आफत बनते आवारा मवेशी
पंकज चतुर्वेदी
27 सितंबर को एक जनहित याचिका को गंभीरता से लेते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने उप्र सरकार को कहा कि जिस तरह से छुट्टा पशु खेतों को नष्ट कर रहे हैं, सड़कों पर दुर्घटनाएं हो रही हैं, इससे निबटने को राज्य शासन की क्या योजना है ? सरकार को जवाब देने के लिए आठ नवंबर 2019 तक का समय दिया गया है। अकेले उप्र ही नहीं लगभग सारे देश में बेसहारा गौवंश, भले ही राजनीति का अस्त्र बन गया हो, लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेहद दुर्गति है। जिस पशु-धन से देश की समृद्धि का द्वार खुल सकता है वह भूखा- लावारिस सड़कों पर यहां-वहां घूम रहा है। सड़क पर वाहनों का शिकार हो रहा है, कूड़े में पड़ी पॉलीथीन खा कर निर्मम मौत की चपेट में आ रहा है।अभी कुछ ही दिन पहले इलाहबाद जिले के राहटीकर गांव के किसानों ने अपनी दलहन फसल बचाने के लिए आवारा पशुओं को गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के परिसर में घेर दिया। पुलिस आई तो गांव वालों से टकराव हुआ। पुलिस ने जब जानवरों को गांव से बाहर निकालने का भरोसा दिलाया तब टकराव टला। लेकिन जैसे ही पुलिस ने आवरा पश्ुाओं के रेवड़ को दूसरे गांव की ओर खदेड़ा, वहां की पुलिस को तनाव हो गया और देखते ही देखते दोनों गांव वालों में झगड़े की नौबत आ गई।
एक सरकारी अनुमान है कि आने वाले आठ सालों में भारत की सड़कों पर कोई 27 करोड़ आवारा मवेशी होंगें। यदि उन्हें सलीके से रखना हो तो उसका व्यय पांच लाख 40 हजार करोड़ होगा, । यह राशि हमारे कुल सालाना बजट से कहीं ज्यादा है। हिंदी पट्टी के गांवों में देर रात लेागों के टार्च चमकते दिखते हैं। इनकी असल चिंता वे लावरिस गोवंश होता है जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं। जब से बूढे पशुओं को बेचने को ले कर उग्र राजनीति हो रही है, किसान अपने बेकार हो गए मवेशियों को नदी के किनारे ले जाता है, वहां उसकी पूजा की जाती है फिर उसके पीछे पर्दा लगाया जाता है , जिसे मवेशी बेकाबू हो कर बेतहाश भागता है। यहां तक कि वह अपने घर का रास्ता भी भूल जाता हे। ऐसे सैंकड़ों मवेशी जब बड़े झुंड में आ जाते हैं तो तबाही मचा देते हैं।
यह सभी जानते हैं कि एक तो देश में खेती का मशीनीकरण हो रहा है जिससे बैल की भूमिका नगण्य हो गई। गाय पालने पर होने वाले व्यय की तुलना में उसके दूध से इतनी कमाई नहीं होत, गाय के दूध में क्रमी जैसे उत्पाद कम निकलते हैं। अब गौवंश के बंध्याकरण का काम कागजों पर ही है, सो हर साल हजारों-हजार मवेशी लावारिस बनना ही है।
यहां जानना जरूरी है कि सन 1968 तक देश के हर गांव- मजरे में तीन करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ गौचर की जमीन हुआ करती थी, जहां आवारा या छुट्टा पशु चर कर अपना पेट भर लेते थे। सनद रहे कि चरागाह की जमीन बेचने या उसका अन्य काम में इस्तेमाल पर हर तरह की रोक है। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां पशुओं को चरने की जमीन के साथ कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया। चरने की जगह कम बची और आवारा पुश बढ़े तेा अधिक चराई व जानवरों के खुरों से जमीन के ऊसर होने की गति भी बढ़ गई। खाना-पानी की तलाश में जानवर इधर-उधर बेहाल घूमने लगे। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है।
बुंदेलखंड की मशहूर ‘‘अन्ना प्रथा’’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते । सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। दो पांच हजार गायों की रेवड़ जिस दिशा में निकलती है किसान लाठी ले कर उन्हें खदेड़ने में लग जाते हैं। कई जगह पुलिस लगानी पड़ती है। प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेशी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। भूखे -प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं।
पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल संसांधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मंे कहीं भी पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि हिंदी पट्टी में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
यह समझना जरूरी है कि गौशाला खोलना सामामजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पशुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए। गाय या बैल से उनकी क्षमता के अनुरूप कार्य लेना अनिवार्य है। इससे एक तो उर्जा की बचत होती है, दूसरा खेती-किसानी की लागत भी कम होती है। जान लें कि छोटी जोत में ट्रैक्टर या बिजली के पंप का खर्चा बेमानी है। इसके अलावा गोबर और गौमूत्र खेती में रासायनिक खाद व दवा की लागत कम करने में सहायक हैं। यह काम थोड़े से चारे और देखभाल से चार बैलों से लिया जा सकता है। आज आवार घूम कर आफत बने पशुओं की अस्स्ी फीसदी संख्या काम में लाए जाने वाले मवेशियों की है।
आज जरूरत है कि आवारा पशुओं के इस्तेमाल, उनके कमजोर होने पर गौशाला में रखने और मर जाने पर उनकी खाल, सींग आदि के पारंपरिक तरीके से इस्तेमाल की स्पश्ट नीति बने। आज जिंदा जानवर से ज्यादा खौफ मृत गौ-वंश का है, भले ही वह अपनी मौत मरा हो। तभी बड़ी संख्या में गौपालक गाय पालने से मुंह मोड़ रहे हैं।
देश व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति दूरंदेशी नीति व कार्य योजना आज समय की मांग है। आज भी भारत की राश्ट्रीय आय में पशु पालकों का प्रत्यक्ष योगदन छह फीसदी है। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।
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