आस्था और अंधविश्वास में फर्क करें
पंकज चतुर्वेदी
आंध््रा प्रदेश में नैल्लोर जिले का समुद्र से सटा गुमनाम से एक गांव कृष्णा पट्नम एक महीने से पूरे इलाके में मशहूर है। यहां दिन हो या रात कई किलोमीटर लंबी लाईनें लगी रहती हैं। कहा गया कि यहां के एक पारंपरिक वैद्य बोनिगी आदंदैया ने कोई दवाई बनाई है जिससे कोरोना ठीक हो जाता है। शहद, काली मिर्च, काला जीरा, दाल चीनी आदि आदि से निर्मित चार दवाओं में एक आंख में डालने की दवा है जिसको ले कर दावा है कि उससे दिमाग सक्रिय हो जाता है व उससे आक्सीजन की जरूरत कम हो जाती है। यहां अफसर, नेता सभी लाईन में लगे हैं। ना कोई मास्क ना ही सामाजिक दूरी। तमिलनाडु के कोयंबटूर के इरुगुर में कामत्चिपुरी अधीनम नामक मठ ने में तो बाकायदा कोरोना देवी का मंदिर बन गया है। कहानियां बहुत सी हैं लेकिन प्रशासन व स्थानीय चिकित्सा विभाग के पास इसकी सफलता की कोई जानकारी नहीं, ना ही भीड़ जुड़ने से फैल रही बीमारी की परवाह या आंकड़े।
एक सांसद ने सार्वजनिक कह दिया कि वे गौ मूत्र पीती हैं अतः उन्हें वैक्सीन की जरूरत नहीं। वे जब बोल रही थीं तो हाथ में दस्ताने व मुंह पर मास्क था। एक मई को ही उन्होंने ट्वीट कर बताया था कि उनका पूरा स्टाफ कोरोना पॉजीटिव है। एक जिम्मेदार मंत्री पापड़ खा कर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने का दावा कर देते हैं। कोई ‘गो करोना’ के श्लोक बोलता हैं। राजस्थान के बड़ी सादड़ी के ग्राम सरथला में भोपों(स्थानीय तांत्रिक) के कहने पर सारा गांव खाली किया गया और फिर गाय के पेशाब में नीम की पत्ती डाल कर शुद्ध करने के बाद घोशित कर दिया कि अब यहां कोरोना नहीं आएगा। राजस्थान के ही पानी के गांव-गांव में अफवाह फैला दी गई कि वैक्सिन से विकलांग हो जाते हैं।
उप्र के गोरखपुर जिले के हर गांव में कोविड के मामले हैं । यहां सहजनवा, कौडीराम, चौरीचोरा, गोला आदि इलाकें के हर गांव में काली माता व डीह बाबा की पूजा हो रही है। औरतें घर से बाहर निकल कर चूल्हा जला कर कढाई चढ़ा रही हैं जिसमें हलुआ-पूड़ी बनता है व प्रसाद के रूप में बंटता हैं। नीम की पत्ती देवी को चढ़ाई जाती है। यहीं प्रतापगढ़ में 11 बार हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए भीड़ जोड़ी जा रही है। अमेठी के पिंडोरिया गांव में सारा गांव मंदिर में जमा हुआ और घंटे बजाना व नाच-गाना हुआ। काशी के जैन घाट के किनारे और कुशीनगर में हर दिन सैंकड़ों औरतें कोरोना माई कीपूजा के लिए एकत्र हो रही हैं। यही हाल बगल के बिहार के गांवांे में हैं। मप्र का राजगढ़ हो या उप्र का मेरठ, हर जगह एक हाथ ठैली में गोबर के उपलो पर लोभान कपूर, हवन सामग्री जला कर शहर के शुद्धिकरण के जुलूस निकल रहे हैं। ऐसे ही घटनांए सारे देश में हर जिले में हो रही हैं और समाज और प्रशासन जाने-अनजाने ना केवल अंधविश्वास की जड़े मजबूत कर रहा है, बल्कि कोविड के विस्तार को हवा दे रहा है।
हकीकत यही है कि कोविड से जूझने के कोई माकूल तरीके दुनिया के पास हैं नहीं, हमारे डॉक्टर, वैज्ञानिक संभावना और उपलब्ध दवाओं के जरिये इस वायरस के कारण षरीर में उपजे विकारों को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। विपदा बड़ी है और साधन सीमित, ऐसे में हर चिकित्सक अपने सारे प्रयासों के बावजूद भगवान या किसी अदृश्य शक्ति पर भरोसा रखने की ताकीद देता है। जाहिर है कि वह यह सब अपने सभी प्रयासों के बाद मरीज या उनके तीमारदारों की तसल्ली के लिए कहता है लेकिन आस्था को अंधविश्वास बना देना और ऐसा अवसर बना देना जो कि कोविड के मूलभूत दिशा-निर्देशों का ही उल्लंधन हो, एक आपराधिक कृत्य माना जाना चाहिए। डाक्टर जानते हैं कि बगैर सकारात्मक कर्म के आस्था का प्रभाव होने से रहा।
गौमूत्र का पान करना निश्चित ही किसी की आस्था का विशय हो सकता है लेकिन इससे कोविड में रेाकथाम करने की बात किसी भी स्तर पर प्रामाणिक नहीं हैं। हवन सामग्री से वायु कितनी शुध्ध होती है, यह एक अलग मसल है लेकिन कड़वी सच्चाई तो यही है कि जब कोविडग्रस्त लोगों के फैंफडे हांफ रहे हैं, हवा में अधिक आक्सीजन अनिवार्य है तब किसी भी तरह का धुआं, कोविड या सांस के रोगियों के लिए जानलेवा है। नैल्लोर कीदवा हो या बाबाजी की जब तक सरकार ऐसे गैरवैज्ञानिक प्रयोगों पर कड़ाई से प्रतिवाद नहीं करेगी, अकेले कोविड ही नहीं भविश्य में ऐसी किसी भी परिस्थितिमें आम लोगों को सरकार की वैज्ञानिक कोशिशें पर विश्वास बनेगा नहीं।
जान लें उप्र के गांवों में जिस तरह संक्रमण फैल रहा है उसमें सामूहिक पूजा के लिए जुट रही भीड़ व उसकी कोताही की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। एक बात और लोगों के आस्थ को अंधविश्वास में बदलने से रोकने के लिए विज्ञान व प्रशासन को भी सतर्क रहना होगा । कभी रेमडेसिवर इंजेक्शन , फिर प्लाज्मा थैरेपी का हल्ला होता है और फिर उसके नकार दिया जाता है। वैक्सिीन से बचाव का जम कर प्रचार होता है और फिर वैक्सीन उपलब्ध ना होने पर लोग परेशान होते हैं। आम लोगो की आर्थिक स्थिति और अन्य कारणों से इलाज पहुंच में नहीं होता। तब ऐसे लोग हताश हो कर स्थानीय मंदिर, पंडत, गुनिया, ओझा के फेर में फंसते है।ं जाहिर है कि वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए सरकार को भी ग्रामीण अंचल तक अपनी उपस्थिति को मजबूत करना होगा।
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