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सोमवार, 15 सितंबर 2014

HUMAN MISUSE LAKES AND LAKES HAS GIVEN THEM LESSON :KASHMIR


झीलें बचाई होती तो जन्नत के यह हाल ना होते
पंकज चतुर्वेदी
कष्मीर  का अधिकांष भाग चिनाब, झेलम और सिंधु नदी की घाटियों में बसा हुआ है। जम्मू का
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पश्चिमी  भाग रावी नदी की घाटी में आता है।  इस खूबसूरत राज्य के चप्पे-चप्पे पर कई नदी-नाले, सरोवर-झरने हैं। विडंबना है कि प्रकृति के इतने करीब व जल-निधियों से संपन्न इस राज्य के लोगों ने कभी उनकी कदर नहीं की, । मनमाने तरीके से झीलों को पाट कर बस्तियां व बाजार बनाए, झीलों के रास्तों को रोक कर सड़क बना ली। यह साफ होता जा रहा है कि यदि जल निधियों का प्राकृतिक स्वरूप् बना रहता तो बारिष का पानी दरिया में होता ना कि बस्तियों में कष्मीर में आतंकवाद के हल्ले के बीच वहां की झीलों व जंगलों पर असरदार लोगों के नजायज कब्जे का मसला हर समय कहीं दब जाता है, जबकि यह कई हजार करोड़ रूप्ए की सरकारी जमीन पर कब्जा का ही नहीं, इस राज्य के पर्यावरण को खतरनाक स्तर पर पहंुचा देने का मामला है। कभी राज्य में छोटे-बड़े कुल मिला कर कोई 600 वेट लैंड थे जो अब बामुष्किल 12-15 बचे हैं।
कष्मीर का अधिकांष झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दषक पहले तक यहां आवागमन के लिए जल-मार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूशण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुषलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कष्मीरियों को भी याद नहीं हैं।
तीन दिशाओं से पहाडियों से घिरी डल झील जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। पाँच मील लम्बी और ढाई मील चैड़ी डल झील श्रीनगर की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सबसे खूबसूरत झीलों में से एक है। करीब दो दशक पहले डल झील का दायरा 27 वर्ग किलोमीटर होता था, जो अब धीरे-धीरे सिकुड़ कर करीब 12 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसका एक कारण, झील के किनारों और बीच में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण भी है। दुख की बात यह है कि कुछ साल पहले हाईकोर्ट के निर्देशों के बावजूद अतिक्रमण को हटाने के लिए सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसमें दोराय नहीं कि प्रकृति से खिलवाड़ और उस पर एकाधिपत्य जमाने के मनुष्य के प्रयासों के कारण पर्यावरण को संरक्षित रखना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। कोर्ट ने लेक्स एंड वाटर वाडिस डेवेलपमेंट अथॉरिटी (लावडा) को डल की 275 करनाल भूमि जिस पर गैरकानूनी कब्जा है, को हटाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर शपथपत्र देने को भी कहा। लवाडा ने कोर्ट को जानकारी दी कि गैर कानूनी कब्जे वाली 315 कनाल भूमि में से चालीस कनाल खाली करवा ली गई ।डल झील की दयनीय स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय ने तीन साल पहले डल झील के संरक्षण हेतु पर्याप्त प्रयास न किए जाने पर अधिकारियों को आड़े हाथों लिया था। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रदूषण के कारण पहाड़ों से घिरी डल झील अब कचरे का एक दलदल बनती जा रही है।
श्रीनगर से कोई पचास किलोमीटर दूर स्थित मीठे पानी की एषिया की सबसे बड़ी झील वुल्लर का सिकुड़ना साल-दर-साल जारी है। आज यहां 28 प्रतिषत हिस्से पर खेती हो रही है तो 17 फीदी पर पेड़-पौघे हैं। बांदीपुर और सोपोर षहरों के बीच स्थित इस झील की हालत सुधारने के लिए वेटलैंड इंटरनेषनल साउथ एषिया ने 300 करोड़ की लागत से एक परियोजना भी तैयार की थी, लेकिन उस पर काम कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया। सन् 1991 में इसका फैलाव 273 वर्गकिलोमीटर था जो आज 58.71 वर्गकिलोमीटर रह गया है। वैये इसकी लंबाई 16 किलोमीटर व चैडाई 10 किलोमीटर हे। यह 14 मीटर तक गहरी है। इसके बीचों बीच कुछ भग्नावेष दिखते हैं जिन्हें ‘‘ जैना लंका’’ कहा जाता हे। लोगों का कहना है कि नाविकों को तूफान से बचाने के लिए सन 1443 में कष्मीर के राजा जेन-उल-आबदन ने वहां आसरे बनावाए थे। यहां नल सरोवर पक्षी अभ्यारण में कई सुदर व दुर्लभ पक्षी हुआ करते थे। झील में मिलने वाली मछलियों की कई प्रजातियां - रोसी बार्ब, मच्छर मछली, केट फिष, किल्ली फिष आदि अब लुप्त हो गई हैं। आज भी कोई दस हजार मछुआरे अपना जीवन यापन यहां की मछलियों पर करते हैं। वुल्लर झील श्रीनगर घाटी की जल प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करत थी। यहां की पहाडियो ंसे गुजरने वाली तेज प्रवाह की नदियों में जब कभी पानी बढ़ता तो यह झील बस्ती में बाढ़ आने से रोकती थी। सदियों तक बाढ़ का बहाव रोकने के कारण इसमें गाद भी भरी, जिसे कभी साफ नहीं किया गया। या यों कहें कि इस पर कब्जे की गिद्ध दृश्टि जमाए लोगों के लिए तो यह ‘‘सोने में सुहागा’’ था। इस झील में झेलम के जरिए श्रीनगर सहित कई नगरों का नाबदान जोड़ दिया गया है, जिससे यहां के पानी की गुणवत्ता बेहद गिर गई है।
जैसे जैसे इसके तट पर खेती बढ़ी, साथ में रासायनिक खाद व दवाओं का पानी में घुलना और उथलापन बढ़ा और यही कारण है कि यहां रहने वाले कई पक्षी व मछलियों गुम होते जा रहे हैं। इसकी बेबसी के पीदे सरकारी लापरवाही बहुत बड़ी वजह रही है।  हुआ यूं कि सन 50 से 70 के बीच सरकारी महकमों ने झील के बड़े हिस्से पर विली(बेंत की तरह एक लचकदार डाली वाला वृक्ष) की खेती षुरू करवा दी। फिर कुछ रूतबेदार लोगों ने इसके जल ग्रहण क्षेत्र पर धान बोना षुरू कर दिया। कहने को सन 1986 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस झील को राश्ट्रीय महत्व का वेट लैंड घोशित किया था, लेकिन उसके बाद इसके संरक्षण के कोई माकूल कदम नहीं उठाए गए। महकमें झील के सौंदर्यीकरण के  नाम पर बजट लुटाते रहे व झील सिकुड़ती रही।
डल और उसकी सहायक नगीन लेक कोई पचास हजार साल पुरानी कही जाती हैं। डल की ही एक और सखा बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते कुछ सालों में सात वर्ग किमी से घट कर एक किमी रह गया है। कष्मीर की मानसबल झील प्रवासी पक्षियों का मषहूर डेरा रही है। हालांकि यह अभी भी प्रदेष की सबसे गहरी झील(कोई 13 मीटर गहरी) है, लेकिन इसका 90 फीसदी इलाका मिट्टी से पाट कर इंसान का रिहाईष बना गया है। इसके तट पर जरोखबल, गंदरबल और विजबल आदि तीन बड़े गांव हैं । अब यहां परींदे नहीं आते हैं। वैसे यह श्रीनगर से षादीपुर, गंदरबल होते हुए महज 30 किलजोमीटर दूर ही है। लेकिन यहां तक पर्यटक भी नहीं पहुंचते हैं। डल की सहायक बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते दस सालों में ही सात वर्गकिमी से घट कर एक वर्गकिमी रह गया हे। अनुमान है कि सन 2020 तक इसका नामोनिषान मिट जाएगा।
सनद रहे कि कष्मीर की अधिकांष झीलें कुछ दषकों पहले तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और लोगों का दूर-दूर तक आवागमन नावों से होता था। झीलें क्या टूटीं, लोगों के दिल ही टूट गए। खुषलसार, नरानबाग, जैनालेक, अंचर, नरकारा, मीरगुंड जैसी कोई 16 झीलें आधुनिकता के गर्द में दफन हो रही है।ं
कष्मीर में तालाबों के हालत सुधारने के लिए लेक्स एंड वाटर बाडीज डेवलपमेंट अथारिटी(लावडा) के पास उपलब्ध फंड महकमे के कारिंदों को वेतन देने में ही खर्च हो जाता है। वैसे भी महकमें के अफसरान एक तरफ सियासदाओं और दूसरी तरफ दहषदगर्दों के दवाब में कोई कठोर कदम उठाने से मुंह चुराते रहते हैं।


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