी अमला आपदा के बाद हालात बिगड़ने के बाद ही चेतता है और राहत बांटने को सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है। राहत के कार्य सदैव से विवादों और भ्रष्टाचार की कहानी कहते रहे हैं। कई बार तो लगता है, इन आपदाओं में राहत के नाम पर जितने पैसे की घोषणा सरकार करती है, उसस पूरे इलाके का विकास हो सकता है, बशत्रे पैसा सीधे पीड़ित के पास पहुंचे। गौरतलब है कि देश में विभिन्न नदियों में बाढ़ की पूर्व सूचना देने हेतु 166 केंद्र काम कर रहे हैं। लेकिन हमे अब तक पता नहीं है कि वैज्ञानिक चेतावनी के बाद करना क्या चाहिए। इनमें से 134 केंद्रों का काम जल स्तर और 32 की जिम्मेदारी जल के तीव्र प्रवाह की सूचना देना है। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र सहायता कार्यक्रम व यूरोपीय सहायता संगठन की मदद से भारत सरकार 17 राज्यों के बाढ़ प्रभावित 169 जिलों में अक्टूबर 2007 से विशेष आपदा प्रबंधन कार्यक्रम भी चला रही है। समय-समय पर कोसी, गंगा और ब्रह्मपुत्र के रौद्र रूप ने बता दिया है कि सभी कार्यक्रम कितने कारगर रहे हैं। सरकारी रिकॉर्ड पर भरोसा करें तो देश के 3500 गांवों के 8000 जनप्रतिनिधियों को बाढ़ की आपदा से जूझने का प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है। विडंबना है कि अब तक हम यह नहीं समझ पाए हैं कि बाढ़ या ऐसी ही विपदा के समय क्या राहत सामग्री भेजी जाए। अक्सर खबरों में रहता है कि अमुक जगह भेजी गई राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही। असल में ऐसी सामग्री भेजना व संग्रहण करना इतना महंगा होता है कि उसे न भेजना ही तो बेहतर हो। बाढ़ग्रस्त इलाके में सेनेटरी नेपकिन, मोमबत्ती, फिनाइल, क्लोरीन की गोलियां, पेक्ड पानी आदि की सर्वाधिक जरूरत होती है। देशभर के इंजीनियरों, डाक्टरों, प्रशासनिक अधिकारियों, प्रबंधन गुरुओं और जनप्रतिनिधियों को ऐसी विषम परिस्थितियों से निबटने की हर साल बाकायदा ट्रैनिंग दी जाए। शांति काल में तो फौजी भगवान सिद्ध होते हैं लेकिन खुदा ना खास्ता, सीमा पर तनाव के चलते यदि अधिसंख्य फौज वहां तैनात हो तो क्या हो? ऐसे में होमगार्ड, एनसीसी, एनएसएस व स्वयंसेवी संस्थाओं को दूरगामी योजनाओं पर काम करने के लिए सक्षम बनाना समय की मांग है।
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें