मानसून प्रबंधन भी बने पाठ्यक्रम का हिस्सा
यह हम सभी जानते हैं कि भारत के लोक-जीवन, अर्थव्यवस्था, पर्व-त्योहार का मूल आधार मानसून का मिजाज है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो महानगर-शहर पूरे साल वायु प्रदूषण के कारण हल्कान रहते हैं, इसी मौसम में वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है। खेती-हरियाली और साल भर के जल का जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीर्वाद इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका कारण यह है कि हमारे देश में मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है- कारण है शहरों की ओर पलायन व गांवों का शहरीकरण।
विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं, लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाश्त होती है, वह दो सौ वर्षो तक अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर विलाप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए। दिल्ली के पुराने खादर बीते पांच दशक में ओखला-जामिया नगर से लेकर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कालोनियों में बस गए और अब सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के लिए खादर बनाने की बात कर रही है। यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन व डिपो समेत अनेक नए निर्माण यमुना के क्षेत्र में बीते वर्षो के दौरान किए गए हैं।
बिहार में उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां आती थीं जो संख्या आज घट कर बमुश्किल 600 रह गई है। मध्य प्रदेश में नर्मदा, बेतवा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं।
देश में जहां-जहां नदियों की अविरल धारा को बांध बना कर रोका गया, उस क्षेत्र को इस वर्ष की बारिश ने जल-मग्न कर दिया। अभी तक बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सड़क आदि, खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में है। सरदार सरोवर को पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खोले नहीं गए जिससे मध्य प्रदेश के बड़वानी और धार जिले के 45 गांव पानी में डूब गए। राजस्थान के 810 बांधों में से 388 लबालब हो गए और जैसे ही उनके दरवाजे खोले गए तो नगर-कस्बे जलमग्न हो गए। राज्य के पांच बड़े बांध कोटा बैराज, राणाप्रताप सागर, जवाहर सागर और माही बजाज के सभी गेट खोलने पड़े हैं। कोटा, बारां, बूंदी, चित्ताैड़गढ, झालावाड़ में बाढ़ के हालात बन गए। बारां, झालावाड़ में कई दिन स्कूल बंद रहे। कोटा में इससे व्यापक नुकसान हुआ। हर जगह पानी के प्रकोप का कारण बांध थे।
मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी का जल स्तर बढ़ते ही होशंगाबाद के तवा बांध के सभी 13 गेटों को 14-14 फुट खोल दिया गया और इसी के साथ कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर इलाके के खेत-बस्ती, सड़क सब पानी में डूब गए। आजाद भारत के पहले बड़े बांध भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया, पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में लगातार दूसरे वर्ष बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उत्तर प्रदेश में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही है।
हमारी नदियां उथली हैं और उनको अतिक्रमण के कारण संकरा किया गया। नदियों का अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं। फिर पानी सहेजने व उसके इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लगात, दशकों के समय, विस्थापन के बाद भी थोड़ी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं।
असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति न तो गंभीर हैं और न ही कुछ नया सीखना चाहते हैं। पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है, जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है। मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं है, इससे बहुत कुछ जुड़ा है। मानसून-प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे स्कूलों से ले कर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो, जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, शहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों।
पंकज चतुर्वेदी
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