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सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

only burning of parali can not be blame for pollution of Delhi

पांच दिन की चांदनी, फिर जहरीले दिन 

पंकज चतुर्वेदी


बरसात प्रकृति के साथ इंसान द्वारा किए गए सारे कुकृत्यों को धो देती है। अभ्ीा मानसून विदा हुआ नहीं था और दिल्ली के सारे अखबारों में कई-कई दिन पूरे पेज के विज्ञापन दे कर जता दिया गया कि राजधानी का प्रदूषण 25 फीसदी कम हो गया। हालांकि न तो इसका कोई मापदंड था, ना ही आकलन लेकिन यह बात सरकार में बैठे सभी को पता थी कि अक्तूबर महीने के दूसरे सप्ताह से हवा जहरीली होगी, फिर भी सभी इंतजार करते रहे कि हालात काबू से बाहर हों। दिल्ली व उसके आसपास घना स्मॉग क्या छाने लगा, सारा दोष पंजाब-हरियाण के किसानों के पराली जलाने पर डाल दिया गया। हवा का जानलेवा जहर दिल्ली से ज्यादा तो उसके करीबी महानगरों- गाजियाबाद, नोएडा, गुरूग्राम, फरीदाबाद आदि में है। अब पंद्रह दिन के लिए सड़क पर वाहनों एक दिन छोड़ कर चलने पर पाबंदी, निर्माण कार्य रोकने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। जान लें कि ये तदर्थ उपायों से फिलहाल तो हवा की गुणवत्ता कुछ सुधारी जा सकती है लेकिन वास्तव में दिल्ली- राजधानी क्षेत्र को ‘मरता इलाका’ बनने से बचाना है तो अब‘ प्यास लगने पर कुआं खोदने’’ वाली प्रवृति से काम चलेगा नहीं। कुछ ही दिनों पहले ही ंविष्व स्वास्थ संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे ज्यादा दूशित वायु वाले षहर के तौर पर चिन्हित किया है। इसके बावजूद यहां का यातयात प्रबंधन, निर्माण कार्य आदि ना तो जन स्वास्थ्य की परवाह कर रहे हंे ना ही पर्यावरण कानूनों की।
यह जानना जरूरी है कि दिल्ली एनसीआर में पूरे साल , महज बरसात के पंद्रह से पच्चीस दिन छोड़ कर, वायु प्रदूषण के यही हालात रहते हैं। गरमी में  फैंफड़ों में जहर भरने का दोष तापमान व राजस्थान-पाकिस्तान से आने वाली धूल को दिया जाता है तो ठंड में इसका दोषी किसानों को पराली जलाने के कारण बताया जाता है।  दिल्ली से शून्य किलेाीमटर दूर स्थित गाजियाबाद की आवो हवा पूरे साल देश में सर्वाधिक दूषित रही। अभी तक को कोई यूक्ति बनी नहीं है जो कि वायू प्रदूषण को भौगोलिक ईकाई के अनुरूप रोक ले। यदि पडा़ेसी गाजियाबाद की हवा जहरीली है तो दिल्ली इससे अछूता रह नहीं सकता।
यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में सबसे बड़ा योगदान 23 फीसदी धूल और मिट्टी के कणों का है।  17 प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। जनरेटर जैसे उपकरणों के चलते 16 प्रतिशत सात प्रतिशत औद्योगिक उत्सर्जन और  12 प्रतिशत पराली या अन्य जैव पदार्थों के जलाने से हवा जहरीली हो रही है। सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण नजर आ रहे हैं और इनका सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली एनसीआर में दो सौ से अधिक स्थानों पर चल रहे बड़े निर्माण कार्यांे, जैसे कि मेट्रो, फ्लाई ओवर आदि हैं।
दरअसल इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा ज्यादा ना हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।
पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग। जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड  वाहन, मेट्रो स्टेषनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्षे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। इसे अलावा दिल्ली में कई स्थानों पर सरे राह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसमें घरेलू ही नहीं मेडिकल व कारखानों का भयानक रासायनिक कूड़ा भी हे। ना तो इस महानगर व उसके विस्तारित शहरों के पास कूड़ा-प्रबंधन की कोई व्यवस्था है और ना ही उसके निस्तारण्ण का। सो सबसे सरल तरीको उसे जलाना ही माना जाता हे। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हर रोज कम से कम दो सौ जगहों पर जाम के चलते कोई 80 करोड़ रूपए का ईंधन जल रहा है लेागों के घंटे बरबाद हो रहे हैं। इसके चलते दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा खौफ पैदा करने वालो आंकड़ों कों बांचने से ज्यादा डाक्टरों के एक ंसंगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें बताया गया है कि देष की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे है, जो अपने खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं।
जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है।
सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। दिल्लीवासी इतना प्रदूषण ख्ुाद फैला रहे हें और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों को कम से कम दो  सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने , कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं। इवन-ऑड महज एक नारेबाजी सरीका दिखावटी कदम है।

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