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सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

Indian printing industry in threat due to paper crisis

कागज
यहां भी गड़ी चीन की नजर

पिछले कुछ महीनों के दौरान कागज के दाम अचानक ही आसमान को छू रहे हैं, किताबों छापने में काम आने वाले मेपलीथों के 70 जीएसएम कागज के रिम की कीमत हर सप्ताह बढ़ रही है। इसका सीधा असर पुस्तकों पर पड़ रहा है। भारत में मुदण्रउद्योग दुनिया की सबसे तेज बढ़ रहे व्यापार में गिना जाता है। हमारे यहां साक्षरता दर बढ़ रही है, उच्च शिक्षा के लिए नामांकन आंचलिक क्षेत्र तक उत्साहजनक हैं। फिर दैनिक उपभोग के उत्पादों के बाजार में भी प्रगति है सो पैकेजिंग इंडस्ट्री में भी कागज की मांग बढ़ रही है। गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि चीन एक सुनियोजित चाल के तहत दुनिया के कागज के कारोबार पर एकाधिकार करने की फिराक में है। इसका असर भारत में ज्ञान-दुनिया पर भी पड़ रहा है। भारत में आज 20.37 मिलियन टन कागज की मांग है जो कि सन 2020 तक 25 मिलियन टन होने की संभावना है। हमारे यहां मुदण्रमें कागज की मांग की वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत सालाना है तो पैकेजिंग में 8.9 फीसद। लगभग 4500 करोड़ सालाना के कागज बाजार की मांग पूरी करने के लिए कहने को तो हमारे यहां 600 कागज कारखाने हैं, लेकिन असल में मांग पूरी करने के काबिल बड़े कारखाने महज 12 ही हैं। वे भी एनसीईआरटी जैसे बड़े पेपर खपतकर्ता की मांग पूरी नहीं कर पाते। पाठ्य पुस्तकें छापने वाले एनसीईआरटी को हर साल 20 हजार मीट्रिक टन कागज की जरूरत होती है और कोई भी कारखाना इसकी जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं कर पाता। असम में संचालित एकमात्र सरकारी कारखाना हिंदुस्तान पेपर लिमिटेड को सरकार ने पिछले साल ही बंद कर दिया। अब सारा दारोमदार निजी उत्पादकों पर है। बीते तीन सालों में असम की ही अन्य चार निजी पेपर मिल भी बंद हो गईं। दुनिया में सर्वाधिक कागज बनाने वाले तीन देश हैं - चीन, अमेरिका और जापान। जो दुनिया की सालाना मांग 400 मिलियन टन का लगभग आधा कागज उत्पादन करते हैं। चूंकि हमारे कारखाने बहुत छोटे हैं और उनकी उत्पादन कीमत ज्यादा आती है सो गत एक दशक के दौरान चीन के कागज ने वैसे ही हमारे बाजार पर कब्जा कर रखा है। यह सभी जानते हैं कि भारत में कागज पेड़ के तने और बांस से निर्मित पल्प या लुगदी की कच्ची सामग्री से बनते रहे हैं। जंगल कम होने के बाद पल्प का संकट खड़ा हुआ तो रिसाईकिल पेपर की बात सामने आई। विडंबना है कि हमारे कई कारखाने अपनी तकनीक को पुराने रद्दी पेपर से तैयार लुगदी से कागज बनाने में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पल्प की कमी के चलतें स्थानीय उत्पाद के कागज के दाम ज्यादा आ रहे हैं। पहले तो चीन पेपर पल्प के लिए पेड़ों और रद्दी कागज के रिसाईकिल का उत्पादन स्वयं कर रहा था लेकिन अब उनके यहां भी जंगल कम होने का पर्यावरणीय संकट और कागज रिसाईकिल करने की बढ़ती मांग व उससे उपजे जल प्रदूषण का संकट गंभीर हो रहा है सो चीन ने सारी दुनिया से पल्प मनमाने दाम पर खरीदना शुरू कर दिया। भारत से भी बेकार कागज, उसका पल्प पर चीन की नजर है। इसी के चलते हमारे यहां कागज का संकट गहरा रहा है। विश्व में संभवत: भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहां 37 से अधिक भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं। अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन में भारत का तीसरा स्थान है। देश में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिशत हिंदी, 20 प्रतिशत अंग्रेजी और शेष 55 प्रतिशत अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। कागज उद्योग में लगभग सवा लाख लोग सीधे और साढ़े तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पा रहे हैं। पिछले पांच वषों से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है। भारत सरकार को पल्प के आयात पर पूरी तरह रोक लगाना चाहिए। रद्दी कागज के आयात पर शुल्क समाप्त कर देना चाहिए और कागज के प्रत्येक कारखाने को अपने स्तर पर रिसाईकिल पल्प बनाने की आधुनिकतम मशीनें लगाना चाहिए। हमें कागज की खपत को किफायती बनाने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे। सरकारी कार्यालयों में कागज के दोनों तरफ लिखने का अनिवार्यता, प्रत्येक कागज की आफिस कॉपी रखने, वहां से निकले कागज को पुनर्चकण्रके लिए भेजने की व्यवस्था जैसे कदम उठाए जाने चहिए। बार-बार पाठ्य पुस्तकें बदलने से रोकने और बच्चों को अपने पुराने साथियों की पुस्तकों से पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। विभिन्न सदनों, अदालतों, कार्यालयों में पांच पेज से ज्यादा के एजेंडे, रिपोर्ट आदि को डिजिटल करना भी कारगर उपाय हो सकता है।

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