NANDAN OCTOBER-14 |
पंकज चतुर्वेदी जी की कहानी 'जाम में फंसा जन्मदिन' यथार्थपरक,नए भाव,बोध की कहानी
मनोहर मनु 'चमोली'
आज
जब भी बालसाहित्य पर बात होती है तो अमूमन यह सुनने-कहने को मिल जाता है
कि इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी अधिकतर बालसाहित्यकारों का साहित्य
पशु-पक्षी आधारित केन्द्रित कथावस्तु एवं पात्रों से बाहर नहीं निकल पाया
है। यह बात कुछ हद तक सही भी है। यह कहना समीचीन होगा कि कई बार यह जरूरी
हो जाता है कि हम ऐसा करें, लेकिन हर कथा यदि पशु-पक्षी आधारित हो और हम
पशु-पक्षियों को केंद्र में रखकर उनसे वैसा सब कुछ करवा लें जो उनके जगत
में असंभव नहीं नामुमकीन हो,तब यह बच्चों के साथ घोर अन्याय है। इस पर भी
बालसाहित्यकारों का तुर्रा यह कि काल्पनिकता,इमेजिनेशन और फंतासी भी तो कोई
चीज़ है। इस पर व्यापक बहस होती रही है।
यहां चर्चा का विषय उपरोक्त नहीं है। चर्चा की जानी है आज के युग में नए भाव,बोध और यथार्थपरक कथावस्तु की। कारण? कारण साफ है। आज के डेढ़ साल के बच्चे की एक दिन की ही गतिविधि को करीब से देखते हैं तो पाते हैं कि उसे भले ही अबोध मान लिया जाता है, लेकिन वह बड़ों की देखा-देखी रिमोट,मोबाइल,गैस लाईटर, गरम स्त्री, आईसक्रीम,आचार,करेला आदि को उनके कार्यव्यवहार,स्वादानुसार भले से समझता है। संकेतों से अपनी खुशी-नाराज़गी जाहिर कर लेता है। तब भला क्यों न बालसाहित्य में बच्चों को यथार्थपरक और आज के बच्चों के जीवन से जुड़ी कहानियां पढ़ने को न मिलें? पढ़ने से पहले वह लिखी जानी चाहिए। वह लिखी तब जाएंगी, जब आज बालसाहित्यकार यह स्वीकार कर लें कि अब हमें पशु-पक्षी का सहारा जब तक बेहद जरूरी न हो, न लें और सीधे कहानी कहें। यह आज की मांग भी है।
आज के बच्चों के पास मनोरंजन के व सूचना-ज्ञान के दर्जनों साधन है। तब बालसाहित्य कोरा न हो। पत्रकार,अनुवादक,कथाकार,स्तंभकार और सामाजिक एक्टीविस्ट पंकज चतुर्वेदी जी की कहानी जाम में फंसा जन्मदिन ऐसी ही कहानी है। यह कहानी चैदह से सोलह साल के बच्चों के आप-पास घूमती है। कथावस्तु पर बात करना इसलिए निरर्थक होगा क्योंकि मेरे मन की बात के बाद कहानी साथ में दी जा रही है।देशकाल और वातावरण बच्चों को सहज,सरल और स्वाभाविक लगेगा। महानगरों के साथ-साथ सुदूर ग्रामीण हलकों के बच्चों को भी इसे पढ़ने में आनंद आएगा। वह बेहद सजगता के साथ और रोचकता के साथ अपनी कल्पना से महानगरों के आम दैनिक जीवन की कल्पना करते हुए रमन और उसके साथियों के दैनिक जीवन का अनुमान लगा सकंेगे।
यह कहना जरूरी है ही नहीं कि यह कहानी आज के समय की है। कहानी प्रारंभ से ही एक प्रवाह के साथ, गति के साथ आगे बढ़ती है। पात्र सहजता से आते रहते हैं। पात्रों का रेखाचित्र अनायास पाठक बना लेता है। संवाद सरल है। कहीं भी हड़बड़ाहट नहीं है। छोटे-छोटे वाक्यों के साथ कहानी कहन के साथ आगे बढ़ती है। पात्रों में रमन केंद्रीय भूमिका के साथ प्रारंभ से ही स्थापित हो जाता है। उसके भीतर भी लड़कपन साफ झलकता है लेकिन अंत में वह एक जिम्मेदारी केेेे तहत सब कुछ स्वीकार कर लेता है। यदि वह चाहता तो चुप रह सकता था। वह बीती शाम की घटना का उल्लेख भी न करता।
यहां बड़ी सरलता के साथ और ऐसा होता ही है बच्चे भी पूरी सच्चाई व ईमानदारी के साथ गलतियां स्वीकार करते है। रमन के पिता भी उसे समझते हैं और एक जिम्मेदार पिता की तरह उन्हें जो करना चाहिए था, वह करते हैं। अलबत्ता प्रारंभ से ही कहानी एक मकसद के साथ आगे बढ़ती है और बड़ी तीव्रता के साथ समाप्त हो जाती है। यूं तो यह भी कहा जा सकता है कि बेकार में ही विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ सही ढंग से निपट जाता है। लेकिन केवल रमन का व्यवहार चालक और परिचालक के साथ असामान्य नहीं था। कई बच्चे थे, जो बिना टिकट कई दिनों से बस का सफर कर रहे थे। हालांकि चाबी रमन ने निकाली थी और जन्मदिन उसका ही प्रभावित हुआ था। किंतु जाम में जैसा की कथा में आया भी है कईयों को परेशानी हुई भी। दो-तीन पंक्तियों में यह भी उल्लेख हो जाता कि रमन यह वाकया अपने सहपाठियों से जरूर बताता है। सभी इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि बहुत गलत हुआ और बहुत कुछ और गलत और भी हो सकता था।
पत्र-पत्रिकाओं में कहानी आजकल पेज के हिसाब से तय होती है,या यूं कहूं संपादित भी हो जाती है। या लिखी भी जाती है। लेकिन यह जरूरी भी नहीं कि कहानी में आदर्श स्थिति में लाकर अंत किया जाए। पंकज जी ने अंत के पहरे में सब कुछ शामिल करते हुए कहानी को कमजोर होने से बचाया है। कैलाश भी पात्र के तौर पर आया तो लेकिन फिर उसकी जरूरत आगे नहीं बनती दिखाई दी। संवाद बनावटी कहीं भी नहीं बने हैं। पंकज जी की यह कहानी अक्तूबर माह 2014 के नंदन में भी पढ़ी जा सकती है।
कहानी परोक्ष रूप से पाठकों के मन में यह बात गहरे से बिठाती है कि कभी-कभी यूं ही या बगैर सोचे-विचारे हम ऐसा कुछ कर देते हैं कि उससे मामला बेहद बिगड़ जाता है। मैं आज भी उस दिन को याद करता हूं जिस दिन दिल्ली में ग्रिड फेल हो गया था। दिल्ली सुना है उस रात थम गई थी। दिल्ली का थमना किसी दिल का दौरा पड़ने से कम नहीं है। कुल मिलाकर मुझे यह कहानी बेहद पसंद आई। मैंने इसे दो बार पढ़ा है।
यदि बार-बार पढूंगा तो कई आयाम और दिखाई देंगे। कथाकार को अच्छी कहानी कहने के लिए क्या आप भी मेरी तरह बधाई नहीं देना चाहेंगे? चलिए पहले कहानी पढि़ए ओर फिर बधाई उन तक पहुंचेगी, यदि यहां कमेंट देंगे। _____________________________________________________________________
'जाम में फंसा जन्मदिन'
*पंकज चतुर्वेदी
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उस दिन पहली बार चस्का लगा, जब कैलाश ने बोला,‘‘अरे बस में चलते हैं, हम लोग स्कूल में पढ़ने वाले हैं। छात्रों के पैसे थोडे ही लगते हैं।’’
रमन का घर स्कूल से ज्यादा दूर नहीं था। बामुश्किल डेढ़ किलोमीटर। सुबह तो पापा आफिस जाते हुए स्कूटर से छोड़ देते, शाम को रमन पैदल आ जाता। रमन कक्षा नौ में है तो कैलाश ग्यारह में। रहते पास-पास में ही हैं, सो कई बार स्कूल की छुट्टी में साथ हो जाते। हालांकि कैलाश के अपने दोस्त बहुत से हैं , इस लिए बड़े बच्चों के बीच रमन को कुछ अटपटा लगता। उस दिन चार-पांच बच्चे स्कूल से निकले कि हल्की सी बूंदाबांदी होने लगी। तभी हरी वाली लो फ्लोर बस आती दिखी। कैलाश ने हाथ दिया और ड्रायवर को भी शायद भीगते बच्चों पर दया आ गई और उसने बस रोक दी।
कैलाश अपने सभी दोस्तों के साथ बस में चढ़ गया,उसमें रमन भी था। कंडटर ने टिकट की कही तो सब बच्चे एक हो गए, ‘‘अरे स्टुडेंट का कहीं टिकट लगता है? हम तो फ्री ही चलते हैं।’’ कंडक्टर भी बाहर बारिश देख रहा था, उसने बच्चों को चेतावनी दे कर छोड दिया,‘‘ देखों, बच्चों, हमारे पास ऐसा कोई आदेश नहीं है कि छात्रों से टिकट ना लिया जाए। किसी दिन फ्लाईंग स्क्वाड वाले मिल गए तो मेरी भी नौकरी खतरे में आ जाएगी।’’ अगले दिन तो बस में चढ़ने वाले बच्चो की संख्या भी बढ़ गई। आज 20 बच्चे बस में घुस गए। जब इतने बच्चे होंगे तो थोडी सी शैतानियां भी होंगी। उनकी हरकतों से ड्रायवर भी परेशान था, क्यों कि भी कोई बच्चा दरवाजे पर लटक जाता तो कोई खिडकी से झूलने लगता। भीतर बैठी सवारियों को भी चढ़ने-उतरने में दिक्कत हो रही थी।
ड्रायवर और कंडक्टर पहले प्रेम से समझाते रहे, फिर डांटा भी लेकिन उन सभी को तो बदमाशियों करने में मजा आ रहा था। दो दिन से रमन कुछ जल्दी घर पहुंच रहा था। मां ने पूछ ही लिया, ‘‘ क्या स्कूल से जल्दी भाग कर आ रहे हो?’’ ‘‘नहीं मां, हम तो अब बस से आने लगे हैं ना। दो मिनट में अगले दिन बस के ड्रायवर ने स्कूल की छुट्टी का समय आड़ लिया व वह हर दिन की तुलना में कुछ देर से निकला। लेकिन यह क्या बच्चों की मंडली सड़क पर ही खड़ी थी। बस स्टैंड पर दो सवारी को उतरना था और कुछ को चढ़ना भी था, बस रोकनी पड़ी। बच्चे फिर से भीतर घुस गए और हर रोज की तरह हंगामा होता रहा। ड्रायवर के चिल्लाने या कंडक्टर के नाराज होने की उन्हें परवाह ही नहीं थी। वे तो उसका और मजा ले रहे थे। यह हर रोज का तमाशा हो गया था। उस दिन रमन का जन्मदिन था। शाम को घर पर एक पार्टी भी थी। रमन आज स्कूल की वर्दी में नहीं था। नए कपड़े थे। उसने अपने सभी दोस्तो को भी टाॅफी बांटी। कुछ बच्चों को घर भी बुलाया।
स्कूल की छुट्टी हुई व बच्चा-पार्टी सड़क पर आ गई। आज तो उनका लीडर कैलाश आया नहीं था। बच्चों ने उत्साह में भरे रमन को ही आगे कर दिया। दूर से बस आती दिखी। आज इस स्टाप पर कोई चढ़ने वाली सवारी थी नहीं, बस उतरने वाली ही थीं। ड्रायवर ने कुछ आगे बस बढ़ा दी। लेकिन बच्चे तो दौड़ पड़े। जैसे ही दरवाजा खुला कुछ भीतर घुस गए। बस में भीड़ भी बहुत थी, सो कई बच्चे दरवाजे पर ही लटक गए। अब बस रफ्तार से चल ही नहीं पा रही थी। असल में इन नई बसों में जब तक दरवाजा बंद नहीं होता है, बस ठीक से काम नहीं करती है। बस जैसे ही फ्लाई ओवर पर पहुंची, उसका रैंगना भी बंद हो गया। अब ड्रायवर और कंडक्टर को गुस्सा आ गया। वे बस से नीचे उतर गए। कुछ सवारियां भी उनके साथ थीं। जम कर झिक-झिक हो रही थी और बच्चे थे कि इस पर भी मजाक उड़ा रहे थे। कंडक्टर और सवारियों ने एक-एक बच्चें को हाथ पकड़ कर नीचे उतारना शुरू कर दिया। बात बिगउ़ती देख रमन को एक खुराफात सूझी। वह दौड़ कर गया और बस के ड्रायवर की सीट के पास पहुंचा। उसने धीरे से बस की चाबी निकाली और बच्चों के पास आ कर बोला, ‘‘ चलो-चलो हम पैदल ही चलते हैं। देखना थोड़ी देर मे ंयह हमारे हाथ-पैर जोडेंगे।’’
बच्चों की पार्टी भी रमन के पीछे हो ली। बच्चे दौड़ते हुए गायब हो गए और उधर जब ड्रायवर अपनी सीट के पास पहुंचा तो चाबी ना पा कर परेशान हो गया। पहले तो उसने अपनी ही जेब में देखी, फिर आगे-पीछे देखी। बड़ा परेशान कि बगैर चाबी के बस कैसे चले। बस जिस डिपों की थी वह यहां से 20 किलोमीटर दूर । वहां फोन तो कर दिया, लेकिन दूसरी चाबी आने में भी घंटों लगने थे। वैसे भी इस हंगामें में एक घंटा हो गया था और फ्लाई ओवर के बीचों-बीच बस के खड़े हो जाने से सड़क पर जाम बढ़ता जा रहा था। शाम के पांच बज रहे थे और अब दफ्तरों की छुट्टी का भी समय हो गया था। देखते ही देखते जाम कई किलोमीटर का हो गया।
कुछ लोग विपरीत दिशा से अपने वाहन निकालना चाहते थे और इससे हालत और बिगड़ गए। यहां तक कि बस को खींच कर ले जाने के लिए क्रैन या डुप्लीकेट चाबी ले कर आपे वालों के लिए भी रास्ता नहीं बच रहा था। इस शहर का मिजाज ही कुछ ऐसा है कि यदि एक सड़क पर जाम लग जाए तो कुछ ही देर में आधे शहर की सड़कों पर वाहन ठिठक जाते हैं। इधर रमन ने अपने कमरे में स्टीरियो लगा दिया और बढि़या डांस वाले गाने बजने लगे। उसे इंतजार था अपने पापा का क्योंकि वह उसके लिए कैक ले कर आने वाले थे।
उसे इंतजार था अपनी बड़ी दीदी का जिन्होंने वादा किया था कि अपने आफिस की छुट्टी के बाद वे उसके लिए तोहफे में साईकिल ले कर आएंगी। दोस्तों का ंइतजार तो था ही। आसपास के दो तीन बच्चे तो आ गए, लेकिन दूर से आने वाले कोई भी नहीं आए। रात के आठ बज गए ना तो दीदी आए ना ही पापा और ना ही दोस्त। ‘‘ पापा, कहां रह गए? मेरा कैक भी नहीं आया ?’’ रमन ने पापा को फोन किया। ‘‘अरे तुम्हे केक की पड़ी है, यहां मैं सड़क पर तीन घंट से अटका हूं। गाड़ी का पेट्रोल खतम हो रहा है। कार का एसी बंद करना पड़ा है। पता नहीं तुम्हारा केक घर पहुंचते-पहुंचते ठीक रह पाएगा या नहीं।’’
बेहद शोर के बीच पापा ने खीजते हुए कहा। दीदी को फोन किया तो वे तो रूआंसी थीं, ‘‘तीन घंटे हो गए हें आफिस से निकले हुए। दो किलोमीटर भी नहीं बढ़ पाई हूं। अब तो लगता नहीं कि साईकिल वाले की दुकान भी खुली होगी। ’’ केक था नहीं, दोस्त आए नहीं, दीदी-पापा भी नहीं। हताश रमन ने अपने नए कपड़े उतारे, घर के कपउ़े पहने और सुबकते हुए अपने बिस्तर पर लेट गया। ऐसे जन्मदिन की उसने कल्पना भी नहीं की थी- ना दोस्त,पार्टी, यहां तक कि रात में खाना भी नहीं खाया। पता नहीं पापा और दीदी कितनी बजे रात में घर आ पाए। अगले दिन रविवार था। ना उसे स्कूल जाना था और नाही पापा को आफिस। जब वह सो कर उठा तो देखा पापा आंगन में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं।
उन्होंनें बताया कि एक बस के फ्लाई ओवर पर बंद हो जाने के कारण इतना जाम हुआ था। ‘‘ बताओं ड्राईवर ने बस की चाबी गुम दी। एक बस के कारण कितने लोग बेबस थे ? पता नहीं कोई अस्पताल जाने से रह गया हो तो किसी की ट्रेन-बस छूट गई होगी। ऐसे लापरवाह ड्राईवर को तो नौकरी से निकाल देना चाहिए। हम हमारे बच्चे का जन्मदिन भी नहीं मना पाए।’’ अब रमन को समझ में आ रहा था कि कल जो उसके जन्मदिन का मजा खराब हुआ, उसका दोषी वह खुद ही है। कल रात का दुख उभर कर सामने आ गया।
‘‘ नहीं पापा, लापरवाही ड्राईवर की नहीं थी.... मेरे साथ कल जो हुआ, उसका जिम्मेदार मैं ही हंू। शहर में भी जो अव्यवस्था हुई, वह भी मेरे कारण हुआ।’’ रमन फूट-फूट कर रोने लगा। पापा ने रमन को चुप करवाया तो रमन ने अपनी पूरी शैतानी बता दी।
पापा ने तकल रमन को अपने साथ लिया और उस बस डिपो में जा पहुंचे, जहां की बस थी। वहां पर उस ड्राईवर को सस्पेंड करने की बात चल रही थी। रमन की बात सुन कर डिपो मेनेजर ने ड्राईवर को दंड देने का विचार छोड़ दिया।
‘‘ यदि बस में सवारी करना है तो टिकट जरूर लें। , कंडक्टर और ड्राईवर की बात मानें। वह आपके ही भले के लिए कहते है।’’ डिपों मेनेजर ने समझाया।
पापा ने भी साफ कह दिया कि यदि बस से घर आना है तो घर से पैसे ले कर जाना और घर आ कर टिकट दिखाना।
यहां चर्चा का विषय उपरोक्त नहीं है। चर्चा की जानी है आज के युग में नए भाव,बोध और यथार्थपरक कथावस्तु की। कारण? कारण साफ है। आज के डेढ़ साल के बच्चे की एक दिन की ही गतिविधि को करीब से देखते हैं तो पाते हैं कि उसे भले ही अबोध मान लिया जाता है, लेकिन वह बड़ों की देखा-देखी रिमोट,मोबाइल,गैस लाईटर, गरम स्त्री, आईसक्रीम,आचार,करेला आदि को उनके कार्यव्यवहार,स्वादानुसार भले से समझता है। संकेतों से अपनी खुशी-नाराज़गी जाहिर कर लेता है। तब भला क्यों न बालसाहित्य में बच्चों को यथार्थपरक और आज के बच्चों के जीवन से जुड़ी कहानियां पढ़ने को न मिलें? पढ़ने से पहले वह लिखी जानी चाहिए। वह लिखी तब जाएंगी, जब आज बालसाहित्यकार यह स्वीकार कर लें कि अब हमें पशु-पक्षी का सहारा जब तक बेहद जरूरी न हो, न लें और सीधे कहानी कहें। यह आज की मांग भी है।
आज के बच्चों के पास मनोरंजन के व सूचना-ज्ञान के दर्जनों साधन है। तब बालसाहित्य कोरा न हो। पत्रकार,अनुवादक,कथाकार,स्तंभकार और सामाजिक एक्टीविस्ट पंकज चतुर्वेदी जी की कहानी जाम में फंसा जन्मदिन ऐसी ही कहानी है। यह कहानी चैदह से सोलह साल के बच्चों के आप-पास घूमती है। कथावस्तु पर बात करना इसलिए निरर्थक होगा क्योंकि मेरे मन की बात के बाद कहानी साथ में दी जा रही है।देशकाल और वातावरण बच्चों को सहज,सरल और स्वाभाविक लगेगा। महानगरों के साथ-साथ सुदूर ग्रामीण हलकों के बच्चों को भी इसे पढ़ने में आनंद आएगा। वह बेहद सजगता के साथ और रोचकता के साथ अपनी कल्पना से महानगरों के आम दैनिक जीवन की कल्पना करते हुए रमन और उसके साथियों के दैनिक जीवन का अनुमान लगा सकंेगे।
यह कहना जरूरी है ही नहीं कि यह कहानी आज के समय की है। कहानी प्रारंभ से ही एक प्रवाह के साथ, गति के साथ आगे बढ़ती है। पात्र सहजता से आते रहते हैं। पात्रों का रेखाचित्र अनायास पाठक बना लेता है। संवाद सरल है। कहीं भी हड़बड़ाहट नहीं है। छोटे-छोटे वाक्यों के साथ कहानी कहन के साथ आगे बढ़ती है। पात्रों में रमन केंद्रीय भूमिका के साथ प्रारंभ से ही स्थापित हो जाता है। उसके भीतर भी लड़कपन साफ झलकता है लेकिन अंत में वह एक जिम्मेदारी केेेे तहत सब कुछ स्वीकार कर लेता है। यदि वह चाहता तो चुप रह सकता था। वह बीती शाम की घटना का उल्लेख भी न करता।
यहां बड़ी सरलता के साथ और ऐसा होता ही है बच्चे भी पूरी सच्चाई व ईमानदारी के साथ गलतियां स्वीकार करते है। रमन के पिता भी उसे समझते हैं और एक जिम्मेदार पिता की तरह उन्हें जो करना चाहिए था, वह करते हैं। अलबत्ता प्रारंभ से ही कहानी एक मकसद के साथ आगे बढ़ती है और बड़ी तीव्रता के साथ समाप्त हो जाती है। यूं तो यह भी कहा जा सकता है कि बेकार में ही विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ सही ढंग से निपट जाता है। लेकिन केवल रमन का व्यवहार चालक और परिचालक के साथ असामान्य नहीं था। कई बच्चे थे, जो बिना टिकट कई दिनों से बस का सफर कर रहे थे। हालांकि चाबी रमन ने निकाली थी और जन्मदिन उसका ही प्रभावित हुआ था। किंतु जाम में जैसा की कथा में आया भी है कईयों को परेशानी हुई भी। दो-तीन पंक्तियों में यह भी उल्लेख हो जाता कि रमन यह वाकया अपने सहपाठियों से जरूर बताता है। सभी इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि बहुत गलत हुआ और बहुत कुछ और गलत और भी हो सकता था।
पत्र-पत्रिकाओं में कहानी आजकल पेज के हिसाब से तय होती है,या यूं कहूं संपादित भी हो जाती है। या लिखी भी जाती है। लेकिन यह जरूरी भी नहीं कि कहानी में आदर्श स्थिति में लाकर अंत किया जाए। पंकज जी ने अंत के पहरे में सब कुछ शामिल करते हुए कहानी को कमजोर होने से बचाया है। कैलाश भी पात्र के तौर पर आया तो लेकिन फिर उसकी जरूरत आगे नहीं बनती दिखाई दी। संवाद बनावटी कहीं भी नहीं बने हैं। पंकज जी की यह कहानी अक्तूबर माह 2014 के नंदन में भी पढ़ी जा सकती है।
कहानी परोक्ष रूप से पाठकों के मन में यह बात गहरे से बिठाती है कि कभी-कभी यूं ही या बगैर सोचे-विचारे हम ऐसा कुछ कर देते हैं कि उससे मामला बेहद बिगड़ जाता है। मैं आज भी उस दिन को याद करता हूं जिस दिन दिल्ली में ग्रिड फेल हो गया था। दिल्ली सुना है उस रात थम गई थी। दिल्ली का थमना किसी दिल का दौरा पड़ने से कम नहीं है। कुल मिलाकर मुझे यह कहानी बेहद पसंद आई। मैंने इसे दो बार पढ़ा है।
यदि बार-बार पढूंगा तो कई आयाम और दिखाई देंगे। कथाकार को अच्छी कहानी कहने के लिए क्या आप भी मेरी तरह बधाई नहीं देना चाहेंगे? चलिए पहले कहानी पढि़ए ओर फिर बधाई उन तक पहुंचेगी, यदि यहां कमेंट देंगे। _____________________________________________________________________
'जाम में फंसा जन्मदिन'
*पंकज चतुर्वेदी
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उस दिन पहली बार चस्का लगा, जब कैलाश ने बोला,‘‘अरे बस में चलते हैं, हम लोग स्कूल में पढ़ने वाले हैं। छात्रों के पैसे थोडे ही लगते हैं।’’
रमन का घर स्कूल से ज्यादा दूर नहीं था। बामुश्किल डेढ़ किलोमीटर। सुबह तो पापा आफिस जाते हुए स्कूटर से छोड़ देते, शाम को रमन पैदल आ जाता। रमन कक्षा नौ में है तो कैलाश ग्यारह में। रहते पास-पास में ही हैं, सो कई बार स्कूल की छुट्टी में साथ हो जाते। हालांकि कैलाश के अपने दोस्त बहुत से हैं , इस लिए बड़े बच्चों के बीच रमन को कुछ अटपटा लगता। उस दिन चार-पांच बच्चे स्कूल से निकले कि हल्की सी बूंदाबांदी होने लगी। तभी हरी वाली लो फ्लोर बस आती दिखी। कैलाश ने हाथ दिया और ड्रायवर को भी शायद भीगते बच्चों पर दया आ गई और उसने बस रोक दी।
कैलाश अपने सभी दोस्तों के साथ बस में चढ़ गया,उसमें रमन भी था। कंडटर ने टिकट की कही तो सब बच्चे एक हो गए, ‘‘अरे स्टुडेंट का कहीं टिकट लगता है? हम तो फ्री ही चलते हैं।’’ कंडक्टर भी बाहर बारिश देख रहा था, उसने बच्चों को चेतावनी दे कर छोड दिया,‘‘ देखों, बच्चों, हमारे पास ऐसा कोई आदेश नहीं है कि छात्रों से टिकट ना लिया जाए। किसी दिन फ्लाईंग स्क्वाड वाले मिल गए तो मेरी भी नौकरी खतरे में आ जाएगी।’’ अगले दिन तो बस में चढ़ने वाले बच्चो की संख्या भी बढ़ गई। आज 20 बच्चे बस में घुस गए। जब इतने बच्चे होंगे तो थोडी सी शैतानियां भी होंगी। उनकी हरकतों से ड्रायवर भी परेशान था, क्यों कि भी कोई बच्चा दरवाजे पर लटक जाता तो कोई खिडकी से झूलने लगता। भीतर बैठी सवारियों को भी चढ़ने-उतरने में दिक्कत हो रही थी।
ड्रायवर और कंडक्टर पहले प्रेम से समझाते रहे, फिर डांटा भी लेकिन उन सभी को तो बदमाशियों करने में मजा आ रहा था। दो दिन से रमन कुछ जल्दी घर पहुंच रहा था। मां ने पूछ ही लिया, ‘‘ क्या स्कूल से जल्दी भाग कर आ रहे हो?’’ ‘‘नहीं मां, हम तो अब बस से आने लगे हैं ना। दो मिनट में अगले दिन बस के ड्रायवर ने स्कूल की छुट्टी का समय आड़ लिया व वह हर दिन की तुलना में कुछ देर से निकला। लेकिन यह क्या बच्चों की मंडली सड़क पर ही खड़ी थी। बस स्टैंड पर दो सवारी को उतरना था और कुछ को चढ़ना भी था, बस रोकनी पड़ी। बच्चे फिर से भीतर घुस गए और हर रोज की तरह हंगामा होता रहा। ड्रायवर के चिल्लाने या कंडक्टर के नाराज होने की उन्हें परवाह ही नहीं थी। वे तो उसका और मजा ले रहे थे। यह हर रोज का तमाशा हो गया था। उस दिन रमन का जन्मदिन था। शाम को घर पर एक पार्टी भी थी। रमन आज स्कूल की वर्दी में नहीं था। नए कपड़े थे। उसने अपने सभी दोस्तो को भी टाॅफी बांटी। कुछ बच्चों को घर भी बुलाया।
स्कूल की छुट्टी हुई व बच्चा-पार्टी सड़क पर आ गई। आज तो उनका लीडर कैलाश आया नहीं था। बच्चों ने उत्साह में भरे रमन को ही आगे कर दिया। दूर से बस आती दिखी। आज इस स्टाप पर कोई चढ़ने वाली सवारी थी नहीं, बस उतरने वाली ही थीं। ड्रायवर ने कुछ आगे बस बढ़ा दी। लेकिन बच्चे तो दौड़ पड़े। जैसे ही दरवाजा खुला कुछ भीतर घुस गए। बस में भीड़ भी बहुत थी, सो कई बच्चे दरवाजे पर ही लटक गए। अब बस रफ्तार से चल ही नहीं पा रही थी। असल में इन नई बसों में जब तक दरवाजा बंद नहीं होता है, बस ठीक से काम नहीं करती है। बस जैसे ही फ्लाई ओवर पर पहुंची, उसका रैंगना भी बंद हो गया। अब ड्रायवर और कंडक्टर को गुस्सा आ गया। वे बस से नीचे उतर गए। कुछ सवारियां भी उनके साथ थीं। जम कर झिक-झिक हो रही थी और बच्चे थे कि इस पर भी मजाक उड़ा रहे थे। कंडक्टर और सवारियों ने एक-एक बच्चें को हाथ पकड़ कर नीचे उतारना शुरू कर दिया। बात बिगउ़ती देख रमन को एक खुराफात सूझी। वह दौड़ कर गया और बस के ड्रायवर की सीट के पास पहुंचा। उसने धीरे से बस की चाबी निकाली और बच्चों के पास आ कर बोला, ‘‘ चलो-चलो हम पैदल ही चलते हैं। देखना थोड़ी देर मे ंयह हमारे हाथ-पैर जोडेंगे।’’
बच्चों की पार्टी भी रमन के पीछे हो ली। बच्चे दौड़ते हुए गायब हो गए और उधर जब ड्रायवर अपनी सीट के पास पहुंचा तो चाबी ना पा कर परेशान हो गया। पहले तो उसने अपनी ही जेब में देखी, फिर आगे-पीछे देखी। बड़ा परेशान कि बगैर चाबी के बस कैसे चले। बस जिस डिपों की थी वह यहां से 20 किलोमीटर दूर । वहां फोन तो कर दिया, लेकिन दूसरी चाबी आने में भी घंटों लगने थे। वैसे भी इस हंगामें में एक घंटा हो गया था और फ्लाई ओवर के बीचों-बीच बस के खड़े हो जाने से सड़क पर जाम बढ़ता जा रहा था। शाम के पांच बज रहे थे और अब दफ्तरों की छुट्टी का भी समय हो गया था। देखते ही देखते जाम कई किलोमीटर का हो गया।
कुछ लोग विपरीत दिशा से अपने वाहन निकालना चाहते थे और इससे हालत और बिगड़ गए। यहां तक कि बस को खींच कर ले जाने के लिए क्रैन या डुप्लीकेट चाबी ले कर आपे वालों के लिए भी रास्ता नहीं बच रहा था। इस शहर का मिजाज ही कुछ ऐसा है कि यदि एक सड़क पर जाम लग जाए तो कुछ ही देर में आधे शहर की सड़कों पर वाहन ठिठक जाते हैं। इधर रमन ने अपने कमरे में स्टीरियो लगा दिया और बढि़या डांस वाले गाने बजने लगे। उसे इंतजार था अपने पापा का क्योंकि वह उसके लिए कैक ले कर आने वाले थे।
उसे इंतजार था अपनी बड़ी दीदी का जिन्होंने वादा किया था कि अपने आफिस की छुट्टी के बाद वे उसके लिए तोहफे में साईकिल ले कर आएंगी। दोस्तों का ंइतजार तो था ही। आसपास के दो तीन बच्चे तो आ गए, लेकिन दूर से आने वाले कोई भी नहीं आए। रात के आठ बज गए ना तो दीदी आए ना ही पापा और ना ही दोस्त। ‘‘ पापा, कहां रह गए? मेरा कैक भी नहीं आया ?’’ रमन ने पापा को फोन किया। ‘‘अरे तुम्हे केक की पड़ी है, यहां मैं सड़क पर तीन घंट से अटका हूं। गाड़ी का पेट्रोल खतम हो रहा है। कार का एसी बंद करना पड़ा है। पता नहीं तुम्हारा केक घर पहुंचते-पहुंचते ठीक रह पाएगा या नहीं।’’
बेहद शोर के बीच पापा ने खीजते हुए कहा। दीदी को फोन किया तो वे तो रूआंसी थीं, ‘‘तीन घंटे हो गए हें आफिस से निकले हुए। दो किलोमीटर भी नहीं बढ़ पाई हूं। अब तो लगता नहीं कि साईकिल वाले की दुकान भी खुली होगी। ’’ केक था नहीं, दोस्त आए नहीं, दीदी-पापा भी नहीं। हताश रमन ने अपने नए कपड़े उतारे, घर के कपउ़े पहने और सुबकते हुए अपने बिस्तर पर लेट गया। ऐसे जन्मदिन की उसने कल्पना भी नहीं की थी- ना दोस्त,पार्टी, यहां तक कि रात में खाना भी नहीं खाया। पता नहीं पापा और दीदी कितनी बजे रात में घर आ पाए। अगले दिन रविवार था। ना उसे स्कूल जाना था और नाही पापा को आफिस। जब वह सो कर उठा तो देखा पापा आंगन में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं।
उन्होंनें बताया कि एक बस के फ्लाई ओवर पर बंद हो जाने के कारण इतना जाम हुआ था। ‘‘ बताओं ड्राईवर ने बस की चाबी गुम दी। एक बस के कारण कितने लोग बेबस थे ? पता नहीं कोई अस्पताल जाने से रह गया हो तो किसी की ट्रेन-बस छूट गई होगी। ऐसे लापरवाह ड्राईवर को तो नौकरी से निकाल देना चाहिए। हम हमारे बच्चे का जन्मदिन भी नहीं मना पाए।’’ अब रमन को समझ में आ रहा था कि कल जो उसके जन्मदिन का मजा खराब हुआ, उसका दोषी वह खुद ही है। कल रात का दुख उभर कर सामने आ गया।
‘‘ नहीं पापा, लापरवाही ड्राईवर की नहीं थी.... मेरे साथ कल जो हुआ, उसका जिम्मेदार मैं ही हंू। शहर में भी जो अव्यवस्था हुई, वह भी मेरे कारण हुआ।’’ रमन फूट-फूट कर रोने लगा। पापा ने रमन को चुप करवाया तो रमन ने अपनी पूरी शैतानी बता दी।
पापा ने तकल रमन को अपने साथ लिया और उस बस डिपो में जा पहुंचे, जहां की बस थी। वहां पर उस ड्राईवर को सस्पेंड करने की बात चल रही थी। रमन की बात सुन कर डिपो मेनेजर ने ड्राईवर को दंड देने का विचार छोड़ दिया।
‘‘ यदि बस में सवारी करना है तो टिकट जरूर लें। , कंडक्टर और ड्राईवर की बात मानें। वह आपके ही भले के लिए कहते है।’’ डिपों मेनेजर ने समझाया।
पापा ने भी साफ कह दिया कि यदि बस से घर आना है तो घर से पैसे ले कर जाना और घर आ कर टिकट दिखाना।
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